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जब भारत में अक्टूबर क्रान्ति एवं उसके मार्गदर्शक सिद्धान्त मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता पर चर्चा होती है, तब उसके विरोध में पहले के लोहियावादियों के इस तर्क को आज के दलितवादी भी देते रहते हैं कि- यूरोपीय देश या समाज आर्थिक आधारों पर मालिक मजदूर अमीर-गरीब, शोषक-शोषित वर्गों में बटे रहे हैं, वहाँ की परिस्थितियों में पैदा हुआ मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त देता है और वर्गसंघर्षो से सम्पन्न होने वाली क्रान्तियों के जरिए समाजपरिवर्तन का रास्ता बताता है। जबकि भारतीय समाज धार्मिक-सामाजिक आधारों पर वर्गों या जातियों में बंटा रहा है, अतः यहाँ सामाजिक परिवर्तन के लिए वर्णसंघर्ष होने चाहिए, वर्गसंघर्ष नहीं। इसीलिए दलितवादी पिछड़ावादी तथा अन्य पूजीवादी विद्वान यह भी कहते रहते हैं कि जातिवादी बनावट वाले भारत में मार्क्सवाद लागू नहीं हो सकता, अक्टूबर क्रान्ति जैसी क्रान्ति नहीं हो सकती। दूसरे, उनका यह भी कहना है कि यूरोप में जन्मे मार्क्स भारत की वर्गव्यवस्था, जातिव्यवस्था को नहीं देख पाये, अतः उन्होंने यहाँ की जातिव्यवस्था के बारे में कुछ नहीं कहा है। उसी तरह भारत में उनके अनुयायी कम्युनिस्ट भी जातीय भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न को नहीं देखते केवल आर्थिक या वर्गीय शोषण, शासन, दमन को देखते रहते हैं, और इन कम्युनिस्टों ने जातिवादी भेदभाव, दमन, उत्पीड़न के विरोध में आज तक कुछ नहीं किया है, खासकरके दलितों के लिए कुछ भी नहीं किया है।
आजकल पिछले 15-20 सालों से कुछ उच्चजातीय ब्राह्मण, क्षत्रिय, भूमिहार आदि वामपंथी भी दलित बुद्धिजीवियों की हाँ में हाँ मिलाते हुए मार्क्सवाद की तीखी आलोचनाओं में शामिल हो गये है। उनके ये तर्क, आलोचनायें अनर्गल है, मार्क्सवाद व कम्युनिस्टों पर लगाये जा रहे झूठे इल्जाम है। कैसे? इसके लिए आप यही देख लें कि इन दलितवादी बुद्धिजीवियों व उनकी हुंकारी भरने वाले सवर्ण नूतन वामपंथियों ने स्वयं दलितों-पिछड़ों के लिए क्या किया है? दूसरे ये मार्क्स को कितना पढ़ते- जानते है? तीसरे वे सुविधाभोगी जीवन जीते हुए भारतीय समाज के इतिहास व वर्तमान का कितना अध्ययन या अनुभव किये है या करते हैं? आयें, इन प्रश्नों को एक-एक करके लें।
पहले यह देखें कि दलितवादी बुद्धिजीवी एवं नेता दलितों के लिए या उनके नाम पर क्या किये/ कर रहे है। उनका एक प्रमुख काम है, जातिवाद व दलितों की स्थितियों को 100-50 साल पहले की तरह बताना प्रचारित करते रहना, मानो छुआछूत, पुराने जातिगत भेदभाव व दमन में आज भी कोई परिवर्तन या कमी न आया हो। इसका मूल कारण है कि पहले अम्बेडकर साहब एवं लोहिया जी तथा उनके अनुयायी जातिवाद के उम्मूलन समापन की बाते करते थे और उस दिशा में क्रियाशील थे जबकि आज के दलितवादी जातिवाद का इस्तेमाल करने की बाते कहने लगे है कि जातिवाद खत्म करने के बजाय उसके आधार पर उद्योग, व्यापार आदि में भी आरक्षण लेकर विकास करने की जरूरत है। आरक्षण पाने के अलावा एक तो वे दलितवाद, जातिवाद का इसतेमाल लेख, पुस्तके लिखकर एवं भाषण-गोश्ठियां करके देशी विदेशी पूंजीपतियों व सरकारों से पुरस्कार भाड़े-भत्ते, मान-सम्मान पाने के लिए करते रहते है। दूसरे दलितों, मुसहरों, आदिवासियों व अन्य जातियों के नाम पर एनजीओ बनाकर धन कमाते रहते हैं लेकिन प्रचार समाजसेवा का लेते रहते हैं। तीसरे व महत्वपूर्ण ये बुद्धिजीवी दलितवादी, जातिवादी आधारों पर गोलबन्द करके सत्ता सरकार में जाने हेतु जातिवादी नेताओं का साथ देते रहते हैं। सवर्ण जातियों के चन्द बुद्धिजीवी भी दलितवादियों की हाँ में हाँ मिलाकर ऐसे ही कार्यों से अपना स्वार्थ पूरा करते रहते हैं। यह सब करने के लिए जातिवाद को 100-50 