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अक्टूबर 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति को लेनिन के नेतृत्व में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (बोल्शेविक) ने सम्पन्न किया था। क्रान्ति के उपरान्त 1918 में पार्टी ने अपनी सातवी कांग्रेस में अपना नाम बदलकर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) रखा ताकि पार्टी के उद्देश्य अर्थात कम्युनिज्म को प्राप्त करने के अनुरूप ही इसका नाम भी रहे। इस क्रान्ति के मार्गदर्शक सिद्धान्त अर्थात मार्क्सवाद लेनिनवाद और इन सिद्धान्तों को व्यवहार में अपनाकर विश्व की प्रथम समाजवादी क्रान्ति करने वाली रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास दुनिया भर के सभी मजदूरों एवं मेहनतकशों के लिए उनके क्रान्तिकारी संघर्षो में सही दिशा निर्देशन एवं प्रेरणा का जीवन्त स्रोत है। मार्क्सवाद लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्तों को अंगीकार कर व उसमे सुधारों एवं संशोधनों के हर प्रयास का सतत विरोध करते हुए रूसी कम्युनिस्ट पार्टी अपने अनवरत अथक संघर्षो से क्रान्ति की मंजिल तक सफलतापूर्वक पहुंची और क्रान्ति उपरान्त, प्रतिक्रान्ति से क्रान्ति की रक्षा करते हुए, समाजवादी निर्माण का कार्य करना प्रारम्भ किया ताकि साम्यवादी मानव समाज की स्थापना का अंतिम लक्ष्य फलीभूत हो सके।
विश्व की इस प्रथम समाजवादी क्रान्ति का देश रूस पूर्वी यूरोप एवं उत्तरी एशिया में फैला हुआ क्षेत्रफल में विश्व का सबसे बढ़ा देश है। समस्त उत्तरी एशिया और यूरोप का एक तिहाई पूर्वी हिस्सा इसके विस्तार क्षेत्र में है। रेगिस्तान, स्तेपी कहे जाने वाले अर्द्धशुष्क घास के मैदान से लेकर घने जंगलों एवं आर्कटिक टुंड्रा जैसे विविधतापूर्ण पर्यावरण एवं धरातलीय बनावट वाला रूस यूरोप की सबसे लम्बी नदी बोल्गा, सबसे बड़ी झील तडोमा सबसे गहरी झील बैकाल और दक्षिणी तथा उत्तरी ध्रुव के बाहर सबसे कम तापमान वाला देश भी है।
आधुनिक रूसी लोगों को स्लाव मूल का माना जाता है। नौवीं शताब्दी में कीव रूस में प्रथम स्लाव राज्य की स्थापना हुई थी और इसी स्लाव राज्य को आज के रूसी लोगों का पूर्ववर्ती माना जाता है। 10वीं सदी में कीवयाई रूस ने इसाई धर्म को अपने आधिकारिक धर्म के रूप में अपनाया और इसके बाद करीब 1000 वर्षों तक रूसी आयडाक्स चर्च देश की सबसे प्रभुत्वशाली धार्मिक संस्था बनी रही। व्लादीमीर महान (980-1015) और यारोस्लाव प्रथम उर्फ यारोस्लाव बुद्धिमान (1019.1054) के राजकाल को कीवयाई रूस का सुनहरा युग समझा जाता है। इस दौरान प्रथम लिखित पूर्वी स्लाव कानूनी प्रणाली बनायी गयी। इस प्रणाली को रूसी न्याय या रूस्काया प्रावदा कहा जाता था। 11वीं सदी के अंत में कीवयाई रूस राज्य बिखरने लगा और झगडते हुए छोटे राज्यों में टूट गया 1230 के दशक में मंगोल आक्रमणों को यह सहन नहीं कर पाया और उनके अधीन हो गया। कीवयाई रूस के बाद मास्को की ग्रैन्ड डची 14वीं सदी में रूसी राज्यों के एकीकरण एवं विस्तार की मुख्य ताकत के रूप में उभरी 1380 में मास्को के दमित्री दोन्सकोव के नेतृत्व में रूसी आर्थोडाक्स चर्च की सहायता से रूसी राज्यों की संयुक्त सेना ने मंगोलों तागतवारों को हराकर रूसी साम्राज्य की स्थापना मास्को में की जिसे आधुनिक रूस की आधारशिला कहा जाता है। मास्को ने आसपास के राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। इवान तृतीय ने सुनहरे झुण्ड के नियंत्रण को पूरी तरह उखाड़ फेंका और समस्त मध्य और उत्तरी रूस को मास्को के नियंत्रण में ले लिया। 