मान्यता है कि आज कबीर दास जी की जयंती है। उनके दोहों में पाखंडवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार है।
कबीर कहते हैं,
"पत्थर पूजे हरी मिले,
तो मैं पूजूँ पहाड़
घर की चाकी कोई ना पूजे,
जाको पीस खाए संसार।"
और ये उस समय जब ब्राह्मणवाद का भयंकर बोलबाला था। इसी तरह,
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ,
पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।"
यानि असल बात इंसान से इंसान का प्रेम है और पोथियाँ पढ़ने से अगर कोई ये नहीं सीखता तो बेकार है।
कबीर कहते हैं,
"जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।"
ऐसे ही हिन्दू-मुस्लिम के झगड़े पर कबीर कहते हैं,
"हिन्दू कहें मोहि राम पियारा,
तुर्क कहें रहमान,
आपस में दोउ लड़ी मुए,
मरम न कोउ जान।"
यानि हिन्दू कहता है कि मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम ककहता है अल्लाह है – इसी बात पर दोनों लोग लड़ कर मर जाते हैं, लेकिन फिर भी सच कोई समझ नहीं पाता।
आप सोचिए ये बात कबीर 500 साल पहले कह रहे थे! इसी तरह वे ब्राह्मणवाद पर चोट करते हुए कहते हैं,
"मल-मल धोए शरीर को,
धोए न मन का मैल।
नहाए गंगा गोमती,
रहे बैल के बैल।"
यानि इंसान अपने मन की गंदगी को धोए बिना सोचता है कि सिर्फ गंगा नहाने से पाप धुल जाएंगे।
उनका एक और सीधा प्रहार है,
"लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार पूँजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार !!" यानि मंदिर का चढ़ावा पंडितों के पेट में जाता है भगवान के पास नहीं।
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