साल पहले की तरह प्रचारित करना जरूरी है अन्यथा वे दलितवाद, जातिवाद के नाम पर उपरोक्त स्वार्थ पूरा नहीं कर सकते। आगे चलें। सत्ता सरकार मे जाकर दलित-पिछड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री आदि दलितों पिछड़ों के लिए क्या करते रहे है? वे मुफ्त प्राइमरी शिक्षा, सस्ता राशन, विधवा-वृद्धा पेंशन कुछ दैनिक रोजगार, आवास, पीने का पानी एवम सड़़क-खड़जा देने जैसी योजनायें लागू करते रहे हैं। इन योजनाओं को कांग्रेस क्षेत्रीय दलों व भाजपा की सरकारें भी लागू करती रही है। हाँ, कांग्रेस सरकारें इन्दिरा-राजीव का नाम, सपा सरकारें लोहिया-समाजवाद का नाम, बसपा सरकारे अम्बेडकर-कांसीराम का नाम और भाजपा सरकारे दीनदयाल आदि का नाम उन योजनाओं पर चिपकाती रही है। गरीबों के लिये ऐसे भिक्षा, दान पुण्य का कार्य पहले राजा महाराजा भी करते रहते थे। पश्चिमी पूंजीवादी देशों में बेरोजगारों, गरीबों, बेघरों आदि के लिए ऐसे भिक्षा, दान के कार्य 150-200 सालों से होते आ रहे है क्योंकि पूँजीवाद जानता है कि पूँजीवादी व्यवस्था का परिणाम है-एक ओर पूंजीपतियों व धनाढ्यों की धनाढ्यता व लाभ-पूंजी लगातार बढ़ते जाना, दूसरी ओर मजदूरों की घटती संख्या व कम से कम मजदूरी के कारण इनकी बेकारी, गरीबी, बेधरी आदि बढ़ते जाना। वहाँ के पूंजीपतियों व अधिकारियों, नेताओं ने समझ लिया कि यदि बेकारों गरीबों, बेघरों आदि की संख्या ऐसे ही बढ़ती गयी, तो एक न एक दिन वे विद्रोह करके पूँजीवाद की आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था का ध्वंस कर देंगे। इसे रोकने और अपनी जान बचाने के लिए उनके द्वारा गरीबो बेरोजगारों आदि को भिक्षा, दान, धूस देने का तरीका अपनाया गया-जैसे- मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा सस्ता राशन, आवास, बेकारी भत्ता आदि।
भारत में यही कार्य राजनीतिक धोखाधड़ी और बौद्धिक बेईमानी के साथ किया जा रहा है। यहाँ के मजदूरों, बेरोजगारों गरीबों को केवल दलित, पिछड़ा मानकर उनकी जातिवादी पहचान बता-बताकर भिक्षा दान के उपरोक्त कार्य किये जाते हैं। ऐसा करके उनकी साधनहीन, बेरोजगार गरीब मजदूर, किसान, दस्तकार की स्थितियों को छिपा दिया जाता है, ताकि वे अपनी समस्याओं के संबंध में पूंजीपतियों की ओर न देखें, न ही सोचे, उच्च जातियों को दोष देते रहें। संक्षेप में दलितवादी बुद्धिजीवी, नेता एवं उनकी हुंकारी भरने वाले वामपंथी दलितों के नाम पर पूंजीवाद की रक्षा करने और अपना स्वार्थ पूरा करने का काम कर रहे हैं। अब यह देखें कि कम्युनिस्ट दलितों पिछड़ों के लिए क्या करते रहे हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनों को पट्टा दिलवाने, पट्टों पर कब्जा दिलवाने, खेतिहर मजदूरों की मजदूरियां बढ़वाने तथा जमीनदारों की जमीनों पर किसानों को मालिकाना हक दिलवाने एवं उन पर कब्जा करवाने के लिए कम्युनिस्ट हमेशा संघर्ष करते रहे हैं. विशेषतः 1950 80, 70 के दशकों में इसमें नोट करने वाली बात है कि भूमिहीन, मजदूर दलित होते थे व है और छोटे व मझोले किसान ज्यादातर पिछड़ी जातियों के होते थे व है। जमींदार या बड़ी जमीनों के मालिक प्राय: सवर्ण जातियों के होते थे व है, और पट्टे लायक ग्रामसभा की जमीनों पर भी उनका कब्जा होता था या है। अतः दलितों, पिछड़ों के लिए किए जाने वाले कम्युनिस्टों के उपरोक्त संघर्ष, सवर्णों के विरूद्ध संघर्ष बन जाते थे. आर्थिक संघर्ष जातिवादी संघर्ष का रूप लेते रहे, खासकर बिहार, पूर्वी यू०पी० में उग्र जातीय संघर्ष बनते रहे। इन संघर्षो का नेतृत्व करते हुये कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने, सवर्ण कम्युनिस्टों ने लाठी गोली खाया है। शहरी कारखानों में मजदूरों के लिए, जो ज्यादातर दलित पिछड़ी जातियों के होते हैं, उनके लिए कम्युनिस्टों के संघर्ष जाने माने रहे है। मजदूरों किसानों के लिए इन्हीं संघर्षो के कारण देहातों से लेकर शहरों तक कम्युनिस्टों का व्यापक प्रभाव होता था, और ये पंजाब, उ०प्र०, बिहार, उडीसा आन्ध्र प्र0 में भी कई सीटों पर चुनावी जीत हासिल करते रहते थे। चूँकि दलितवादी व नूतन वामपंथी बुद्धिजीवी उपरोक्त कोई काम, संघर्ष नहीं किये हैं, और न ही आजादी के पहले व बाद के इतिहास को जानते है अतः वे समझते है कि कम्युनिस्टों ने भी दलितों (पिछड़ों) के लिए कुछ नहीं किया है।