1453 में कुस्तुन्तुनिया के पतन के बाद मास्को ने पूर्वी रोमन साम्राज्य की विरासत पर दावा किया और बिजान्टिन के दो सिर वाले बाज को अपना प्रतीक बनाया। प्रैन्ह यू इवान चतुर्थ ने तीसरे रोमन राज्य की विरासत लेने के विचारों के तहत पहले जार के रूप में 1547 में राज्यारोहण किया। उसने नयी कानून संहिता बनायी, पहली रूसी सामंती प्रतिनिधि सभा जेम्स्की सोबोर बनायी तथा ग्रामीण इलाकों में स्थानीय स्वयं प्रबन्धन को शुरुआत की। सन् 1613 से रोमानोव वंश के जारों का शासन प्रारम्भ होता है और इस वंश का पहला जार माइकल प्रथम राजगढ़ी हेतु जेम्स्की सोबोर द्वारा चुना गया। 1648-59 के दौरान कानून बनाये गए जिनसे ज्यादातर किसान भूयासों में तब्दील हो गए और जमीदार उनके मालिक हो गए जिनके लिए वे काम करते थे। 1689-1720 में पीटर महान के शासन में अनिवार्य सैन्य सेवा लागू की गयी और रूसी चर्च को राज्य के नियंत्रण में लाया गया। 1721 तक रूस पूर्वी स्लावी राज्यों का एकीकरण करके फिर एक साम्राज्य के रूप में स्थापित हो गया था। रूस में पीटर महान एवं अन्य शासक पूर्व मे साम्राज्य विस्तार में लगे रहे। रूसी सीमा उत्तरी चीन के मंगोलो को अधीन करने के बाद जापान के तट तक जा पहुंची और सभी साम्राज्य अत्यन्त विशाल बन गया। इस दौरान पश्चिमी यूरोप में वैज्ञानिक खोजें होती रही और उनके मुकाबले रूस] वैज्ञानिक एवं तकनीकी दृष्टि से पिछड़ता गया। लेकिन वैज्ञानिक एवं तकनीकी दृष्टि से पिछड़ा रहने के बावजूद जारशाही का रूसी साम्राज्य नेपोलियन (1812), ईरान (19वी सदी) एवं तुर्की से युद्ध जीतते रहने के कारण स्थिर बना रहा।
इस विशाल रूसी साम्राज्य में 1861 तक भूदास प्रथा कायम थी. पूंजीवादी विकास नगण्य था और आर्थिक व्यवस्था का मुख्य रूप भूदास प्रथा पर निर्भर जागीर थीं। 1861 में भूदास प्रथा के खात्मे के बाद किसान निजी तौर पर आजाद हो गये परन्तु उनकी हालात में विशेष परिवर्तन नहीं आया था और उन्हें नगदी समान देने के अलावा अपने ही घोड़ो और हल माची से जमीदारों की जमीन का एक हिस्सा बिना पैसा लिए जोतने बोने को मजबूर किया जाता था फसल का आधा भाग जमीदारों को गल्ले के रूप में देने के लिए किसानों को मजबूर किया जाता था। क्रान्ति के पहले रूस में खेती अत्यन्त पिछड़ी थी अक्सर फसल नहीं होती थी और अकाल पड़ते थे। भूदास प्रथा के खात्मे के बावजूद छोटे से छोटे कसूर के लिए और टैक्स न देने पर किसानों को पीटा जाता था। जारशाही में मजदूरों एवं किसानों के कोई भी राजनीतिक अधिकार नहीं थे। जारशाही गैर रूसी राष्ट्रीयताओं के प्रति द्वेष भड़काने की नीति पर चलती थी। भूदास प्रथा के खात्में के बाद रूस में औद्योगिक पूंजीवाद का विकास काफी तेजी के साथ हुआ और बड़ी मिलों और कारखानों में खदानों और रेलों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या काफी बढ़ी (1865 के 706000 के मुकाबले 1903 में यह तकरीबन 2800000) थी। रूस में यह एक आधुनिक सर्वहारा वर्ग था जो भूदास प्रथा के जमाने में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों से और छोटी-2 दस्तकारी और दूसरे धन्धों के मजदूरों से बुनियादी तौर पर भिन्न था क्योंकि बड़े पूजीवादी धन्धों में काम करने वाले इन मजदूरों के अन्दर एकता की भावना थी और इसलिए भी कि उनके अन्दर क्रान्तिकारी गुण थे।
