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Monday, 6 June 2022

रूसी क्रांति (अक्टूबर 1917) की याद में--- मंथन अंक (7) (आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर ) ------------------------------------------------------------------------ लेखक : मंथन के साथीगण


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दुनिया में पहली बार मजदूरों, किसानों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धान्त व व्यवहार को अपनाकर बोल्शेविक पार्टी की अगुआई एवं लेनिन के नेतृत्व में अक्टूबर 1917 में रूसी क्रांति सम्पन्न की। उसी काति से प्रेरणा लेकर दुनिया के कई देशों में मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकश तबकों ने मिलकर अपने-अपने देशों में क्रांतियां करने हेतु संघर्ष किये जिनमें कहीं सफलता तो कहीं असफलता मिली मगर संघर्ष सतत जारी रहा। लिहाजा, उसी क्रांति की याद में रूस, चीन, पूर्वी यूरोपीय देशों, उ. कोरिया, वियतनाम इत्यादि से लेकर भारत जैसे देशों में धूमधाम से जलसे जूलूस, मीटिंगे, गोष्ठियां होती रही। मगर 1989 / 90 के बाद से आजतक --------??!!

हमने रूसी 1917 क्रान्ति की याद में विगत वर्षों की भाँति इस वर्ष 2014 में अक्टूबर व नवम्बर के महीने में मीटिंगे गोष्ठियां आयोजित किया। इसी सिलसिले में एक सामूहिक अपील "अक्टूबर क्रांति दिवस मनायें तो, पर क्यों? और कैसे?" नामक शीर्षक से 21 दिसम्बर 2014 को छाप (प्रिण्ट ) कर दूर-दूर तक बांटी थी। जिसमें उन समस्त लोगों व संगठनों से जो क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन में यकीन रखते हैं से अनुरोध किया कि ये स्थानीय सवालों के साथ-साथ अपील में उठाये गये मुद्दों / प्रश्नों को भी लेते हुए मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकशों के बीच मीटिंगे गोष्ठियां आयोजित करें एवं भावी कार्यक्रम बनायें।

'अपील' में सुझाये गये चर्चा के मुद्दे संक्षेप में यूँ थे ----
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(1) अक्टूबर क्रांति के उद्देश्य क्या थे? अगर मजदूर समाजवाद की स्थापना करना उद्देश्य था तो उसके लिए जारशाही पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ना क्यों जरूरी था? उसका अन्तर्राष्ट्रीय एवं खासकर भारत के सन्दर्भ में महत्व?

(2) मार्क्सवाद-लेनिनवाद है क्या? आज (2014) के युग में मार्क्सवाद लेनिनवाद की कौन सी मौलिक प्रस्थापनाएं लागू नहीं होती? इसके बारे में विश्व पूंजीवाद एवं कई वामपंथी क्या कहते हैं? क्या उनका कहना ठीक है, यदि हाँ तो कैसे? यदि नहीं तो कैसे?

(3) अक्टूबर क्रांति द्वारा स्थापित मजदूर किसान राज्य व समाजवाद को 1956 / 57 के सुधारों संशोधनों से धीरे-धीरे उखाड़़ते तोड़ते हुए समाजवाद के बचे हुये ढांचे को 1989 / 90 में उखड़ने व उखाड़े जाने से और उसके स्थान पर पूंजीवाद की पुनर्स्थापना से क्या मार्क्सवाद-लेनिनवाद अव्यावहारिक, अप्रासंगिक एवं पुराना साबित हुआ या इसका
उल्टा ?!
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(4) भारत में मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकश वर्गों के तात्कालिक व दूरगामी कार्यभार क्या हो सकते हैं या होने चाहिए, खासकर जब (क) आज बिन विरोध चारों ओर फैलते हुए बाजारवादी तथा उपभोक्तावादी युग में प. साम्राज्यवादी वित्तपूंजी के दिन-ब-दिन बढ़ते आगमन के लिए देशी पूंजीपति वर्ग, उसके राजनीतिक प्रतिनिधि दल नेता, उसके सारे के सारे अधिकारी विद्वान, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, पत्रकार, संस्कृतकर्मी, खेल-खिलाड़ी इत्यादि तबके लाल
कालीन बिछाते हुए उसके बढ़ते आर्थिक, राजनीतिक, सैन्य, कूटनीतिक एवं शैक्षिक सांस्कृतिक प्रभाव प्रभुत्व व नियंत्रण को चारों ओर बढ़ाने, फैलाने, गहराने में खासकर 1991 / 92 से लगे हैं?