अब इस प्रश्न को लें कि दलितवादी बुद्धिजीवी एवं उनकी हुकारी भरने वाले वामपंथी मार्क्स व मार्क्सवाद को केवल पूंजीवाद के प्रचारों से जानते है अथवा मार्क्स के लेखों, पुस्तकों को पढ़कर। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि अपने को मार्क्सवादी कहने वाले अनेक वामपंथी मार्क्स को पढ़ने से नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं। ये पूंजीवाद के प्रचारोंवाला मार्क्सवाद जानते मानते हैं, न कि मार्क्स का अध्ययन करके। यदि ये मार्क्स का अध्ययन करते, खासकर भारत के संदर्भ में, तो उन्हें पता लगता कि- इंग्लैंड का पूंजीवाद विकास करते-करते मार्क्स के जन्म से पहले से हिन्दुस्तान, ईरान ईराक, मिस्र, चीन आदि तक फैलकर उन्हें लूटने पाटने लगा था। मार्क्स ने पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुये इंग्लैंड, यूरोप से लेकर हिन्दुस्तान तक की घटनाओं का अध्ययन व विश्लेषण किया है। इसी क्रम में उन्होंने व उनके मित्र एंगेल्स ने हिन्दुस्तान के इतिहास पर टिप्पणियों एवं भारत में अंग्रेजी राज पर 1857 के संग्राम पर कई लेख लिखे हैं। इन लेखों में जातिवाद के सन्दर्भ में मार्क्स कहते हैं, सदियों से यह देश न केवल हिन्दू व मुस्लिम धर्मों में बंटा रहा है, बल्कि अपने भीतर जातीय विभाजन में बंटा रहा है। उसके बीते इतिहास को देखकर ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों जैसे विदेशी हमलावरों से बच नहीं सकता था, वहाँ औद्योगिकशाही हावी हो जायेगी। इसके लिए रेलों का जाल बिछाया जा रहा है। आधुनिक औद्योगिक व रेल व्यवस्था हिन्दुस्तान की सामाजिक बनावाट को मूलतः बदल देगी। हिन्दुस्तान की जातिवादी व्यवस्था, जो मूलतः सदियों से पुराने पुश्तैनी (जन्मजात) श्रमविभाजन पर आधारित है, उसका भी उन्मूलन शुरू हो जायेगा, उद्योगों व रेलों आदि के द्वारा अभी भी वहाँ जानवरों व प्रकृति की पूजा होती है, जैसे बानर व गाय की। जबकि मनुष्य न तो पूजनीय है, न ही समानता का व्यवहार पाता है क्योंकि समाज के भीतर दासतापूर्ण जातीय विभाजन और जातीय भेदभाव सदियों से चले आ रहे हैं। अब लगता है कि आधुनिक औद्योगिक इंग्लैंड ऐसी सामाजिक बनावटों में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देगा। (मार्क्स के हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज एवं हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज के भावी परिणाम शीर्षक लेख देखें )। मार्क्स ने इन चन्द शब्दों में जातिवाद का कारण पुश्तैनी या जन्मजात श्रमविभाजन को बताया है जिसमें मनुष्य दासतापूर्ण भेदभाव वाला अमानवीय जीवन जीता रहा। जातिवाद को भारतीय समाज के विकास व उसके शक्तिशाली बनने में सबसे बड़ी रुकावट बताया है तथा विदेशी हमलावरों की विजय का कारण भी। उन्होंने यह भी बताया है कि अंग्रेजो द्वारा खड़ी की जा रही उद्योग व रेल की नयी समाजव्यवस्था पुराने पुश्तैनी श्रमविभाजन या जातिवाद का उन्मूलन शुरू कर देगी। दलितवादी बुद्धिजीवी अंग्रेजी हुकुमत द्वारा दलितों को शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण देने का तो गुणगान करते रहते हैं, लेकिन यह देखने से इनकार करते हैं कि अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी आधुनिक औद्योगिक या पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने विकास से जन्मनिर्धारित पेशों को लगभग तोड़ दिया है, जैसाकि मार्क्स ने समाजवैज्ञानिक भविष्यवाणी किया था। आज दूसरों की सेवा या मजदूरी करने, शिक्षा लेने देने, समाज- देश की रक्षा करने, पशुपालन या खेती करने जैसे कार्य या पेशे किसी के जन्म से निर्धारित नहीं होते हैं। बल्कि किसी एक ही जाति के अथवा प्रत्येक जाति के लोग मजदूर, शिक्षक, अधिकारी, सिपाही, राजनीति करने के पेशों में लगे हैं। पेशों के निर्धारण को लेकर जातिगत या जन्मनिर्धारित भेदभाव कानूनन खत्म हो गये है। लेकिन पुश्त दर पुश्त चले आये जातीय ऊँच-नीच के भेदभाव, जातिवादी दृष्टिकोण से सोचने व व्यवहार करने की मानसिकतायें, आदतें, प्रवृत्तियों, सामाजिक रीतिरिवाज आदि कम टूटे है। इसका एक कारण है कि समाज में आर्थिक भौतिक परिवर्तन हो जाने के बहुत वर्षों बाद तक ये पुरानी मानसिकतायें, आदतें, प्रवृत्तियों आदि बनी रहती है, ये बिना संघर्षों के समाप्त होने वाली नहीं है। दूसरे, आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में भी चन्द को छोड़कर अधिकांश दलित साधनहीन, सम्पत्तिहीन है। किसी तरह दैनिक मजदूरी करके, रिक्शा ठेला खीचकर, राशनी अनाज पाकर अपना जीवन बिता रहे है। पिछड़ी जातियों के ज्यादातर लोग सीमान्त किसान है, खेती, पशुपालन, मजदूरी करके गरीबी का जीवन जी रहे हैं। जबकि सवर्ण जातियों के अधिकांश लोग अधिक जमीनों के मालिक है. कुछ गरीब सवर्ण मजदूरी के कामों में शहरों में लगे है, देहातों में नहीं देहातों में ज्यादातर दलित ही मजदूर है, दूसरे कम या नहीं। तीसरे, देशी विदेशी पूंजीपतियों के नेता, विद्वान, पत्रकार, लेखक कलाकार आदि जातियों की राजनीतिक गोलबन्दी करके राजनीतिक जातिवाद बढ़ा रहे है।
अब दलितवादियों के इस विचार को लें कि वर्णविभाजन या जातिविभाजन धार्मिक-सामाजिक विभाजन है जो ब्राह्मणों द्वारा समाज में अपनी उच्चता श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए किया गया और उसे ईश्वर द्वारा निर्मित बता दिया गया। जातिवाद न तो कोई आर्थिक विभाजन है न ही वह आर्थिक आधारों से उत्पन्न हुई है। इस विचार की सच्चाई जानने के लिए दलितवादी या कोई अन्य यदि भारतीय समाज के इतिहास को न भी देखें, तो वर्तमान को ही देख - आज के जनतांत्रिक युग में भी अधिकांश दलित आजीविका के साधनों से, जमीन, उद्यम, पशु आदि से वंचित हैं; साधनहीन, धनहीन, भूमिहीन हैं, वे धनवान मालिकों के साधनों पर मजदूरी करते हैं, उनकी सेवा करते हैं। दलित जाति के मजदूरों को ही नहीं, अन्य जातियों के गरीब मजदूरों को धनवान मालिक गन्दा नीच मानते हैं, उनसे घृणा करते हैं, लेकिन पुराने सवर्ण मालिकों की तरह मुहफट होकर नहीं। अब जातिवाद की उत्पत्ति के समाज वैज्ञानिक अवधारणा को तो सामान्य ज्ञान के अनुसार जंगली युग से सभ्यता की और विकास के इतिहास में दुनिया के हर कबीले में एक अभिजात वर्ग खड़ा हुआ जो प्राकृतिक शक्तियों की पूजा करके एवं अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग से अपने कबीले के लोगी की रक्षा करता था और पहले पूरे कबीले का सेवक होता था। उसी तरह आर्य कबीलों में भी आग, वर्षा, बिजली, ठंडी गर्मी जैसी प्राकृतिक शक्तियों से लोगों को बचाने हेतु उनको प्रसन्न करने के लिए पूजा करने के लिए, उस हेतु मंत्रो की रचना व उच्चारण करने के लिए ब्राहमण खड़े हुये एवं दूसरे कबीलों से रक्षा करने के लिए क्षत्रिय खड़े हुये। प्रारम्भ में ये दोनों पूरे कबीले के सेवक माने जाते थे और इस सेवा के बदले कबीले के पशुपालक आदि उन्हें बलि या शुल्क देते थे, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में है। सामाजिक विकास के साथ इन दोनों कामों को करने वाले ये सदस्य इन कामों को करना व कबीले के अन्य लोगों से बलि या शुल्क लेना अपना