स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -1
भाकपा माले (लिबरेशन) से कविता कृष्णन के त्यागपत्र के बाद उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर अच्छी खासी बहस छिड़ गयी है. आरोप-प्रत्यारोप से लेकर समीक्षा तक बहस तीन दिशाओं में केंद्रित है: कविता कृष्णन के वक्तव्य की अंतर्वस्तु और त्यागपत्र, उसपर लिबरेशन ग्रुप के महासचिव की नरम प्रतिक्रिया और इस विवाद का ऐतिहासिक और वैचारिक पक्ष. बेहतर होगा कि बात अंतिम बिंदु से शुरू की जाय और इस बात की जाँच पड़ताल की जाय कि क्या कविता कृष्णन के आरोप सही हैं! क्या सचमुच स्तालिनवादी तानाशाही के अनुसरण के कारण कम्युनिस्ट पार्टियां आगे नहीं बढ़ पा रही हैं या बर्बादी के कगार पर पहुँच गयी हैं!
हम अपनी बात विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन से शुरू करें. नौसिखुओं को छोड़कर आंदोलन का हर व्यक्ति सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस (1956) में ख्रुश्चोव की गोपनीय रिपोर्ट से अवगत है. उसने इस रिपोर्ट को पढ़ा हो या न पढ़ा हो, लेकिन इतना तो सुन रखा है कि यह रिपोर्ट स्तालिन के खिलाफ थी. मैं समझता हूँ कि कविता जी पिछले तीन दशकों में भाकपा माले, लिबरेशन के बड़े नेताओं में शामिल रही हैं और इतिहास की इन सारी बातों से अवगत हैं. फिर भी, पाठकों की जानकारी के लिए मैं इन बातों को दोहराना जरूरी समझ रहा हूँ ताकि यह समझा जा सके कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में स्तालिन क़ी नीतियों का अनुसरण सही ढंग से हुआ या नहीं हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर चर्चा के पहले यह देखा जाय कि ख्रुश्चोव की गोपनीय रिपोर्ट में स्तालिन की कैसी छवि पेश की गयी थी. यह इसलिए जरूरी है कि 1960 का दशक आते आते यह रिपोर्ट विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में बहस और विभाजन का कारण बन गयी थी, जिसके प्रभाव में भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन भी बिखर गया था.
वैसे तो ख्रुश्चोव की रिपोर्ट बहुत लम्बी है, लेकिन इसमें मुख्यतः स्तालिन पर तीन-चार आरोप लगाए गये थे. वे आरोप थे : स्तालिन निरंकुश थे, अत्याचारी थे, उन्होंने पार्टी कामरेड सहित अनेक निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया था, वे सामूहिक नेतृत्व में भरोसा नहीं रखते थे और व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देते थे, और उन्होंने सत्ता का दुरूपयोग किया जिससे पार्टी को गंभीर क्षति हुई. इन आरोपों के पक्ष में कई झूठे बकवास गढ़ दिये गये और मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन के उद्धरण संदर्भ से काटकर गलत ढंग से पेश किये गये. इस विषय पर विस्तृत खुलासा बनबिहारी चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक 'स्टालिन क्वेश्चन' में किया है. मैं समझता हूँ स्तालिन पर इससे ज्यादा गंभीर आरोप कविता कृष्णन का नहीं होगा. पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों के सारे आरोप भी इसी दायरे में रहते हैं, सिर्फ कथा कहानी के तेवर बदल जाते हैं. तब इन आरोपों को नये ढंग से लाने की जरूरत क्यों पड़ गयी. इस सवाल पर चर्चा आगे.