भूदास प्रथा के खात्मे के बाद तेज पूंजीवादी विकास के बावजूद रूस आर्थिक विकास में दूसरे पूंजीवादी देशों से काफी पीछे था और सम्पूर्ण जनता का करीब 5/6 भाग खेती में लगा था केवल 1/6 भाग बड़े और छोटे उद्योग धन्धों, व्यापार रेलो जल भागों मकान बनाने के कामों और लकड़ी वगैरह के काम में लगा हुआ था जैसा कि 1897 की जनगणना के आंकड़ो से पता चलता है। अतएव पूंजीवादी विकास के जारी रहने के बावजूद रूस एक खेतिहर आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ देश एक निम्न पूंजीवादी देश था जिसमे छोटी मिल्कियत पर आधारित कम पैदावार वाली निजी खेती की बहुतायत थी। सबसे गरीब किसान आम तौर पर अपनी जमीन का थोड़ा हिस्सा ही बोते थे. बाकी धनी किसानों को उठा देते थे और खुद रोजी के लिए दूसरे उपाय तलाशने निकल पड़ते थे। लेनिन ने इन्हें देहाती सर्वहारा या अर्द्ध सर्वहारा कहा था। दूसरी तरफ धनी किसान खेतिहर मजदूरों की श्रम से फायदा उठा रहे थे और देहाती पूंजीपति बन रहे थे।
मजदूर एकजुट होने लगे और अपनी मांगे कारखानेदारों के सामने रखने लगे ताकि उनकी असहज परिस्थितियों में सुधार हो सके। काम बन्द करके वे हरताल करने लगे। मजदूरों की यूनियने बनने लगी। मजदूर आंदोलन की बढ़त और पश्चिमी यूरोप के मजदूर आन्दोलन के असर से रूस में मार्क्सवादी संगठन बनने लगे।
रूस में मार्क्सवादी गुटों के जन्म लेने के पूर्व क्रान्तिकारी काम नरोदवादी करते थे जो गलती से समझते थे कि मुख्य क्रान्तिकारी ताकत मजदूर वर्ग नहीं बल्कि किसान है और जार तथा जमींदारों का शासन किसानों के विद्रोह से खत्म किया जा सकता है। जारशाही के खिलाफ संघर्ष के लिए नौजवान क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों ने किसानों की पोशाक पहनी और देहातों की तरफ गए। इसीलिए उनका नाम नरोद यानी जनता से नरोदिनक पड़ा। किसानों में उन्हें समर्थन नहीं मिले। इस पर उन्होंने व्यक्तिगत आतंकवाद का रास्ता अपनाया जो इस गलत नरोदवादी सिद्धान्त पर टिकी थी कि कुछ बड़े आदमी ही इतिहास बनाते है जबकि आम जनता इस बात के अयोग्य है कि सचेत और संगठित होकर काम कर सके। नरोदवादियों में रूस में मार्क्सवाद के प्रचार का डटकर विरोध किया और मजदूर वर्ग के संगठन में बाधा डाली।
नरोदवादी से मार्क्सवादी बने प्लेखानोव के श्रमिक मुक्ति दल ने जो 1883 में बना नरोदयादियों के गलत विचारों की मार्क्सवादी आलोचना की और स्थापित किया कि - (1) नरोदवादियों का दावा कि रूस में पूंजीवाद एक आकस्मिक वस्तु है यह विकसित नहीं होगा, इसीलिए सर्वहारा वर्ग भी न बढ़ेगा न विकसित होगा, गलत है और तथ्य देकर साबित किया कि रूस पूंजीवादी विकास के रास्ते पर पहले ही चल पड़ा था और कोई ताकत नहीं है जो उसे इस रास्ते से हटा सके। (2) कान्तिकारी संघर्ष में सर्वहारा वर्ग ही हरावल की भूमिका अदा करेगा क्योंकि यह संख्या में कम भले हो, लेकिन उसका सम्बन्ध आर्थिक व्यवस्था के सबसे आगे बढ़े हुए रूप से बड़े पैमाने के उत्पादन से था। दूसरे वर्ग रूस में बढ़ना यो दरकिनार किसान अधिकाधिक पूंजीपतियों (धनी किसानों) और गरीब किसानों (सर्वहारा और अर्द्ध सर्वहारा) में बंट रहे थे। उनका संगठन उनके बिखरे होने की वजह से सर्वहारा से कठिन था और छोटे मालिक होने की वजह से वे कम तत्परता से क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल होते थे। किसानों का कम्यून समाजवाद का बीज और बुनियाद न था और न हो सकता था क्योंकि उस पर धनी किसान हावी थे। (3) प्लेखानोव ने नरोदयादियों पर भाववाद का आरोप लगाया और दिखलाया कि सच्चाई भाववाद में नहीं है बल्कि मार्क्स और एगेल्स के भौतिकवाद में है जिसके अनुसार उन्होंने • दिखाया कि कुल मिलाकर समाज का विकास महापुरूषों की इच्छाओं और विचारों से नहीं, बल्कि समाज के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियों के विकास और समाज के अस्तित्व के लिए जो भौतिक मूल्य जरूरी है, उनमें उत्पादन के तरीकों मे तब्दीली से निश्चित होता है। इतिहास का निर्माण वीर नहीं करते बल्कि वीरों का निर्माण इतिहास करता है।
प्लेखानोव एवं उनके श्रमिक मुक्ति दल ने क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों पर नरोदवाद का असर काफी कम कर दिया पर नरोदवाद पर आखिरी चोट लेनिन ने की। लेनिन की देखरेख में मजदूर वर्ग के मुक्ति संग्राम का सेंट पीटर्सबर्ग संघ ने मजदूरों के संघर्ष को जारशाही के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष से जोड़ दिया। लेनिन की 1895 के दिसम्बर में गिरफ्तारी के बाद मुक्ति संग्राम का पीटर्सबर्ग संघ अर्थवादियों के हाथ में चला गया। वे मानते थे कि मजदूरों को सिर्फ अपने मालिकों के खिलाफ आर्थिक लड़ाई लड़ने के लिए कहना चाहिए, राजनीतिक संघर्ष उदारपथी पूंजीपतियों का काम है और इसे उन्हीं के लिए छोड़ देना चाहिए। अर्थवादी रूस की मार्क्सवादी कतारों में पहले अवसरवादी थे और समझौतापरस्त थे।
कानूनी मार्क्सवादी दरअसल पूंजीवादी बुद्धिजीवी थे जो मार्क्सवादी पोशाक पहने हुए थे। वे अपने लेख ऐसे पत्रिकाओं और अखबारों में छपवाते थे जो कानूनी थी यानी जिनके लिए जार सरकार की अनुमति थी। 1898 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की पहली कांग्रेस हुई और दिसम्बर 1900 में इस्का का पहला अंक विदेश में निकला। क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों का अखिल रूसी पैमाने पर यह पहला अखबार था जिसकी स्थापना लेनिन ने विभिन्न मार्क्सवादी संगठनों को एक ही पार्टी में मिलाने और जोड़ने के लिए की थी।
1901 से 1904 के दौरान रूस में औद्योगिक संकटों के फलस्वरूप तमाम छोटे बड़े कारखाने बन्द हुए और लाखों मजदूर बेकार हुए। औद्योगिक संकट एवं बेकारी से मजदूरों का संघर्ष कमजोर होने के स्थान पर क्रान्तिकारी रूप धारण करता गया। इसका असर किसानों पर पड़ा और क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन बढ़ता गया। इनके ऊपर से विद्यार्थियों के विरोध आन्दोलन ने तेजी पकड़ी। इन सबके असर से उदारपंथी पूंजीपति और उदारपंथी जमींदार भी जारशाही की ज्यादतियों के विरोध में खड़े हुए और देशोद्धारक गुट का निर्माण हुआ जो रूस में पूंजीपतियों की भावी मुख्य पार्टी (संवैधानिक जनवादी पार्टी) का बीज रूप था।