अधिकार मानने लगे, और कबीले में अभिजात वर्ग बनते गये। आपस में लड़ने के साथ- साथ आर्य कबीले या जन अनार्य कबीलों से दस्युओं, असुरो, चमुरियों, शूद्रों आदि से भी लड़ते रहते थे। पहले ये आर्य कबीले अनार्य कबीले के लोगों को मार डालते थे या भगा देते थे और उनके इलाकों पर कब्जा कर लेते थे। लेकिन जब आर्य कबीले घुमन्तू जीवन छोड़कर पशुपालन व खेती करते हुये स्थायी रूप से बसने लगे, तब खेती की जमीनों हेतु जंगल काटने व खेती के अन्य कामों एवं पशुपालन के कामों की बढ़ोत्तरी होने • लगी। इसके लिए ज्यादा श्रम की जरूरत, अतिरिक्त श्रम करने वालों की आवश्यकता पड़ने लगी। इसे पूरा करने हेतु आर्य कबीले अपने अभिजात वर्ग के नेतृत्व में अनार्य शूद्रो, दासो, असुरों आदि को लड़ाइयों में हराकर उन्हें अपना गुलाम या सेवक बनाने लगे। अभिजात आर्य जुए में हारे व कर्जदार हुये आर्यों को भी अपना गुलाम सेवक बना लेते थे। अब गुलाम सेवक बनाने के लिए, आर्य, अनार्यों से युद्ध करने लगे थे। आर्यों के आपसी युद्धों एवं उनके असुरों दासों के साथ होने वाले युद्धों के वर्णन ऋग्वेद के अनेक मंत्रों किये गये हैं। आर्य अपने को आर्यवर्ण और अनार्यों को अनार्यवर्ण, दासवर्ण कहते थे। ऐसा कहने के सबूत ऋग्वेद के प्रारंभिक मंत्रों में है। जबकि वर्ण के रूप में ब्राहमणवर्ण या क्षत्रियवर्ण जैसे शब्दों का वहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए लगता है कि अनार्यों के एक तो दुश्मन होने के कारण, दूसरे उन्हें गुलाम बनाने के कारण आर्यों ने अपने से उनको अलग करने के लिये स्वयं को आर्यवर्ण और अनार्यों को अनार्यवर्ण शूद्रवर्ण, दासवर्ण पुकारना शुरू किया। ऐसा पुकारना आसान इसलिए था कि आर्यों और अनार्यों के शारीरिक रंग या वर्ण अलग-अलग थे- आर्य गोरे वर्ण और अनार्य काले वर्ण के थे। पशुओं, गुलामों, सेवकों आदि के मालिक व धनी होने के कारण आर्य अपने को श्रेष्ठ उच्च मानने लगे तथा सेवक अनार्यो, दासों को शारीरिक श्रम करने वाला दरिद्र होने के कारण काम करने वाला कमीना, नीच मानने लगे। आर्य का अर्थ उच्च श्रेष्ठ और दास, शूद्र का मतलब गुलाम, सेवक होने लगा। इस प्रकार विकास के लम्बे दौर में प्राचीन सप्तसैन्धव इलाके (वर्तमान भारतीय व पाकिस्तानी पंजाब एवं उसके आस पास के इलाके) का समाज एक और मालिक आर्यवर्ण और दूसरी ओर गुलाम अनार्यवर्ण, दासवर्ण या शूद्रवर्ण में बंट गया। दासों के आर्यमालिक दास-दासियों, शूद्रों की सन्तानों को भी दास बनाने लगे। अत दासता सेवकाई. शूद्धता का निर्धारण जन्म से होने लगा। यहीं से जातिवाद की उत्पत्ति शुरू हुई। आगे चलकर ब्राहमण अपनी सन्तानों को ब्राहमण के पेशे में और क्षत्रिय अपनी सन्तानों को क्षत्रिय के पेशे में लगाने लगे, तथा ब्राह्मण व क्षत्रिय के पेशे भी जन्मजात हो गये। दोनों अलग-अलग वर्ण, ब्राहमणवर्ण, क्षत्रियवर्ण बन गये लेकिन वे एक दूसरे का कार्य पेशा भी करते रहते थे और ऐसा करने के लिए एक दूसरे से संघर्ष भी करते रहे थे जैसे ब्राह्मण वशिष्ठ एवं क्षत्रिय विश्वामित्र के संघर्ष धीरे-धीरे आर्यों के द्वारा किये जाने वाले रथकार, कुम्भकार, तक्षन (बढ़ई) तन्वाय (बुनकर), राजगीर, पशुपालक आदि के पेशे भी जन्मजात होते गये। इन पेशों के लोग ज्यादातर अपने निजी श्रम से उत्पादन करने एवं ब्राहमणों व क्षत्रियों को बलि या टैक्स देने के कारण धन सम्पत्ति में छोटे व गरीब होते गये। ब्राहमण, क्षत्रिय उनसे टैक्स लेने एवं दासों, शूद्रों से श्रम कराकर समस्त उत्पादन हड़पने के कारण धनी से धनवान बनते गये। वे दोनों जीवन के लिए जरूरी शारीरिक श्रम करने से अलग होकर समाज के शोषक, संचालक, प्रबंधक, शासक वर्ग या वर्ण बन गये। आगे चलकर उन्होंने रथकारों, कुम्भकारों, पशुपालकों, तक्षनों आदि को शूद्रों, दासों के वर्ग या वर्ण में डाल दिया। चूँकि