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Wednesday, 1 June 2022

भारत में जाति, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद



भारत में जाति, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को मानव समाज के उत्पादन की बुनियादी कार्यवाही से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। भारत में मानव सभ्यता का विकास उत्पादन पद्धति के गुणात्मक विकास के जिन मंजिलों से होकर गुजरा है वह वैसा ही है जैसे यूनानी सभ्यता, मिस्र की सभ्यता और चीन की मानव सभ्यता के विकास में आदिम कबिलाई समाज, दास प्रथा, सामंतवाद और पूंजीवाद पाई जाती है। इन अलग अलग मंजिलों में उत्पादन के औजार का इस्तेमाल बुनियादी रूप से भिन्न थे और आगे इन्हीं अपने पूर्ववर्ती मंजिलों के गर्भ से उत्पादन के उन्नत तकनीक का जन्म होता रहा। जब उभरते नई उत्पादन की तकनीक उत्पादन के प्रमुख औजार बन गए तो वे आर्थिक, सामाजिक संरचना, राजनीति, कला, साहित्य और संस्कृति को भी पूरी तरह बदल दिया। लेकिन समाज का यह समग्र नया ढांचा अपने पूर्ववर्ती सामाजिक संरचनाओं के निरंतरता में ही आकार लेता रहा है जिसके वजह से समाज में पुरातन के अवशेष की मौजूदगी भी बनी रहती है लेकिन प्रमुखता में नहीं।
                 भारत देश के मानव समाज के विकास में दास प्रथा की मंजिल प्रमुखता से नहीं दिखाई देती है। उस दौर में दास प्रथा की जगह भारत में जाति व्यवस्था ले लेती है। इस प्रतिस्थापन का कारण इतिहासकारों ने दर्ज की है। भारत के आर्य कबीलों में पाए जाने वाले शुरुआती पुरोहित, सैनिक और आमजन का विभाजन यूनानी सभ्यता में भी पाया गया है जो उस दौर के समाज के, वे सामाजिक समूह समाज की विशिष्ट जरुरतों को पूरा करते थे। भारत में इस सामाजिक विभाजन को स्थायित्व तब मिला जब कृषि की शुरुआत हुई और कृषि उत्पादन को विस्तार देने के लिए बहुविध किस्म के औजारों की जरूरत पड़ी। इस तरह श्रम विभाजन के अनेकों आयाम खुल गए। कृषि कार्य और उससे जुड़े उत्पादन के औजार बनाना और उसे बड़े पैमाने पर बनाना, उस समय उतना ही कठिन होगा जितना आज भविष्य के समाजवादी समाज के लिए शासक वर्ग के खिलाफ मेहनकश वर्ग को संगठित करना, उसमें भी जाति और वर्ग के आपसी संबंधों को समझकर इसे जमीन पर उतारना। कृषि आधारित समाज के इन्हीं जरुरतों को पूरा करने के लिए पेशों से जुड़ी जाति व्यवस्था की सैद्धान्तिकी की जरूरत पड़ी होगी और इसके लिए ब्राह्मणवादी पौराणिक धर्म ग्रंथों की रचना की गई, साथ ही इसे ईश्वर प्रदत्त घोषित किया गया। इसने उस दौर की समस्या का तो हल कर लिया लेकिन भविष्य के समाज के लिए इतनी बड़ी बेड़ी साबित हुई कि उत्पादन की करवाई में लगे लोग दर्शन, ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह महरुम हो गए और भारतीय उपमहाद्वीप में अविष्कारों का टोटा पड़ गया। इससे धीरे-धीरे सम्पति संसाधनों पर उस जाति विशेष का वर्चस्व स्थापित होता गया जिसका प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन की करवाई से कोई रिश्ता नहीं था और अपनी वर्गीय और जातीय हितों के कारण इसे और मजबूत करता गया। इसमें एक बात और समझने की जरूरत है कि जाति व्यवस्था को जन्म देने वाले लोगों या सामाजिक समूहों को खुद नहीं पता होगा कि आने वाले भविष्य में इस विभाजन से कितनी बड़ी मानवीय त्रासदी पैदा होने वाली है।