इन्हीं परिस्थितियों में लेनिन ने मजदूर वर्ग की पार्टी के निर्माण का काम उठाया। 1898 में रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी की पहली कांग्रेस हो जाने के बावजूद अभी सचमुच की कोई पार्टी, पार्टी कार्यक्रम अथवा पार्टी के नियम नहीं बने थे। पहली कांग्रेस के बाद पार्टी में विचारधारा की उलझन और संगठन की एकता की कमी और बढ़ गयी। लेनिन का मत था कि कांग्रेस बुलाने के पहले पार्टी के उद्देश्य और ध्येय साफ कर देना जरूरी है, यह मालूम करना जरूरी है कि किस तरह की पार्टी की दरकार है। इसका के माध्यम से लेनिन ने क्रान्तिकारी सामाजिक जनवाद के पक्ष में व्यापक आन्दोलन चलाया और साफ साफ कहा कि इसके पहले कि हम मिले और इसलिए कि हम मिले, हमें मतभेद की निश्चित और स्पष्ट रेखायें खींच लेनी चाहिए। उन्होंने अर्थवादियों के अवसरवादी दर्शन पर करारा हमला किया और उसे निर्मूल कर दिया। 1903 में पार्टी की दूसरी कांग्रेस हुई कांग्रेस ने इस्का द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम स्वीकार किया जिसमे अधिकतम कार्यक्रम में मजदूर वर्ग की पार्टी के मुख्य ध्येय अर्थात समाजवादी क्रान्ति पूंजीपतियों की ताकत का खात्मा और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना की चर्चा थी। अल्पतम कार्यक्रम में फौरी उद्देश्यों यानी निरंकुश जारशाही के खात्मे जनवादी गणतंत्र की स्थापना 8 घंटो का दिन चालू करने और जमीदारों द्वारा छीनी गयी- सभी जमीन किसानों को वापस करने की चर्चा थी। आगे चलकर सभी जमीदारियों को छीन लेने की मांग कार्यक्रम में रखी। सर्वहारा क्रान्ति की जीत के बाद होने वाली आठवी पार्टी कांग्रेस तक यह कार्यक्रम जारी रहा। पार्टी सदस्यता के प्रश्न पर भी लेनिन का मसौदा मंजूर नहीं हुआ जिसके अनुसार (क) जो पार्टी का कार्यक्रम माने (ख) पैसे से पार्टी की मदद करे और (ग) उसके किसी संगठन का सदस्य हो, वही पार्टी का सदस्य हो सकता है दूसरे मसौदे के अनुसार पार्टी के किसी संगठन में होना सदस्यता के लिए जरूरी नहीं होना चाहिए। कांफ्रेंस में लेनिन के प्रस्ताव के स्थान पर सदस्यता के लिए दूसरे मसौदे को मंजूरी दी। लेकिन केन्द्रीय समिति के चुनाव और पार्टी के केन्द्रीय पत्र इस्का के सम्पादक मण्डल के चुनाव में लेनिन के अनुयायियों को चुनाव के वक्त ज्यादा वोट मिले, वे जीत गए और इसीलिए बोल्शेविक कहलाये दूसरा गुट मेन्शेविक कहलाया। दूसरी कांग्रेस के बाद पार्टी के भीतर संघर्ष और तेज हो गया। इसका से लेनिन को नाता तोड़़ने पर विवश होना पड़ा और 52वें अंक से इस्क्रा मेन्शेविकों के हाथ में आ गया।
लेनिन ने मेन्शेविकों के संगठन सम्बन्धी स्वेच्छाचारिता, अनुशासनहीनता, बुद्धिजीवियों के व्यक्तिवादी गुणगान आदि अधकचरे तरीकों पर अपनी 1904 में प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तका 'एक कदम आगे दो कदम पीछे में जबर्दस्त हमला किया और पार्टी संगठन के बुनियादी सिद्धान्त रखे जिनके अनुसार
(1) मार्क्सवादी पार्टी मजदूर वर्ग का हरावल दस्ता है, यह वर्गचेतन दस्ता है, मजदूर वर्ग का एक मार्क्सवादी दस्ता है, जो सामाजिक ज्ञान से सुसज्जित है, जो सामाजिक विकास के नियमों और वर्ग संघर्ष के नियमों को जानता पहचानता है और इस वजह से मजदूर वर्ग की अगुवाई कर सकता है और उसकी लड़ाई का संचालन कर सकता है।
(2) पार्टी मजदूर वर्ग का संगठित दस्ता है, जिसका अपना अनुशासन है और जो उसके अपने सदस्यों पर लागू होता है।
