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Monday, 6 June 2022

रूसी अक्टूबर क्रान्ति का महत्व: भारतीय किसानों के संदर्भ में मंथन अंक - अक्टूबर क्रान्ति विशेषांक (तृतीय) -------------------------------------------------------------------------- लेखक : दयाराम यादव (आजमगढ़)


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वर्तमान में अगर भारतीय किसानों विशेषकर मझोले व छोटे किसान जो बहुसंख्यक है पर गौर किया जाय तो किसान और उसकी किसानी पेशा आज पूर्णतया बाजारों से जुड़ गया है। हरितक्रांति के बाद आधुनिक नयी खेती करने के लिए किसान बाजारों से उद्योगों के बने नाना प्रकार के कृषि लागत वाले सामान खरीदते हैं। उदाहरणार्थ- खाद. बीज, फसलों की दवाईयाँ, डीजल, पम्पिंगसेट बिजली के मोटर, ट्रैक्टर, थ्रेसर, पट्टा-पुल्ली यहां तक कि अब हँसुआ कुदाल, खुरपी और फावड़ा आदि तथा अपने जीवन के उपभोग के सामान जूता, चप्पल, कपडा, दवा, घर मकान बनाने का सामान कापी, किताब आदि तमाम सामानों को भी बाजारों से ही खरीदते हैं जो लगातार मँहगे होते जा रहे हैं। बाजारों के इन सारे सामानों के मालिकान उद्योगपति, व्यापारपति है। बाजारों से मिलने वाले उपरोक्त सभी मालों.. सामानों के मूल्य भाव देशी-विदेशी पूँजीपति निर्धारित करते हैं। खेती के उत्पादनों के मूल्य-भाव को भी बड़े-बड़े पूँजीपति, व्यापारी, धनी किसान एवं सरकारें मिलकर तय करती हैं। प्रायः किसानों को अच्छे मूल्य-भाव नहीं मिलते। आज मध्यम जोतों का मझोला व छोटा किसान खेतियों में लगने वाले महंगी लागत के सामानों एवं खेती के उत्पादनों के मूल्य-भाव में भारी असंतुलन के चलते घाटे उठा रहा है। फलतः किसान खेतिया छोड़ने को मजबूर होते जा रहे हैं। जीवन-यापन के लिए छोटी-मोटी नौकरी, मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ भागते हैं अथवा अन्य पेशों जैसे- दूध बेचने का काम, पान की दुकान, तेल-मसाला, फेरी व ठेले का काम चाय समोसा, चाट की दुकान या अन्य धन्धों को अपना रहे हैं।

किसान बैंकों-सोसायटियों से कर्ज लेकर खेतियों में लागत लगाकर उत्पादन तो बढ़ाता है, परन्तु उसे खेती के उत्पादन का उचित मूल्य लागत सामानों के मालिक उद्योगपतियों के लक्ष्य-लाभ मुनाफे के चलते मिल नहीं पाता है। फलतः किसान उत्पादन से इतनी नगदी बचत नहीं कर पाता है कि वह अपनी व परिवार की भौतिक जरूरतें भोजन कपड़ा, दवा, मकान, शादी-विवाह, शिक्षा आदि को पूरी कर सके। ऐसे में खेती घाटे में चली जाती है, किसान कर्ज में डूब जाता है। अन्ततोगत्वा घुटन व मानसिक तनाव में आकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। आधुनिक विकास की आशा लगा कर मझोले और छोटे किसानों ने खेती में लागत और श्रम लगाकर उत्पादन बढ़ा दिया है। खेतियों के कृषि उत्पादों को पूँजीपति अपने उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग करने के लिए तथा शहरी उच्च मध्यमवर्गीय आबादी एवं औद्योगिक मजदूरों का पेट भरने के लिए सरकारों के माध्यम से सस्ते से सस्ते मूल्य-भाव पर ले लेता है। सवाल है क्यों? ताकि सस्ती लागत से अधिकाधिक मुनाफा कमायें, दूसरे औद्योगिक मजदूरों और शहरी आबादी में शांति का माहौल बना रहे। फलतः शांतिपूर्वक बिना किसी विरोध, हड़ताल, तालाबन्दी, प्रदर्शन के उद्योगों में कम मजदूरी देके माल उत्पादन होता रहे और बाजारों में खरीद-बिक्री होती रहे। फलतः पूँजीपतियों की पूँजी लगातार बढ़ती रहे। इससे मतलब निकलता है कि इन दो मालिकों-गांव के जमीनों के मालिक किसानों और पूँजी के मालिक पूँजीपति वर्गों के बीच परस्पर अन्तर्विरोध है। इन दोनों में पूंजी का मालिक ताकतवर, वर्धस्वकारी है जो अपनी पूँजी पैसे की ताकत से सत्ता-सरकार को अपने प्रभाव-प्रभुत्व में रखता है, जबकि किसान धरती पुत्रों की सरकार को भी प्रभावित नहीं कर पाता है।