साधनवान, धनवान ब्राह्मण क्षत्रिय जीवन के लिए जरूरी शारीरिक श्रम करना छोड़ दिये, साफ, सुधरे रहने लगे और इन कामों को साधनहीन, धनहीन शूद्रों, दासों से कराने लगे, स्वयं उन कामों को छूते भी नहीं थे। इन कामों को करने के दौरान दास, शूद्र धूल, मिट्टी कीचड़ से सने होने से गन्दे हो जाते रहे। अतः आर्य धनवान ब्राहमण क्षत्रिय दासों, शूद्रों को कमीना, नीच, गन्दा, अछूत मानने लगे समाज में अमानवीय छुआछूत का व्यवहार शुरू हुआ। उसी दौरान खेती, पशुपालन, बुनकरी, बढ़ईगीरी, आदि के विकास, अलगाव के कारण व्यापार की वृद्धि हुई जिसे करने में पणि कबीले के लोग आगे निकल गये। समय बीतने के साथ पणि शब्द वणिक में बदल गया जिससे वैश्यवर्ण बना। पणियों द्वारा आय की गायें चुराने व बेंचने के वर्णन भी ॠग्वेद में मिलते हैं। इस प्रकार वैदिककाल का अन्त होते होते सप्तसैंधव इलाके के समाज में श्रमविभाजन जन्म से निर्धारित होने लगा, वह चार वर्णों में बैठा, वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था का विकास हुआ। स्मृतियों के समय में जब समाज के विधिविधान बनाये जाने लगे तब ब्राहमणों ने वर्णव्यवस्था को जन्मनिर्धारित व ईश्वर द्वारा निर्मित बताकर इसे धार्मिक रूप दे दिया और इसको बनाये रखने को क्षत्रियों राजाओं का धर्म बता दिया। उपरोक्त विवरण से साफ है कि वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था आर्थिक आधारों पर विकसित हुई श्रमविभाजन, वर्गविभाजन की व्यवस्था है, हिन्दुस्तान की प्राचीन वर्ग व्यवस्था है जिसे आर्यों ने, ब्राहमणों क्षत्रियों ने ईश्वरीय विधान बताते हुये पूरे हिन्दुस्तान में फैलाया।
इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि मिस्र, यूनान जैसी दुनिया की प्रत्येक सभ्यता के विकास क्रम में वहाँ पुरोहित, सैनिक, दास कृषक, राजा उत्पन्न हुये जिनकी सन्ताने अपने पिता के पेशों में लगती थी या लगायी जाती थीं। यूनान की दास व्यवस्था को और उसमें दासों की सन्तानों के भी दास बनायें जाने को अरस्तू, सुकरात जैसे दार्शनिक प्रकृति द्वारा निर्मित व्यवस्था बताकर दास व्यवस्था को जायज ठहराते रहते थे। हर समाज में राजपद वंश परम्परागत होता था और पुरोहितवर्ग राजा को ईश्वर का दूत बतायें हैं। धर्म के नाम पर मनुष्य को बलि चढ़ाने जैसी अमानवीय प्रथायें पूरी दुनिया में रही है। दासों के बच्चों को दास बनाते हुए उन पर अमानवीय अत्याचार पूरी दुनिया में होते रहे (1774-84 से जनतंत्रवादी मानवतावादी स्वतंत्रतावादी कहे जाने वाले अमेरिका में गोरे शासक, काले लोगों को 1865-70 तक गुलाम बनाकर उन पर अत्याचार करते रहे और 1960-65 तक उन्हें जनतान्त्रिक अधिकारों से वंचित रखे। जबकि हमारे देश में सदियों से दासता अर्धदासता की स्थिति में रहे दलित 1947 की आजादी के साथ कानूनन जनतंत्र पा गये हैं)। हाँ, दुनिया के दूसरे इलाकों के शोषित उत्पीडित वर्गों के लोग अपने पुरखों के पेशों को छोड़ने व दूसरे पैसे अपनाने का अवसर पाते रहे, लेकिन हमारे देश में ऐसे अवसर नहीं मिले। कारण, एक तो यहाँ की नदियों के विशाल मैदान व पर्याप्त वर्षा के कारण यहाँ के शासक शोषक वर्गों की सुख सुविधा हेतु पर्याप्त उत्पादन होते रहे जिससे उन्हें सुदूर जाकर दूसरों के इलाकों को लूटने पाटने, वहाँ बसने एवं उसके लिए युद्ध करने की जरूरत नहीं पड़ी जिससे ये शूद्रों, दासों को भी युद्धों में लगाते और इस प्रकार उनके जन्मनिर्धारित पेशे टूटने के अवसर मिलते। दूसरे, स्थायीरूप से एक जगह गाँवों में बसने और गावों की व्यवस्था के स्थायी बने रहने के कारण जातिव्यवस्था भी जड़ीभूत होकर स्थायी हो गयी। तीसरे, मिस्र, यूनान आदि की दास व्यवस्थायें छोटे इलाके में फैली होने के कारण कम मजबूत थीं जबकि हिन्दुस्तान की वर्णव्यवस्था विस्तृत भूभाग में, समूचे प्रायद्वीप में फैलकर ज्यादा मजबूत बनी. अतः ज्यादा टिकाऊ भी।