(ख) अमरीकी एवं पश्चिमी साम्राजी वित्त पूजी के 1947 / 50 से व खासकर 1991 / 92 के बाद से कर्जा, अनुदान, सहयोग-सहायता, उधारी एवं एफ. डी.आई. इत्यादि के विभिन्न नामों व रूपों में बढ़ते आगमन से एक ओर किसानों, दस्तकारों, छोटे दुकानदारों व अन्य छोटी सम्पत्ति के मालिकों की टूटन व बढ़ती आत्महत्याओं, बढ़ती मंहगाई गरीबी, बेकारी इत्यादि से त्रस्त तबकों और दूसरी ओर देशी-विदेशी पूंजीपतियों एवं अनेक उच्च मध्यमवर्गीयों नाना प्रकार के फिल्मी व गैर-फिल्मी कलाकारों कलाकारिनियों, फैशन परेडियों विज्ञापनबाजों, साहित्यकारों, पत्रकारों टी.वी. प्रसारकों इत्यादि जैसे राजनीतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक मस्त तबकों की बढ़त बढ़त के बीच कोई संबंध है?

(ग) किस तरह शासक पूंजीपति वर्ग ने अपनी चुनावी शासन प्रणाली चलाने हेतु जातिवादी, धार्मिक सम्प्रदायवादी नस्लवादी क्षेत्रवादी, भाषावादी, लिंगवादी राजनीतिक व सामाजिक गोलबंदी को बढ़ावा देकर देश में आपसी कलह हिंसा व अस्थिरता, टूटन, अविश्वास पैदा कर रहा है। 

(घ) खेती किसानी, दस्तकारी एवं ग्रामीण उत्पादनों से जुड़ी आम जनता की मौजूदा आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक स्थितियों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण।

(ड.) मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकशों के हिमायतियों व पक्षघरों के वर्तमान स्थितियों में वैचारिक व व्यावहारिक कर्तव्य क्या होने चाहिए?

उपरोक्त मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दों को शामिल करते हुए हमने गाजीपुर (26 अक्टूबर). बलिया (2 नवम्बर) आजमगढ़ (9 नवम्बर) मऊ ( 23 नवम्बर) चन्दौली (30 नवम्बर) वाराणसी (2 नवम्बर) मीटिंगे / गोष्ठियां आयोजित की। जिनमें दूसरे जनपदों के प्रमुख साथीगण भी शामिल हुए। इनके अलावा देहातों व कस्बों में भी कई छोटी-छोटी मीटिंगे की गयीं। इनमें हमने स्थानीय स्तर पर हर खेमे के वामपंथियों को आमंत्रित किया मगर अफसोस है कि उनकी उपस्थिति व भागीदारी संतोषजनक नहीं थी। फिर भी प्रयास जारी रखना आयोजकों ने अपना कर्तव्य एवं दायित्व माना है जैसीकि हमने क्रान्ति कारी मार्गदर्शक साथी जी. डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) से प्रेरणा ली है।

अब एक अति महत्वपूर्ण बात 1989 / 90 में रूस तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में बचे खुचे समाजवाद व जनवाद तथा मजदूरों किसानों के राज्य को उखाड़़कर इन देशों में पूजीपतियों का राज्य व पूंजीवादी व्यवस्थाएं पुनः स्थापित कर दी गयीं, तो..? विश्व पूंजीवाद, प. साम्राज्यवाद एवं खासकर सबका सरगना अमरीकी साम्राज्यवादियों ने रात-दिन धुँआधार प्रचार किया कि रूस व पूर्वी यूरोपीय देशों में गैर जनतांत्रिक तानाशाही व अमानवीय राज्य व व्यवस्थाएं थी. इसलिए जनता ने उन्हें उखाड़़कर जनतांत्रिक एवं मानवीय राज्य व व्यवस्थाएं स्थापित की है। विश्व पूंजीवाद की प्रचार की आंधी या खुद के स्वतंत्र सोच-विचार से बहुतेरे वामपंथी भी आड़े़-तिरछे, अगर-मगर करके उसकी हा में हां मिलाने लग गये थे व है। इन्हें अक्टूबर की क्रांति एक देश में समाजवादी निर्माण सोवियत संघ का गठन एवं पूर्वी यूरोपीय देशों की क्रातियों में कमी खामी से लेके स्टालिन की तानाशाही इत्यादि इत्यादि दिखाई देने लगी है। इन वामपंथियों की दिव्यदृष्टि यहां तक पहुच गई कि आज आर्थिक व तकनीकी विकास के युग में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मौलिक प्रस्थापनाए-वर्गीय दृष्टिकोण वर्ग संघर्ष, मजदूर तानाशाही राज्य वाली समाजवादी से साम्यवादी (वर्ग विहीन समाज व्यवस्था भी "पुरानी' व 'अव्यावहारिक लगने लगी है। परिणाम ? मार्क्सवादी (मजदूरवादी) समाजवाद की जगह वैकल्पिक समाजवादी माडल तलाशते-तलाशते वे आज किसके साथ खड़े हैं?! शोषक शासकों के साथ या शोषित-शासितों के साथ यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न है ?.