इस प्रकार पूँजीवादी समाज में उत्पादन के साधनों का मालिक गैर-उत्पादक पूँजीपति वर्ग है और दूसरी तरफ साधनों से वंचित साधनविहीन श्रमशील उत्पादक किसान, मजदूर वर्ग है अर्थात जो मालिक है वह उत्पादक नहीं और जो श्रमशील है, उत्पादक है पर वह मालिक नहीं है।

पूँजीवादी व्यवस्था व सत्ता के रहते यह सामाजिक आपसी वर्गीय विरोध कभी भी खत्म नहीं हो सकता है। इस वर्गीय विरोध को कोई हल नहीं कर सकता है। इस पूँजीवादी व्यवस्था-सत्ता के रहते जो कोई व्यक्ति, संगठन, पार्टी, धर्मगुरू या एन.जी.ओ. हल करने का दावा- वादा करता है तो यह कोरा झूठा, मक्कार, पूँजीपति वर्ग का दलाल है। पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था व पूँजीपति वर्ग को किसान-मजदूरों के शोषण हेतु टिकाये रखने में मददगार बनता है।

मानव समाज की इसी आपसी वर्गीय अन्तविरोध को खत्म करने के लिए आज से 100 साल पहले रूस के मजदूर-किसानों और अन्य श्रमशीलों ने बोल्शेविक पार्टी के अगुवाई में जिसके नेता लेनिन थे शोषण, उत्पीड़न से मुक्ति के लिए अक्टूबर क्रांति किया था। इस क्रांति को सम्पन्न करके किसानों, मजदूरों ने अपनी राज्य व्यवस्था यानि समाजवाद को जारशाही व पूजीशाही राज-व्यवस्था को उखाड़ कर स्थापित किया था। अक्टूबर क्रांति के बाद रूसी समाज का समाजवादी निर्माण होने से रूसी किसानों के जीवन में क्या-क्या बदलाव आये? इस पर नजर डालने से मिलता है कि रूस में सामन्तों, बड़े जमीन के मालिकों के निजी मालिकाने को समाप्त करके खेती को किसानों के सामूहिक मालिकाने में कर दिया गया था। खेतियों से सम्बन्धित यंत्रों का खूब विकास किया गया। आधुनिक कृषि यंत्रों से कृषि उत्पादन भी खूब बढ़ा। सामूहिक खेती में लगे किसानों के जीवन स्तर उनके घर मकान, भोजन, रहन-सहन में काफी सुधार आ गया था। रोटी मुफ्त हो गयी थी, किसान व उनके परिवार बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण एवं दवायें मुफ्त थी। पूरी शिक्षा और मनोरंजन मुफ्त था। शिक्षा-संस्कृति का स्तर इस कदर बढ़ा था कि किसान परिवार की औरते खेती में ट्रैक्टर चलाती थी।

सामूहिक खेतियां करने से किसानों के जीवन में परिवर्तनों को देखकर निजी खेती के मालिक आकर्षित होकर सामूहिक खेतियों में अपनी निजी जोते देकर रूचि लेने लगे थे। 1936 तक सोवियत रूस में 97 प्रतिशत खेतियां सामूहिक मालिकाने में हो गयी थी। केवल 3 प्रतिशत खेतियाँ निजी मालिकाने में रह गयी थीं।

रूस के किसान खेतियां छोड़ कर नौकरी के लिए शहरों की तरफ पलायन नहीं करते थे। जबकि अपने देश भारत का छोटा व मध्यमवर्गीय किसान पूँजीपतियों के लूट से खेतियों के टूटन से मजबूर होकर शहरों की तरफ नौकरी के लिए भाग दौड़ लगा रहा है। इसके अलावा सोवियत रूस में किसानों की आत्महत्या करने की बात कोई माई का लाल नहीं कह सकता है। जबकि अपने देश में आपको आत्महत्या करने वाले किसानों की एक लम्बी सूची मिल जायेगी तथा किसानों द्वारा अपने उत्पादों के मूल्य भाव बढ़ाने और बकाया धन की मांग करने पर पूँजीवादी सत्ता-सरकार द्वारा किसानों के ऊपर लाठी, गोली बरसाई जाती है। जैसे (1) किसानों द्वारा गन्ने का बकाया धन मांगने पर देवरिया में धरती पुत्र तत्कालीन मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव के काल में किसानों पर गोली चलायी गयी थी। (2) पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यू.पी. में गेहूँ, गन्ना आदि के मूल्य-भाव की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन कर रहे किसानों पर लाठिया, गोलिया चलायी जा चुकी हैं। (3) हाल ही में मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों के साथ वहां की सरकार ने क्या सलूक किया? उसे आप शायद भूले नहीं होंगे।

