पेरियार व्यक्ति नहीं विचार थे.
आज 17 सितम्बर पेरियार ई. वी. रामासामी का जन्मदिन है. इस दौर में जब तर्क, ज्ञान व वैज्ञानिक चेतना को मिथ्या धार्मिकता, अंध भक्ति और गपोड़पंथी इतिहास की लाठी से खदेड़ा जा रहा हो और नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एम. एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश सरीखे तर्कशील बौद्धिकों को शहादत देनी पड़ी हो, तब पेरियार व्यक्ति नहीं विचार के स्मरण का दिवस है. पेरियार का कहना था कि 'ईश्वर और धर्म केवल मूर्खो पर शासन कर सकते हैं. वे एक आस्तिक व्यक्ति को उन्मादी और पागल बना देते हैं. लेकिन एक धर्म या देवता तर्कशील व्यक्ति को प्रभावित नहीं कर सकता.' यह उनकी तार्किकता का ही परिणाम था कि उन्होंने बाल्मीकि रामायण और अन्य रामकथाओं का पुनर्पाठ करते हुए तमिल में 'रामायण पादीरंगल' पुस्तक 1930 में लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'रामायण : ए ट्रू स्टोरी' शीर्षक से पहली बार 1959 में प्रकाशित हुआ. जब उत्तर भारत के परियार कहे जाने वाले पेरियार ललई सिंह ने इसका हिंदी अनुवाद 1968 में स्वयं अपने प्रयासों से कानपुर के अपने 'सस्ता प्रेस ' से किया तब उत्तर भारत में एक वैचारिक भूचाल ही आ गया था. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. पेरियार ललई सिंह ने स्थानीय अदालत व हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस पर प्रतिबंध हटाने की लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की. लेकिन उत्तर भारत का दकियानूसी मानस न पेरियार रामासामी की तार्किकता को अपना सका और न ललई सिंह की देशज आधुनिकता को. यहाँ तक कि जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी और बहुजन नायक ढूढे जाने लगे तब भी न किसी को पेरियार याद आए और न ही ललई सिंह. इसके बावजूद हिंदी बौद्धिक समाज में तार्किकता व वैज्ञानिक चेतना की लंबी परंपरा रही है. राधामोहन गोकुल जी ने 1925 में 'ईश्वर का बहिष्कार' सरीखी विचार- पुस्तक लिखी थी, जिसका धारावाहिक प्रकाशन प्रेमचंद ने लखनऊ से प्रकाशित पत्रिका 'माधुरी' में किया था. राहुल सांकृत्यायन ने उसी दौर में 'दिमागी गुलामी' और 'तुम्हारी क्षय' सरीखी पुस्तिकाएं लिखीं, जिन्हें पढ़कर लाखों लोग वैज्ञानिक चेतना से संपन्न हुए थे. इसी दौर में यशपाल, भगवत शरण उपाध्याय, बाबा नागार्जुन, रांगेय राघव आदि ने अपने लेखन द्वारा तर्क व वैज्ञानिक चेतना का प्रचार- प्रसार किया. अभी हाल ही में प्रकाशित हिंदी कथाकार नारायण सिंह द्वारा लिखित 'सीता बनाम राम' पुस्तक इसी परंपरा की नवीनतम कृति है. जिस हिंदी समाज में तुलसी और रामचरितमानस को प्रश्नांकित करते ही लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं, उस समाज की मुख्यधारा के एक लेखक द्वारा बाल्मीकि रामायण और रामकथा से संबंधित अब तक के अधिकांश लेखन की आलोचनात्मक विवेचना साहस और जोखिम भरा कार्य है. इसे लिखने के लिए उन्होंने जिन मूल व सहायक ग्रंथों/ पुस्तकों को संदर्भ सूची में उल्लिखित किया है, वह उनके इस बौद्धिक परिश्रम के प्रति आश्वस्तकारी है. विशेष रुप से उल्लेखनीय यह है कि इस पुस्तक को लिखते हुए उन्होंने वर्ण-जाति से मुक्त(डि-कास्ट) होने की जो दृष्टि अपनाई है, वह इन दिनों विरल है. रामकथा के राम -सीता, दशरथ, कौशल्या, कैकेयी, भरत आदि सहित रावण, शंबूक, सूपर्णखा, शबरी, निषाद आदि का तार्किक परिप्रेक्ष्य उजागर किया है. कहना न होगा कि इस दौर.में इस विषय पर लिखी गई यह अत्यंत महत्वपूर्ण व पठनीय पुस्तक है. यह पुस्तक अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद (मो.9871856053) द्वारा प्रकाशित है. इस पर हिंदी के चेतना संपन्न पाठकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए. इन्हीं दिनों ओमप्रकाश कश्यप द्वारा लिखित पुस्तक 'पेरियार ई. वी.रामासामी - भारत के वाल्टेयर '(सेतु प्रकाशन) पहले से ही चर्चा में है.
वीरेंद्र यादव
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