(3) पार्टी मजदूर वर्ग के संगठन के सभी रूपों में सबसे ऊँचा है और उसका काम मजदूर वर्ग के दूसरे सभी संगठनों को रास्ता दिखाना है।
(4) पार्टी लाखों मजदूरों से मजदूर वर्ग के हरावल के सम्बन्ध का सजीव रूप है।
(5) उचित ढंग से काम करने के लिए और बाकायदा आम जनता का नेतृत्व करने के लिए पार्टी को केन्द्रीयता के उसूल
पर संगठित होना चाहिए।
(6) पार्टी को समान सर्वहारा अनुशासन लागू करना होगा जिसकी पाबन्दी सभी पार्टी सदस्यों, नेता और साधारण के
लिए बराबर हो।
जुलाई 1905 में "जनवादी क्रान्ति में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियां में लेनिन ने मेन्शेविकों की कार्यनीति की आलोचना की, तो साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय अवसरवाद की कार्यनीति का भी पर्दाफाश किया। उन्होंने पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति के दौर में मार्क्सवादी कार्यनीति का प्रतिपादन किया और पूंजीवादी क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति का भेद स्पष्ट किया तो साथ ही पूंजीवादी क्रान्ति में समाजवादी क्रान्ति की तरफ बढ़ने के दौर की मार्क्सवादी कार्यनीति के बुनियादी सिद्धान्तों की स्थापना की।
दो कार्यनीतियां छपने के दो महीने बाद लेनिन ने "किसान आन्दोलन की तरफ सामाजिक जनवादियों का रूख
नामक लेख लिखा जिसमें उन्होंने समझाया कि जनवादी क्रान्ति से हम तुरन्त समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश
करना शुरू कर देंगे। यह काम हमारी शक्ति के अनुसार वर्ग चेतन और संगठित सर्वहारा की शक्ति के अनुसार होना। हम अविराम क्रान्ति के समर्थक है। हम बीच में नहीं रुकेंगे।" 1905 में मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनी जो सभी मीलो और कारखानों के प्रतिनिधियों की सभायें थी। बोल्शेविक सोवियतों को क्रान्तिकारी सत्ता का बीज रूप समझते थे।
अप्रैल 1906 में पार्टी की चौथी कांग्रेस में जो एकता कांग्रेस के नाम से मशहूर है, खेती के सवाल पर लेनिन में जमीन के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया जबकि मेन्शेविक म्युनिसिपलीकरण के कार्यक्रम का समर्थन करते थे जिसके अनुसार जमीन म्युनिसिपालिटी के हाथ में रहती और हर किसान इस जमीन से अपने बूते के अनुसार लगान पर हिस्सा लेता है । मई 1907 में पांचवी पार्टी कांग्रेस हुई। इसने सभी गैर सर्वहारा पार्टियों का बोल्शेविक मूल्यांकन पेश किया गया और इस कांग्रेस ने बोल्शेविक कार्यनीति मंजूर की और मेन्शेविक लाइन को समझौते की लाइन कहकर उसकी निन्दा की।
1909 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध कृति भौतिकवाद और अनुभव सिद्ध आलोचना में लेनिन ने दार्शनिक और सैद्धान्तिक संशोधनवाद के बारे में लिखा कि "मार्क्सवाद के लिबास में मार्क्सवाद को और भी चतुराई से झुठलाना, भौतिकवाद विरोधी सिद्धान्तो को और भी चतुराई से पेश करना- अर्थशास्त्र में कार्यनीति के सवालों पर और दर्शनशास्त्र में आम तौर से आधुनिक संशोधनवाद की यह विशेषता है।" अपनी उपरोक्त पुस्तक द्वारा लेनिन ने इन्द्रात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मौलिक सिद्धान्तों की रक्षा की थी और संशोधनवादियों के हमलों से पार्टी को बचाया था।
