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Thursday, 15 September 2022

तेलंगाना के जनसंघर्ष और उसके सबक- पी. सुंदरैया

प्रस्तावना

२१ अक्टूबर १९५१ को जब तेलङ्गाना के किसानों का सशस्त्र किसान आन्दोलन वापस लिया गया था, तब से आज तक २० वर्ष बीत चुके हैं। निजाम द्वारा शासित सामन्तवादी हैदराबाद के उस राज्य में यह संघर्ष कैसे विकसित हुआ, १३ सितम्बर १९४८ को भारतीय सेना के हस्तक्षेप और नेहरू सरकार की सशस्त्र सेनाओं की सहायता से जमींदारों द्वारा किसानों की उन जमीनों पर कब्जा करने की कोशिशों के विरुद्ध किसान जनता ने कैसे वीरता के साथ हथियार बन्द मुकाबिला किया और उन जमीनों को बचाने की कोशिश की जिन्हें उन्होंने हासिल किया था- इस सबका कोई अधिकृत वर्णन या संक्षिप्त वर्णन भी नहीं मिलता है। इस आन्दोलन के पक्के दुश्मनों और शत्रुतापूर्ण आलोचकों ने इस संघर्ष को कम्युनिस्टों की लूट और अराजकता" कहकर उसकी निन्दा करते हुए मनो साहित्य लिख डाला है ।

दक्षिणची कम्युनिस्ट बड़े जोर शोर के साथ इस आन्दोलन का विशेषतः १९४९-५१ तक उसकी छापामार मंजिल के दौर का चित्रण यह कहकर कर रहे हैं कि वह मुख्य रूप से संकीर्णतावादी, जड़ सुत्रवादी और व्यक्तिगत आतंक वाद था। नक्सलपंथी नेता यह निन्दात्मक प्रचार करने में जुटे हुए हैं कि तेलङ्गाना संघर्ष के नेतृत्व ने अक्टूबर १९५१ में इस संघर्ष को वापस लेकर उसके साथ गद्दारी की।

इस वीरतापूर्ण किसान विद्रोह का लेखा-जोखा संक्षेप में इस प्रकार किया जा सकता है कि उसके लिए तेलङ्गाना को किसान जनता को और कम्युनिस्ट पार्टी की विशाल आन्ध्र राज्य इकाई को, जिसके ऊपर किसानों के इस जन विद्रोह का नेतृत्व करने का भार आ पड़ा था, जबर्दस्त बलिदान देने पड़े। चार हज़ार की तादाद में कम्युनिस्ट और लड़ाकू किसान कार्यकर्ता जान से मारे गये।

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दस हजार से अधिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और जन सैनिक ३-४ साल तक नजर बन्द कैम्पों और जेलों में बन्द रहे। कम से कम ५० हजार ऐसे लोग थे जिन्हें समय-समय पर घसीट कर पुलिस और फौज के कैम्पों में ले जाया गया और वहाँ उन्हें हफ्तों तथा महीनों तक पिटाई, यातनाओं और आतंक का शिकार बनाया गया, हजारों गांवों की कई लाख जनता को पुलिस और फ़ौज की चढ़ाई का सामना करना पड़ा। उन पर लाठी चार्ज किये गये और फ़ौज तथा पुलिस के इन धावों के दर्मियान लोगों को लाखों रुपये की जायदाद से हाथ धोना पड़ा, जो या तो लूट ली गयी या बर्बाद कर दी गयी। हजारों स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया और उन्हें हर प्रकार के अपमान और बेइज्जती को झेलना पड़ा। संक्षेप में इस पूरे क्षेत्र में पांच वर्ष तक पुलिस और सेना के पाशविक आतंक का दौर दौरा रहा। आरम्भ में यह आतंक निजाम और उसके हथियार बन्द रजाकारों के गिरोहों ने बरपा किया और बाद में केन्द्रीय सरकार तथा हैदराबाद राज्य सरकार की सशस्त्र सेनाओं ने इस आतंक राज्य को जारी रखा। पुलिस कार्रवाई के बाद विभिन्न प्रकार के ५० हजार सशस्त्र सैनिकों की एक बड़ी सेना इस आन्दोलन को बलपूर्वक दबाने और भूस्वामियों के क्षत-विक्षत शासन को फिर से कायम करने के लिए लगा दी गयी। कुछ गैर सरकारी अनुमानों के अनुसार भारत सरकार ने उस समय हैदराबाद में इतने अधिक धन और साधनों का व्यय किया था, जितने अधिक धन और साधनों का व्यय उसने पाकिस्तान के साथ १९४७-४८ में काश्मीर के सवाल पर होने वाले युद्ध में किया था।