समाज में नये वर्ग विभाजन पैदा किया है उसी प्रकार लेकिन जैसाकि आप जानते है कि आधुनिक औद्योगिक–व्यापारिक समाज व्यवस्था ने, पूंजीवादी व्यवस्था ने दुनिया के हर देश समाज की मजबूत से मजबूत चीनी दीवारों को तोड़कर करके उनका भूमण्डलीकरण कर दिया है। पूंजीवाद यूरोपीय देशों के सामंतवाद के मजबूत किलो को तोड़कर विकसित हुआ और जैसा पहले कहा गया कि हमारे देश में अंग्रेजों द्वारा शुरू किये गये आधुनिक औद्योगीकरण ने पूंजीवादीकरण ने यहां सदियों से चले आये जातिवाद के आधारों को लगभग तोड़ दिया है। समाज में नए वर्ग विभाजन पैदा किया है। जहाँ पहले की वर्ण व्यवस्था में समाज के जीवन के लिए आवश्यक सामानों के उत्पादन का प्रमुख साधन, जमीन के मालिक नियंत्रक ब्राह्मण क्षत्रिय जन्म से होते थे और दस्तकार भी अपने साधनों के मालिक होते थे और शूद्र जन्म से सेवक। वहाँ वर्तमान में पूरे भूमण्डल के साथ भारत में भी जीवन के लिए जरूरी सामानों को पैदा करने के मुख्य साधनों के मालिक नियंत्रक धनाढ्य पूंजीपति है जो अधिकांशतः मारवाड़ी है, वैश्यवर्ग के हैं और उनके साथ इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस आदि के पूंजी सम्राट जुड़े हैं जो सभी उत्पादन साधनों के उद्योग, व्यापार बैंक, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति के नियंत्रक संचालक हैं। इन बड़े देशी-विदेशी पूंजी सम्राटों की अधीनता में अनेक मझोले-छोटे पूंजीपति है जो हर जाति धर्म के है, कुछ दलित भी है। उनका संगठन 'दलित चैम्बर ऑफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री (डिक्की) है। इन छोटे बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने अपने उद्योग, व्यापार, बैंक, परिवहन् अस्पताल, कालेज आदि में हर जाति के मजदूर, सेल्समैन, सुपरवाइजर, क्लर्क, अधिकारी, नर्स, डाक्टर, अध्यापक आदि को मजदूरी वेतन देकर अपनी सेवा में लगा रखा है। ये पूंजीपति अपना अधिकाधिक लाभ लूटने हेतु नीतियां योजनाएं बनवाने व उन्हें लागू करवाने में अपना शासन, प्रशासन प्रबंधन चलवाने में हर जाति, धर्म इलाके के सांसदों, विधायकों मंत्रियों, अधिकारियों, कर्मचारियों से काम लेते हैं। अपने मालों सामानों का विज्ञापन प्रचार करने में हर जाति, धर्म इलाके के कलाकारों, कलाकारनियों, माडलों, खिलाड़ियों को लगा रखे हैं। उनकी नीतियों-योजनाओं को मालो सामानों के उत्पादन व बिक्री को हर जाति धर्म के पत्रकार, लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी जायज ठहराने में लगे रहते हैं। जैसे भूमण्डलीकरण, निजीकरण, नोटबंदी, जी.एस.टी. आदि का वे समर्थन करते रहते हैं। सबसे बढ़कर यह कि ये पूंजीपति ही देश के सभी नागरिकों के-चाहे वे गरीब हो या धनी, दलित हो या पिछड़े अथवा सवर्ण हिन्दू हो या मुसलमान उत्तर भारत के हो या दक्षिण के पूरब के हो या पश्चिम के उन सबके जीवन के लिए जरूरी मालों-सामानों को ये पूंजीपति अपने कारखानों, मिलो, अब खेतियों में भी पैदा करवाते हैं, उन मालों, सामानों, कृषि व सर्वाधिक उत्पादों को सभी नागरिकों को बेचकर मुनाफा लूटते रहते हैं। तेल, साबुन, शम्पू, चाय, घटनी, ऑचार आदि के छोटे-2 पाउच तैयार करवाते हैं ताकि गरीब से गरीब आदमी भी उनकी लूट से न बचे। मध्यमवर्गों के लिए तो वे लगातार नयी 2 डिजाइनों के सूट-सलवार, पैट-शर्ट, जूते-चप्पल, मोबाइले, दो पहिया चार पहिया गाड़ियां तरह-2 के शम्पू क्रीम, नये-नये प्रकार के बिस्कुट, नमकीन, भूजा, फलों, सब्जियों के सॉस-जूस पैदा करवाते व बेचते रहते हैं। सभी जातिधर्म के मध्यमवर्ग नौकरी पेशा लोग ऐसे नये मालों के पीछे भागते रहते हैं और उन्हें खरीदने के लिए जायज-नाजायज हर
