कविता कृष्णन ने बीबीसी (रेडियो) से प्रसारित अपने इंटरव्यू में माकपा सदस्यों द्वारा ट्रोल किये जाने का जिक्र किया था, लेकिन यह नहीं बताया था कि आखिर इन लोगों ने उन्हें किस बात पर ट्रोल किया. स्तालिन निंदा पर माकपा कार्यकर्ताओं का गुस्सा आश्चर्य की बात लगताी है क्योंकि उस पार्टी ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से कभी स्तालिन की नीतियों का अनुसरण किया ही नहीं.
रूस यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन के हाल के हमलावर रुख पर कविता कृष्णन का नजरिया खुलकर सामने आया है. वे फासिस्ट रूस का हवाला देकर पूरी निर्लज्जता के साथ नाटो शक्तियों के साथ खड़ी हो जाती हैं. रूस को दुनिया भर में शांति और जनतंत्र के लिए खतरा बताकर वे अमेरिका और उसके सहयोगियों के सभी अपराधों पर पर्दा डाल देती हैं जब कि सच यह है कि सभी साम्राज्यवादी देश विश्व शांति और उत्पीड़ित देशों के जनतंत्र के जानी दुश्मन हैं और उनमें अमेरिका और नाटो के देश अव्वल हैं. जाहिर है, लिबरेशन ग्रुप में रहते हुए उन्हें नाटो भक्ति की यह छूट नहीं मिल सकती थी. मुझे लगता है, माकपा कार्यकर्ताओं के विरोध का मुख्य कारण भी यही रहा होगा.
फिर भी किसी पूंजीवादी पार्टी के नाटो भक्त की तुलना में कविता जी कम्युनिस्ट आंदोलन पर ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं क्योंकि हर पार्टी और हर ग्रुप में उन्हें स्तालिन का भूत नजर आने लगता है. उनके इस भय के विपरीत लिबरेशन ग्रुप की तुलना में माकपा का स्तालिन विरोधी आचरण ज्यादा मुखर रहा है और उसकी बर्बादी के लिए तो स्तालिन का भूत कहीं से जिम्मेदार है ही नही, चाहे पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें या केरल का. यहाँ हम पश्चिम बंगाल की गतिविधियों तक सीमित रहेंगे.
पश्चिम बंगाल की गठबंधन सरकार (1967) में माकपा के जाने-माने नेता ज्योति बसु गृहमंत्री और हरेकृष्ण कोनार भूमि सुधार और राजस्व मंत्री बनाये गये थे. सरकार में मंत्री बनने के पहले श्री कोनार अपनी पार्टी के किसान संगठन के बड़े नेता थे जिसका मुख्य नारा था: जमीन जोतने वालों की. उसी समय इन्हीं की पार्टी के कुछ साथियों के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में जमींदारों के खिलाफ किसानों का विद्रोह फूट पड़ा जिसके नेता चारु मजूमदार, कानू सान्याल, सोरेन बोस, जंगल संथाल आदि थे. इस विद्रोह को दबाने के लिए युक्त सरकार ने किसानों पर गोलियां चलवाईं और आंदोलन के नेताओं का दमन किया जबकि उस समय तक ये नेतागण माकपा के ही नेता व कार्यकर्ता थे.
उस समय के पूंजीवादी विचारकों को वह कार्रवाई भी स्तालिनवादी कार्रवाई ही लगी थी. लेकिन सच्चाई है कि यह कार्रवाई पूरी तरह स्तालिन की नीतियों के विपरीत थी. इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ लेनिन और स्तालिन की सरकार ने जमीन मांगने वाले मेहनतकश किसानों पर गोलियां चलवाई हों. इसके विपरीत बोल्शेविक क्रांति की जीत के तुरंत बाद लेनिन की सरकार ने पहला राज्यादेश जमीन पर ही जारी किया था, जिसमें जार, उसके रिश्तेदारों, बड़े जागीरदारों और गिरिजाघरों की जमीन बिना मुआब्जा जब्त कर ली गयी थी और स्थानीय किसान समितियों की सलाह से वितरण की कार्रवाई शुरू कर दी गयी थी.
नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन पर दमन के बाद माकपा सर्वहारा की पार्टी से पतित होकर पूंजीपति वर्ग की वामपंथी पार्टी बनने की परीक्षा में शामिल गयी थी. उसके बाद के पांच साल (1967-72) पश्चिम बंगाल में उथल पुथल के रहे. 1972 में सिद्धार्थ शंकर राय ने तो दमन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. इस बीच युक्त मोर्चा की सरकारें बनती रहीं और इंदिरा सरकार द्वारा अपदस्थ की जाती रहीं. पूंजीवादी राजनीति की इस परीक्षा में पास हो जाने के बाद 1977 में माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ जिसने 34 वर्षों तक शासन किया. इस अवधि में सरकार के स्थायित्व के दो प्रमुख आधार बने: ऑपरेशन बरगा और पंचायती राज. बाद में तीसरा आधार बन गया, कार्यकर्त्ता के नाम पर लम्पट तत्वों का प्रवेश और दबदबा. ऑपरेशन बरगा तो मानों उनके 1967 के पापों का प्रायश्चित जैसा था. उस समय भारतीय बड़ा पूंजीपति वर्ग अंतरराष्ट्रीय खेमेबंदी में सोवियत साम्राज्यवाद के खेमे में था और उसे ऐसे पूंजीवादी जनवादी सुधारों से कोई परहेज नहीं था.
1991 के बाद यानी सोवियत साम्राज्यवाद के विखंडन और अस्थायी तौर पर अमेरिकी दबदबा बन जाने के बाद देश का पूंजीपति वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खेमे में आ गया. उसके बाद स्थिति बदल गयी और माकपा भी अपना रुख बदलने लगी. 2007 आते आते पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की किसान नीति बदल गयी. अब देशी, विदेशी पूंजीपतियों के उद्योगों के लिए ऑपरेशन बरगा के लाभार्थी किसानों से जमीन छिनी जाने लगी. इसके विरोध में सिंगूर और नंदीग्राम के किसान आंदोलन विश्वविख्यात हो गये और सरकार विकास और रोजगार सृजन के नाम पर देशी विदेशी पूंजीपतियों की वाकलत करने लगी. इस खुली किताब के बावजूद पूंजीवादी बुद्धिजीवियों ने बुद्धदेव भट्टचार्य सरकार की किसानों पर दमन की कार्रवाई को एक बार फिर स्तालिनवादी कार्रवाई घोषित कर दी. फिर हम दोहराना चाहेंगे कि इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें स्तालिन सरकार ने पूंजीपतियों के लिए किसानों की जमीन छिनी हो. हाँ, कृषि के सामूहिककरण के दौरान कुलकों की जमीन छिनी गयी है और ऐसा बार बार करना पड़ सकता है.
संक्षेप में यही है स्तालिन के भूत का वर्ग विश्लेषण जिसे पूंजीवादी और निम्नपूंजीवादी प्रभाव में चौंधियाये बुद्धिजीवी न देख पाते हैं और न समझ पाते हैं. ऐसा न करना उनके वर्ग हित में है. इस स्थिति में हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के शानदार इतिहास को बार बार दोहरायें ताकि पूंजीवादी झूठ का पर्दाफास कर वर्ग संघर्ष का मजबूत आधार तैयार कर सकें. जीत की उम्मीद इसी वैचारिक संघर्ष से है. (क्रमशः) - कवीन्द्र
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