निश्चय ही यह तस्वीर उस समय तक पूरी नहीं हो सकती जब तक कि इसके दूसरे पहलू को भी न दिखाया जाय- अर्थात इस किसान आन्दोलन की उपलब्धियों और प्राप्तियों की प्रभावशाली सूची का चित्र न पेश किया जाय । इस संघर्ष के दौर में ३००० गांवों की किसान जनता ने, जिनकी जनसंख्या मोटे तौर पर तीस लाख के करीब होगी, १६००० वर्ग मील के क्षेत्र में अधिकांशतः नलगोंडा, वारंगल और खम्मम के तीन जिलों में लड़ाकू ग्राम पंचायतों के आधार पर ग्राम राज स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इन गांवों में घृणित जमींदारों को, जो देहाती क्षेत्रों में निजाम के निरंकुश एकतंत्र के स्तम्भ थे, उनके किलों के जैसे महलों से जिन्हें गद्दी कहते थे, खदेड़ दिया गया और उनकी जमीनों पर किसानों ने कब्जा कर लिया। जनता की कमेटियों की रहनुमाई में दस लाख एकड़ जमीन का किसानों में पुनर्वितरण किया गया। सभी प्रकार की वेदखलियाँ बन्द कर दी गयी और बेगार प्रथा ख़तम कर दी गयी।

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सूद की लुटेरी और अत्यधिक बढ़ी हुई दरों को या तो कम कर दिया गया या फिर उन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। खेत मजदूरों की दैनिक मजदूरी बढ़ा दी गयी और एक निम्नतम मजदूरी लागू कर दी गयी। वन विभाग के जालिम अफ़सरों को पूरे वन क्षेत्र को छोड़कर भाग जाने के लिए मजबूर कर दिया गया और इन वनों से मिले-जुले इलाके में रहने वाले सभी आदिवासी तथा अन्य लोग अपने श्रम द्वारा पैदा की गयी सम्पति का उपभोग करने लगे। १२ से लेकर १० महीनों तक के पूरे दौर में इन क्षेत्रों का सम्पूर्ण प्रशासन गाँवों की किसान कमेटियों ने चलाया। निजाम के स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध इस संघर्ष के दौर में रजाकारों और निजाम की पुलिस के सशस्त्र हमलों से किसानों की रक्षा करने के लिए जनता ने एक शक्तिशाली जनसेना (मिलीशिया) संगठिन करने में कामयाबी हासिल की जिसमें १० हजार ग्राम दलों के सदस्य और लगभग २ हजार नियमित गुरिल्ला दलों के सदस्य थे। लाखों किसानों को उनकी जिन्दगी में पहली बार दो जून खाना नसीब हुआ चन्द शब्दों में कहा जा सकता है कि इस ऐतिहासिक विद्रोह ने आसफजाही राजवंश के मध्ययुगीन स्वेच्छाचारी शासन की जड़ें हिला दी और उस पर घातक प्रहार किये।

किसानों के इस वीरतापूर्ण प्रतिरोध आन्दोलन को ही यह श्रेय प्राप्त है कि उसने कृषि क्रान्ति के प्रश्न को सामने लाकर खड़ा कर दिया और कांग्रेसी नेताओं के अनिच्छुक हाथों को विभिन्न प्रकार के कृषि सुधार, वे चाहे जितने ही अटपटे, अधूरे और तुच्छ क्यों न हों, जारी करने के लिए मजबूर कर दिया। इस संघर्ष  के ही दौर में सर्वोदय नेता श्री विनोवा भावे ने, जिन्हें तथाकथित शान्ति स्थापना आन्दोलन चलाने और किसान जनता के बीच कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार चलाने के लिए वहाँ भेजा गया था, भूदान की कल्पना की। इस कटुतापूर्ण और दीर्घ संघर्ष के दौर में ही जनता ने इस सत्य को अपनाया कि भूमि समस्या को कभी भी पूँजीवादी सामन्ती शासकों की चिकनी-चुपड़ी बातों और लम्बे-चौड़े वादों के जरिये नहीं हल किया जा सकता है बल्कि केवल एक शक्तिशाली संगठित उग्र जन संघर्ष ही इस समस्या को हल कर सकता है।