हरवे-खरने से अधिकाधिक धन जुटाने में लगे रहते हैं उन्हीं मालों को प्रदर्शित करके अपनी अपनी उच्चता श्रेष्ठता दिखाते है। दलित पिछड़े-सवर्ण मुस्लिम सभी के मध्यम वर्गीय लोग अंग्रेजी पढ़ने, कान्वेन्ट स्कूलों की शिक्षा पाने के पीछे लगे हैं, इसे वे भूमण्डलीकरण के युग में जरूरी बताते हैं यह तो कुछ ठीक हो सकता है। लेकिन यह कौन सी जरूरत है कि ये सभी मध्यमवर्ग पश्चिमी धुनों पर नाच गान करने, वैसी प्रतियोगिताओं में भाग लेने में उन्हें आयोजित करने में लगे रहते है। इतना ही नहीं, दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, अम्बेडकर जयन्ती, मुहर्रम का जुलूस निकालने में ये मध्यमवर्गीय मर्द औरते लड़के-लड़कियां, पश्चिमी धुनों पर नाच-गान करते हैं। यह सब करने में हर जाति-धर्म समुदाय के मध्यमवर्ग आगे रहते है उसके लिए आपस में प्रतियोगितायें करते हैं और झगड़े विवाद होने पर उनपर जातीय- धार्मिक लबादा चढ़ाते हैं जबकि हर जाति धर्म के गरीब मेहनतकश मजदूर, किसान, दस्तकार आदि अपना भोजन, वस्त्र जुटाने हेतु मजदूरी, रोजगार पाने हेतु परेशान रहते हैं। आज उन्हें पाने से धन पूंजी रोकती है, न कि ब्राह्मण क्षत्रिय। पैसे की कमी या अभाव के कारण अपने बच्चों को साधारण शिक्षा नहीं दे पाते हैं। पहले ब्राह्मण क्षत्रिय उन्हें पढ़ने से रोकते थे, आज धन पैसे का अभाव उन्हें शिक्षा से रोकता है, वंचित किए हुए है।
संक्षेप में आज भारतीय समाज पूंजीपति, व्यापारपति, बँकपति, मंत्री, सांसद, विधायक, प्रबंधक, अधिकारी, कलर्क, प्रोफेसर, अध्यापक, डाक्टर, नर्स, वकील, सैनिक, पुलिस, कुशल- अकुशल मजदूर छोटे-मझोले-बड़े किसान, कारीगर दस्तकार आदि सामाजिक समूहों में वैसे ही बढ़ गया है, जैसे पश्चिमी देश 200-300 साल पहले से बटे आ रहे हैं। आज सामाजिक भेदभाव, गैरबराबरी मुख्यतः धन-पैसे के आधार पर होने लगी है। प्रत्येक जाति के छोटे-बड़े पूजीपति, उद्यमी, नेता, मंत्री, अधिकारी, सरकारी व गैरसरकारी नियमित वेतनभोगी कर्मचारी, अध्यापक क्लर्क आदि मध्यम वर्ग के धनवान लोग अपनी ही जाति के गरीबों के साथ खान-पान, उठन- बैठन, शादी-विवाह में भेदभाव करने है। पैसे धन के आधार पर होने वाला यह सामाजिक भेदभाव बढ़ रहा है, जबकि जन्म के आधार पर होने वाला छुआछुत जैसा भेदभाव बहुत कम हो गया है। मतलब, यूरोपीय देशों में पैदा हुआ पूंजीवाद उसकी राजनीति व शासन व्यवस्था, उसकी संस्कृति व शिक्षा व्यवस्था आज भारतीय समाज के शहरों से लेकर गांवों तक हिन्दुओं व मुसलमानों तक ब्राह्मणों से लेकर दलितों तक फैल गयी है। देश में पूंजीवादी समाज व्यवस्था की प्रधानता हो गयी है। इसी पूंजीवाद के विरोध में, उसे उखाड़कर नयी समाज व्यवस्था लाने लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद का जन्म हुआ है. मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर चलते हुए रूस के मेहनतकशों ने अक्टूबर क्रांति के जरिए अपना राज लाया और अपनी समस्याओं से मुक्ति पाये। आज पूंजीवाद की प्रधानता वाले हमारे देश के मेहनतकश मजदूरों किसानों, दस्तकारों, छोटे व्यापारियों व उद्यमियों की मुक्ति का एक मात्र रास्ता मार्क्सवाद-लेनिनवाद अक्टूबर- क्रांति की तरह की क्रांति ही है। इसी से ये अपनी परम्परागत बचे-खुचे जातिवादी रूढ़ियों भेदनावों से भी मुक्त हो सकते हैं। ये बातें ऐसे दलितवादी बुद्धिजीवी नहीं मान सकते जो पूंजीवाद के मध्यमवर्ग बन गये है क्योंकि उन्हें पूंजीवाद विरोधी विचारों- व्यवहारों को स्वीकारने से हानि होती है। लेकिन गरीब दलित-पिछड़े मजदूरों मेहनतकशों को उनके हिमायती ईमानदार दलित बुद्धिजीवियों को इस पर सोचना विचारना चाहिए।
नोट- यह लेख मुख्यतः श्री जी.डी. सिंह के लेख "पहले धर्मवाद...........अब नारीवाद, दलितवाद, प्रदूषणवाद बनाम बेचारु मार्क्सवाद" के आधार पर लिखा गया है।
बाबूराम पाल। ( मऊ )
मंथन, अंक द्वितीय
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