1905-07 की क्रान्ति के बाद जो प्रतिक्रियावादी का दौर चला उसमे बोल्शेविकों ने विसर्जनवादियों (जो सर्वहारा वर्ग की कान्तिकारी गैर कानूनी पार्टी का विसर्जन चाहते थे) और बहिष्कारवादियों (जो इसका बहिष्कार करना चाहते थे) के अवसरवादी रुझान के खिलाफ जमकर संघर्ष किया और अपनी क्रान्तिकारी लाइन चालू रखी। 1912 में त्रात्सकी द्वारा बनाये गए अगस्त गुट में विसर्जनवादियों और आत्सकीपक्षियों से लेकर बहिष्कारवादियों और देव निर्माताओं तक विशुद्ध पार्टी विरोधी तत्व भरे हुए थे। इसका भी लेनिन ने जबर्दस्त विरोध करते हुए बताया कि त्रात्सको ने अपने विसर्जनवाद को केन्द्रवाद के लिबास में छिपाया, यानी दोनों में मेल मिलाप करने का बहाना किया। त्रात्सकी मजदूरों को यह विश्वास दिलाकर धोखा देना चाहता है कि वह गुटबाजी से परे है, जबकि दरअसल वह मेन्शेविक विसर्जनवादियों का पूरी तरह समर्थन करता है। त्रात्सकीपंथी वह मुख्य गुट थे जो केन्द्रवाद का समर्थन करते थे। स्तालिन ने बताया कि केन्द्रवाद एक ही पार्टी के अन्दर सर्वहारा वर्ग के हितों को निम्न पूजीवादियों के हितों के अनुकूल बनाने, उसके मातहत करने की विचार धारा है और यह लेनिनवाद के लिये गैर और हेय है।
जनवरी 1912 की प्राग कान्फ्रेंस में मेन्शेविक पार्टी से निकाल दिए गए और एक राजनीतिक गुट से आगे निकलकर बोल्शेविक बाकायदा एक स्वतंत्र पाटी- रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (बोल्शेविक) बने। अवसरवादियों को पार्टी से निकालने के बाद बोल्शेविक पार्टी और मजबूत हुई और पार्टी और क्रान्ति के अगले विकास पर इसका निर्णायक असर पड़ा। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध पूजीवादी देशों के विषम विकास से मुख्य शक्तियों का सन्तुलन खत्म होने से, युद्ध के जरिये दुनिया का फिर से बंटवारा करने और नया सन्तुलन कायम करने के लिए साम्राज्यवादियों की जरूरत से प्रारम्भ हुआ। दूसरे इन्टरनेशनल की सभी दूसरी पार्टियों साम्राज्यवादियों से जा मिली। इस दौरान बोल्शेविक पार्टी ही एक मात्र सर्वहारा पार्टी थी जो समाजवाद और अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के पक्ष के प्रति वफादार रही और अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमत के खिलाफ गृह युद्ध का संगठन किया। अगर सर्वहारा वर्ग की पार्टी की कतारों में अवसरवादी बने रहते तो बोल्शेविक पार्टी मैदान में न आ सकती और सर्वहारा का नेतृत्व न कर सकती, वह सत्ता पर अधिकार न कर सकती और सर्वहारा का अधिनायकत्व कायम न कर सकती, यह गृह युद्ध में विजयी न हो सकती और समाजवाद का निर्माण न कर सकती। अगर बोल्शेविक मजदूरों के उद्देश्यों से गद्दारी करने वालों, मेन्शेविक समझौतावादियों को पार्टी न निकाल देते तो सर्वहारा पार्टी 1917 में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए लड़ने को आम जनता को भी न जगा सकती।
रूस के मजदूरों ने बोल्शेविक पार्टी की अगुवाई में जार का तख्ता पलट दिया और मजदूर-किसान तथा सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत कायम की 27 फरवरी 1917 की पूंजीवादी जनतान्त्रिक कान्ति जीत गयी। सोवियतों में समझौतावादी मेन्शेविकों तथा समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टियों के प्रतिनिधियों का बहुमत था। उन्होंने संवैधानिक जनतान्त्रिक पार्टी व अन्य पूंजीवादी प्रतिनिधियों के साथ मिलकर अस्थायी सरकार का गठन कर लिया। बोल्शेविक पार्टी ने आम मजदूरों एवं किसानों को समझाया कि जब तक सत्ता पूंजीवादी अस्थायी सरकार के हाथ में है और जब तक सोवियतों में मेन्शेविकों एवं समाजवादी क्रान्तिकारियों का बोलबाला है, तब तक जनता को न शान्ति मिलेगी, न जमीन मिलेगी, न रोटी मिलेगी, पूरी जीत हासिल करने के लिए एक कदम और उठाना होगा सत्ता सोवियतों को सौंपनी होगी।