हम एक बार फिर से इस बात को भी याद कर लें कि तेलङ्गाना के संघर्ष को इसका भी श्रेय कुछ कम मात्रा में नहीं प्राप्त है कि उसने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की रफ्तार को तेज कर दिया, जिससे कई असंगठित और विच्छिन्न जातीय इकाइयां पृथक राज्य की अपनी चिरकांक्षित जनवादी माँग को हासिल कर सकी। इस संघर्ष ने हैदराबाद के सबसे बड़े शाही शासन पर जो शक्तिशाली प्रहार किये उनसे उस संघर्ष को प्रेरणा मिली जिसकी विजय के
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फलस्वरूप १९५२ में पोट्टी श्री रामुलू की शहादत के बाद आन्ध्र का राज्य बना और आन्ध्र राज्य के निर्माण ने पूरे भारत में १९५६ में भाषावार राज्यों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया तथा कांग्रेस के नेतृत्व को पहले के ब्रिटिश शासकों द्वारा देश के सिद्धान्तहीन तथा मनमाने ढंग से किये गये बँटवारे को खतम करने के लिए मजबूर कर दिया। इस प्रकार तेलंगाना के बहादुराना किसान संघर्ष ने राष्ट्रीय जनवादी और सही भाषाई आधार पर भारत के राजनीतिक मानचित्र को फिर से बनाने में अनुपम योगदान किया।

इस सिलसिले में यह भी समझ लेना जरूरी है कि कम्युनिस्ट पार्टी, जिसने इस ऐतिहासिक तेलंगाना विद्रोह का नेतृत्व करने की गौरवपूर्ण भूमिका अदा की थी और जिसे दमन का मुख्य भार उठा कर बहुत बड़ी कुर्बानियाँ देनी पड़ी थीं, वह कम्युनिस्ट पार्टी जिसने केरल में बायलार- पुनप्रा संघर्ष का नेतृत्व किया, जिसने बंगाल में द्वितीय महायुद्ध के बाद होने वाले किसान संघर्षो और मज़दूर वर्ग के संघर्षो का नेतृत्व किया - वह कम्युनिस्ट पार्टी इसके फलस्वरूप राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर एक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त और ऐसी कारगर राजनीतिक शक्ति के रूप में सामने आईं जिसकी ओर गम्भीरता से ध्यान देना आवश्यक हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी पहले भारत की करोड़ों जनता के भाग्य निर्माण का कार्य करने वाले मजदूर वर्गीय रुझानों की छोटी सी शक्ति के रुप में थी। उस कम्युनिस्ट पार्टी को १९५२ के आम चुनाव के बाद प्रथम संसद में सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में सामने आने का सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई ।

अन्त में तेलङ्गाना के इस किसान विद्रोह ने भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए जो सबसे बड़ा योगदान किया वह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस संघर्ष ने भारत की जनता की जनवादी क्रांति की रणनीति और कार्यनीति से सम्बंधित सभी सैद्धांतिक और वैचारिक प्रश्नों को सामने लाकर खड़ा कर दिया ताकि उनका सही और वैज्ञानिक उत्तर दिया जा सके और वास्तविकतावादी और व्यवहारिक हल निकाला जा सके। इस प्रकार के बहुत से प्रश्न पार्टी के भीतर गम्भीर बहस और निर्णय के लिये उठ खड़े हुए- जैसे कि जनता की जनवादी क्रांति में किसानों की भूमिका, जनता के छापेमार प्रतिरोध और ग्रामीण क्रान्ति कारी आधारक्षेत्रों का स्थान और उनका महत्व, किसान जनता के वर्गीकरण का ठोस विश्लेषण करने का प्रश्न, और यह प्रश्न कि क्रान्ति में किसान जनता के विभिन्न स्तरों (हिस्सों) की क्या भूमिका होती है, मजदूर वर्ग के नेतृत्व की परिकल्पना का क्या यही अर्थ और सार है और हमारे देश के जैसे पिछड़े हुये

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देश में, जहां आधुनिक मजदूर वर्ग की संख्या आबादी के एक प्रतिशत से अधिक नहीं है वहाँ मजदूर वर्ग का नेतृत्व स्थापित करने में कम्युनिस्ट पार्टी क्या भूमिका अदा करती है, इत्यादि । पार्टी के भीतर एक लम्बे समय तक चलने वाले संघर्ष के बाद जीवन और अनुभव ने हमारी पार्टी को यह क्षमता प्रदान की कि वह एक ऐसी राजनीतिक नीति निकाल सके जो काफी हद तक सही थी और अधिकांश उपस्थित समस्याओं का सन्तोषजनक उत्तर निकाल सके ।