अपने देश भारत में देशी-विदेशी कंपनियां इधर लागत के सामान और उधर उपभोग के सामान बेचकर दोतरफा लाभ लूट रही है। इसी लूटपाट और एकतरफा वर्गीय लाभ के लक्ष्य के खातिर ग्रामीण व कृषि क्षेत्रों का विकास किया गया। इसी के लिए कनाडा, अमेरिका, पश्चिमी जर्मनी से हरित व श्वेत क्रांति जैसी कृषि विकास की योजनाएं चलायी गयीं।

आज देश के किसान लागत के सामान तथा जीवनोपयोगी सामानों को एवं अपने खेती के उत्पादों को पूंजी पैसे से बाजारों में खरीद-बेच रहे हैं। फिर भी किसान यह सोच नहीं पाता कि ये लागत तथा उपभोग के विभिन्न सामान किसके है? कहाँ से आता है? और यह बाजार व्यवस्था चला रहा है कौन? जबकि इन सबके मालिक व संचालक देशी-विदेशी पूँजीपति है। इधर सोचने के बजाय किसान चुनावों में जाति, धर्म से प्रभावित होकर अपना प्रतिनिधि चुनता है। सरकारों को पूँजीवादी सत्ता में बैठाकर पूँजीपतियों के लाभ की तमाम नीतिया बनवाता है। और अपने लूट, शोषण का सरकारों के माध्यम से आधार देता है, जो पूँजीवादी सत्ता, राजनीति के लिए किया करवाया जा रहा है, जिसे किसान निजी हितों के कारण सोच नहीं पाता है।

मजदूरों, किसानों को इस पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था से मुक्त होने के लिए रूस की अक्टूबर क्रांति से सबक लेकर वैसी ही क्रांति करने की जरूरत है परन्तु इसके लिए किसानों को अपनी खेती-किसानी की समस्याओं, सकटो को लेकर पेशेगत वर्गीय पहचान बनानी पड़ेगी किसानी पेशे को ही ध्यान में रखते हुए सचेत व संगठित होना पड़ेगा। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न जाति, धर्मों के मजदूरों को भी अपने मजदूरी पेशे की वर्गीय पहचान बनानी होगी। क्योंकि दोनों के जीवन की तंगी का कारण शोषक पूंजीवादी व्यवस्था ही है। इन्हें जातिय, धार्मिक पहचान के चलते वर्गीय-संघर्ष में उतारना कठिन हो गया है, जिन्हें आज शासक-शोषक देशी-विदेशी पूँजीपति अपने आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए भ्रमित करते हैं।

इन्हीं राम मेहनतकशों के उलझे प्रश्नों को लेकर गांव में रहने वाले दिहाड़ी मजदूर, किसानों को बताना समझाना हम सब मार्क्सवादियों का कर्तव्य बनता है कि उनके बीच उनकी वर्गीय पहचान खड़ी करने हेतु एवं संगठित करने के लिए गुरदर्शन सिंह के द्वारा विश्लेषित मार्क्सवादी साहित्यों, लेखों को पढ़ना, पढ़ाना होगा। तभी रूस जैसी क्रांति यहा संभव है। यहीं से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता भी जुड़ती है क्योंकि जिस मूल उद्देश्य को लेकर मार्क्सवाद पनपा, वह था आज तक के श्रमशील उत्पादक परन्तु शोषित, उत्पीड़ित मानव का राज्य समाजवाद की स्थापना तथा शोषकों, गैर-उत्पादकों के राज्य व उनकी सामाजिक व्यवस्था को वर्ग संघर्ष करके उखाड़ने, उड़ाने का घोषित कार्यक्रम जिसका व्यवहारिक रूप रूस जैसे पिछड़े देश में साकार हुआ, 1917 की अक्टूबर क्रांति से ।

 (आजमगढ़)

लेखक :  दयाराम यादव

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