फरवरी से अक्टूबर 1917 तक आठ महीनों में बोल्शेविक पार्टी ने मजदूर वर्ग का बहुमत अपनी तरफ करने, सोवियतों में अपना बहुमत स्थापित करने और समाजवादी क्रान्ति के लिए लाखों किसानों का समर्थन हासिल करने का कठिन काम पूरा किया। इसने निम्न पूंजीवादी पार्टियों (समाजवादी क्रान्तिकारियों, मेन्शेविकों और अराजकतावादियों) के असर से आम जनता को बचाया। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में गरीब किसानों के सहयोग से और फौजियों तथा जहाजियों (नाविकों) की मदद से मजदूर वर्ग ने पूंजीपतियों की सत्ता खत्म कर दी, सोवियतों की सत्ता कायम की. एक नये तरह का राज्य-समाजवादी सोवियत राज्य कायम किया, जमीन पर जमींदारों की मिल्कियत खत्म की, देश की तमाम भूमि का राष्ट्रीयकरण किया. पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त की, रूस को युद्ध से मुक्ति दिलाई और शान्ति हासिल की, और इस तरह समाजवादी निर्माण के विकास के लिए परिस्थितियां पैदा की।
अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति ने पूंजीवाद का नाश किया. पूंजीपतियों से पैदावार के साधन छीन लिए और मिलो, कारखानो, रेलों और बैंकों को तमाम जनता की सम्पत्ति सार्वजनिक सम्पत्ति बना दिया। इसने सर्वहारा अधिनायकत्व कायम किया और इस विशाल देश की हुकूमत का काम मजदूर वर्ग को सौंप दिया। मजदूर वर्ग शासक वर्ग बन गया।
इस तरह अक्तूबर 1917 की समाजवादी क्रान्ति ने मनुष्य जाति के इतिहास में एक नया युग सर्वहारा क्रान्तियों का युग आरम्भ किया। यह क्रान्ति इस बात का उत्कृष्ट व्यावहारिक उदाहरण है कि मजदूर वर्ग के नेता की भूमिका निभाने के लिए मजदूर वर्ग की पार्टी को मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धान्त की सटीक समझ होना जरूरी है क्योंकि यही सिद्धान्त विभिन्न परिस्थितियों में सही दिशा पहचानने में पार्टी की मदद करता है. यह सिद्धान्त ही सामयिक घटनाओं के भीतरी सम्बन्ध को समझने में, उनकी गति पहले से देखने में और उनकी भावी दिशा को जानने में मदद करता है। अक्टूबर क्रान्ति इस बात का भी उत्कृष्ट उदाहरण है कि मार्क्सवादी दर्शन केवल सिद्धान्त नहीं बल्कि व्यवहार भी है। यह क्रान्ति अवसरवाद, संशोधनवाद, अन्धराष्ट्रवाद अराजकतावाद जैसी निम्न पूंजीवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ बोल्शेविक पार्टी के सतत् संघर्ष एवं उसकी सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता एवं दृढ़ता के साथ ही सर्वहारा एवं छोटे किसानों के गठजोड़ की क्रान्तिकारी ताकत में पार्टी के विश्वास का भी सटीक उदाहरण है। इस क्रान्ति ने स्थापित किया कि मार्क्सवादी पार्टी के सिद्धान्त एवं व्यवहार में कोई अन्तर्विरोध अथवा अलगाव नहीं हो सकता, मार्क्सवादी होने के लिए दोनों की एकरूपता अनिवार्य है।
(वाराणसी)
श्रीनिवास सिंह व साथीगण ।
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