                  आखिर भारत में दास प्रथा के जगह जाति व्यवस्था क्यों आई? एक आकड़ा है कि अंग्रेजों के आने से पहले एशिया के दो देश भारत और चीन दोनों मिलकर उस समय पूरे विश्व की 50 प्रतिशत दौलत पैदा करते थे। इसमें दक्षिण एशिया का योगदान 25 प्रतिशत के करीब था। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि दक्षिण एशिया का भू-भाग कितना उपजाऊ था। जबकि औद्योगिकरण अभी नहीं हुई थी। दरअसल यूरोप में जीवन उतना आसान नहीं था जितना एशिया के भूभाग पर। यूरोप में बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए दास/गुलामी प्रथा ने जन्म लिया जबकि भारत में ऐसी जोर जबरदस्ती करना आसान नहीं था क्योंकि यहाँ जिंदा रहने के लिए आदिम जनजातियां किसी मुश्किल में अपनी पुरानी जगह को छोड़कर नई जगह बस जाया करती थीं। हर तरफ उपजाऊ जमीन और अनुकूल मौसम था। इसका जिक्र देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी किताब 'लोकायत' में भी करते हैं कि बौद्ध काल में भी विकसित रियासतों से दूर दराज स्वतंत्र रूप से विकसित हो रही कई जनजातियां मौजूद थे जो ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना से बिल्कुल अछूता थीं। इन्हीं ऐतिहासिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जाति व्यवस्था ने जन्म लिया।

        भारत में जाति और वर्ग यूनिवर्सल है। यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी बच्चा अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के वजह से जाति और वर्ग से पीछा नहीं छुड़ा सकता। इन दोनों पहचानों में वर्ग बदल सकता है किंतु जाति नहीं बदल सकती। भारत में जातियां जन्म पर आधारित हैं और पेशे से जुड़ी हुई हैं। जाति व्यवस्था की स्वतंत्र कोई आर्थिक संरचना नहीं है और न ही इसका अस्तित्व उत्पादन की आर्थिक करवाई के बिना संभव है। यह उत्पादन के संसाधनों पर जन्म पर आधारित विशिष्ट जातियों का वर्चस्व है जो प्राचीन काल से ही अपने को उत्पादन की बुनियादी करवाई से दूरी बनाई हुई हैं। यह वर्गों के साथ चिपकी हुई हैं और वर्ग अंतर्विरोधों के साथ ही सक्रिय हैं। उच्च जातियों से भी मेहनतकश वर्गों में लगातार शामिल हो रही जनता इसी परिघटना को सिद्ध करती हैं। जाति व्यवस्था की विचारधारा ब्राह्मणवाद है। ब्राह्मणवाद कहना कई मायनों में उचित है। पहला, यह शब्द वर्ण व्यवस्था के सबसे शीर्षस्थ उत्पीड़क सामाजिक समूह का द्योतक है, दूसरा यह जाति व्यवस्था के सबसे शीर्षस्थ उत्पीड़क जाति का द्योतक है। तीसरा, यह ब्राह्मणवादी सैद्धांतिकी का अगुआ है। इस बात को गेल ओम्वेट ने अपनी किताब 'Dalits and the democratic revolution' में जिक्र किया है। कई जानकार लोग ब्राह्मणवाद और सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को अलग-अलग करके देखते हैं। पर क्या ब्राह्मणवाद बिना सामंती उत्पादन संबंधों के सक्रिय रह सकता है? पूँजीवादी समाज में क्या ब्राह्मणवाद बिना पूँजीवादी उत्पादन संबंधो के उसका अस्तित्व बना रह सकता है? उत्पादन संबंधो में विशिष्ट सामाजिक समूहों जिन्हें जन्म से श्रेष्ठ माना जाता है, उनका वर्चस्व की वकालत और आर्थिक, सामाजिक और राजनीति में वर्चस्व बनाए रखने का स्पेस ही ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था है। इस प्रकार उत्पादन के तकनीकी विकास के साथ भारतीय समाज के दो ऐतिहासिक मंजिलों की बात की जाए तो भारत में सामंती उत्पादन प्रणाली में ब्राह्मणवादी सामंतवाद और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में ब्राह्मणवादी पूंजीवाद कहना ज्यादा उचित लगता है।

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