यहां यह बतला देना प्रासंगिक होगा कि इस संघर्ष के दौर में, खासकर से उनके आखिरी दो वर्षों में, कम्युनिस्ट पार्टी ऊपर से नीचे तक दो विरोधी खेमों में सख्ती के साथ बंटी हुई थी, एक कैम्प इस संघर्ष का और उसकी उपलब्धियों का समर्थन कर रहा था और दूसरा कैम्प उसकी निन्दा कर रहा था तथा उसे आतंकवाद आदि कह कर बदनाम कर रहा था। जो लोग इस संघर्ष का विरोध कर रहे थे उन्होंने खुले आम समाचार पत्रों तक में अपनी बात कह डाली और इस प्रकार इस संघर्ष को तथा इसका नेतृत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को बदनाम करने में दुश्मनों की मदद की। यद्यपि यह तेज राजनीतिक सैद्धान्तिक फूट पूरी पार्टी में देश भर में फैली हुई थी लेकिन पार्टी की विशाल आन्ध्र इकाई में, जिसका वास्ता इस वीरतापूर्ण किसान विद्रोह के साथ प्रत्यक्ष और तात्कालिक रूप से था, यह फूट खास तौर से तीव्र रूप धारण कर चुकी थी। बाद में इतिहास ने बताया कि अक्टूबर १९५१ में तेलङ्गाना के सशस्त्र प्रतिरोध को वापस लेने के बाद जो पार्टी की अन्दरूनी एकता हासिल की गयी थी वह केवल औपचारिक, सतही और अस्थाई थी और यह फूट वास्तव में दो परस्पर शत्रुतापूर्ण स्पष्ट राजनीतिक रुझानों में परिणत हो चुकी थी। यह सिर्फ़ संयोग की बात नहीं थी और इसे जान लेना रुचिकर भी हो सकता है कि १९६२-६३ के साल में जो पार्टी का विभाजन हुआ उनमें विशाल आंध्र की राज्य पार्टी इकाई के विभाजन का स्वरूप और गठन लगभग वही रहा जैसा कि १९५०-५१ में पार्टी के भीतर चलने वाले द्वन्द के समय देखा गया था। उन मुट्ठी भर व्यक्तिगत कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं को छोड़कर, जिन्होंने शायद अपनी वफादारी और राजनीतिक विश्वास को बदल दिया हो, उन लोगों में अधिकांश व्यक्तियों ने, जो किसी न किसी कारण से तेलङ्गाना संघर्ष के विरोधी थे, अपनी मर्जी से सुधारवादी और संशोधनवादी दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जाना पसन्द किया जब कि उन लोगों के विशाल बहुमत ने, जिसने अन्त तक इस संघर्ष का समर्थन किया था, मजबूती के साथ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का साथ दिया। भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का कोई संजीदा विद्यार्थी यदि तेलङ्गाना के संघर्ष

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को तथा किसानों के इस बहादुराना प्रतिरोध आन्दोलन को चलाने के सवाल पर पार्टी के भीतर जो बहसें उठ खड़ी हुई थी, उन पर गौर नहीं करता है तो वह उन मूल कारणों को नहीं जान सकता है जिन्होंने अनिवार्य रूप से १९६२-६३ की फूट का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।

मुझे आंध्र और तेलंगाना के क्षेत्रों में कम्युनिस्ट आन्दोलन की 'शुरुआत से ही उसके साथ निकट रूप से सम्बन्धित रहने का अवसर मिला और मेरा सम्बन्ध तेलङ्गाना के संघर्ष के साथ भी उसकी विभिन्न मंजिलों में रहा और मेरा सम्बन्ध तेलङ्गाना के संघर्ष के साथ उस समय भी रहा जब कि सशस्त्र संघर्ष की वापसी के बाद वह पिछले बीस साल में कांग्रेस और भूस्वामियों द्वारा ढाये जाने वाले जुल्मों के खिलाफ लड़ रहा था, जिनका उद्देश्य तेलङ्गाना आन्दोलन की समस्त उपलब्धियों को पूर्ण रूप से समाप्त कर देने का था।

मैं समझता हूं कि यह मेरा प्रारम्भिक कर्तव्य है जिसे पूरा करने में मैं पिछले बीस साल में असफल रहा हूं कि मैं उस शानदार संघर्ष के प्रचुर तथा विविधितामूलक क्रान्तिकारी अनुभवों और सबकों का, संक्षेप में ही सही, वयान करू।p मैने तेलङ्गना संघर्ष की इस कहानी का वर्णन उन रिपोटों के आधार पर किया है जो उस समय उस संघर्ष के विभिन्न क्षेत्रीय संगठनकर्ताओं से प्राप्त हुई थीं। इसके अलावा जो प्रमुख साथी इस आन्दोलन में पूरी तरह से भाग ले रहे थे और अब भी ले रहे हैं उनके बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर भी किया है। मैं यहाँ कुछ ऐसे अनुभव और सबक पेश कर रहा हूं, जिन्हें मेरी राय में, तेलङ्गाना के संघर्ष से हम लोगों को प्राप्त करने चाहिए। 

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