-इस स्थिति को देखते व भाँपते हुए साथी श्री जी.डी. सिंह ने 1989 / 90 में ही मेहनतकशों के हर खेमें के मार्क्सवादियों के नाम (i) पहली (ii) दूसरी एवं (iii) तीसरी अपील (iv) समाजवाद क्यों असफल हुआ? कई कम्युनिस्ट क्या कहने लगे हैं? इत्यादि नामक लेख व पुस्तकें लिखीं जिन्हें छापकर दूर-दूर तक बाँटा व पढ़ाया ही नहीं गया, बल्कि उनपर शहरों, कस्बों व देहातों में बार-बार मीटिंग व गोष्ठियां भी की गई। इसी सिलसिले में 1991 में अक्टूबर क्रांति की याद में दो दिवसीय सम्मेलन आयोजित कर वामपंथी संगठनों के लोगों को आमंत्रित किया जिसमें कई संगठनों के लोग शामिल हुए। श्री जी.डी. सिंह ने कहा कि रूस व पूर्वी यूरोपीय देशों में मजदूरों किसानों का बचा खुचा राज्य व बची खुची जनवादी व समाजवादी व्यवस्थाएं उखाड़ ढहा कर उनकी जगह पूंजीपतियों का राज्य व पूंजीवादी व्यवस्थाएं स्थापित कर दी गयी हैं। इसलिए इन देशों में अक्टूबर क्रांति दिवस नहीं मनाया जा रहा है। अब इसका असर भारत जैसे देशों पर भी पड़ेगा। हो सकता है, इन देशों में भी पहले जैसे जोशो-खरोस के साथ इसे न मनाया जाये, अथवा कईयों द्वारा मनाया ही न जाये। क्योंकि मायूसी के साथ-साथ मौकापरस्ती भी फैली है। प्रश्न है, क्या ऐसा करना उचित होगा? बिल्कुल नहीं। कारण, हिन्दुस्तान के मजदूरों किसानों ने भी अक्टूबर क्रांति से प्रेरणा लेकर जनवादी व समाजवादी राज्य व व्यवस्थाएं स्थापित करने एवं ब्रिटिश (व अमरीकी) साम्राज्यवादियों की लूट, शोषण, दमन, उत्पीड़न व गुलामी से मुक्ति पाने हेतु अनगिनत कुर्बानियां दी हैं। आज भी मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकश तबकों की स्थितियां जस की तस शोषित, शासित, उत्पीड़ित, दबे-कुचले गुलामों के रूप में विद्यमान हैं। लिहाजा, उन्हें ही अक्टूबर क्रांति से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना है। इसलिए...... श्री जी.डी. सिंह ने विभिन्न खेमों के वामपंथियों को बार-बार प्रोत्साहन व प्रेरणा देते रहे कि मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन इत्यादि के जन्म दिवस एवं अक्टूबर क्रांति की याद में कार्यक्रम आयोजित करके उनमें सभी वामपंथियों को आमंत्रित करते हुए आज के सन्दर्भों में विषय वस्तु का निर्धारण करके विचार-विमर्श करना एवं व्यावहारिक कदम उठाना चाहिए। और वे इस बात पर भी बार-बार जोर देते रहे कि ये आयोजन मात्र औपचारिक न हो जैसेकि सरकारी व गैर सरकारी आयोजन होते हैं, बल्कि सार्थक व व्यावहारिक हो।

लेखक : मंथन के साथीगण ।   धन्यवाद ।

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