ख्रुश्चोव के आरोप और इतिहास से स्तालिन को खारिज करने की कोशिश सिर्फ सोवियत संघ की घटना नहीं रह गयी थी, बल्कि वह विश्वव्यापी रूप धारण कर चुकी थी. कहीं पूरी तरह तो कहीं आधे अधूरे ढंग से. इसके लिए ख्रुश्चोव और उसकी टीम ने साम, दाम, दंड और भेद के सारे हथकंडे अपनाये. बाद में 1960 के दशक में अलबानिया और चीन की पार्टियों ने ख्रुश्चोव का विरोध तो किया, लेकिन वह नाकाफी साबित हुआ. इसका सबसे बड़ा कारण था कि स्तालिन के मूल्यांकन के संबंध में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और माओ के विचार बदल गये थे. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ पहले माओ ने स्तालिन का बिना शर्त, पूरा समर्थन किया था, उन्हें चीनी जनता का सच्चा मित्र और शुभचिंतक बताया था, लेकिन 1956 के बाद से उनके सुर बदल गये थे. उन्होंने ख्रुश्चोव की तरह स्तालिन को अपराधी तो नहीं घोषित किया, उस तलवार को फेंक तो नहीं दिया, लेकिन मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की श्रेणी में भी नहीं रखा. वे यह मानने लगे कि स्तालिन के गलत पक्ष के खिलाफ संघर्ष करते हुए सही पक्ष का अनुसरण किया जाना चाहिए.
इस अंतरराष्ट्रीय विवाद के प्रभाव में भारत में सोवियत पंथी कम्युनिस्ट खेमा स्तालिन निंदक बन गया. वहीं मार्क्सवाद- लेनिनवाद-माओ विचारधारा का अनुसरण करने वाली भाकपा माले ने माओ की नीतियों का अनुसरण किया और माओ विचारधारा को ही आज के नये युग का मार्क्सवाद- लेनिनवाद घोषित कर दिया. इस स्थिति में वे स्तालिन का मौखिक समर्थन तो करते थे, लेकिन व्यवहार में उसे नहीं उतार पाते थे. बाद के दिनों में इस पार्टी में आए भटकाव और विखराव के बाद तो कई ग्रुपों की स्थिति और बदतर हो गयी. वहां इन बिंदुओं पर बहस भी तब छिड़ती है जब कभी अपूर्वानंद, कन्हैया कुमार, कविता कृष्णन जैसे सामाजिक जनवादी या कोई पूंजीवादी बुद्धिजीवी स्तालिन के निंदा अभियान में कूद पड़ते हैं. संक्षेप में इतना कहना बेहतर होगा कि कम्युनिस्ट आंदोलन की बर्बादी स्तालिन के "भूत" के कारण नहीं हुई है क्योंकि उसे तो इन पार्टियों ने कब का उतार फेंका है या उसका उपयोग सिर्फ बातों तक सीमित रखा है. यह बर्बादी मार्क्सवाद के खोल में पूँजीवादी और निम्नपूंजीवादी हितों की सेवा के कारण हुई है. कवीन्द्र (क्रमशः)
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -2
कविता कृष्णन भाकपा माले (लिबरेशन) में पिछले तीस सालों से सक्रिय रही हैं. उन्हें विस्तार से बताना चाहिए था कि उनकी पार्टी के कितने निर्णय स्तालिन कीनीतियों को ध्यान में रखकर लिए गये और किन निर्णयों के परिणाम पार्टी के लिए विनाशकारी साबित हुए. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. हो सकता है, पार्टी के भीतर उन्होंने बहस चलायी हो, जिसकी जानकारी बाहर के लोगों को नहीं हुई. फिलहाल, उन्होंने यूक्रेन पर अपने विचारों का जो विस्फोट किया, वहीं से हमलोग देख व समझ रहे हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं. जगजाहिर है कि भारत में 'वसंत के वज्रनाद' के गर्भ से निकली पार्टी भाकपा माले कई कारणों से टुकड़ों में बंट गयी है, लेकिन कविता जी की पुरानी पार्टी सिर्फ अपने ग्रुप को ही चारु मजूमदार की राजनीति का वारिस मानती और बाकी अन्य ग्रुपों को अराजकतावादी समूह के रूप में चिह्नित करती रही है.
तथ्यों पर गौर करें तो उनकी पूर्व पार्टी चारु मजूमदार की नीतियों को विनोद मिश्र के जमाने से ही छोड़ चुकी है और दीपांकर योग्य शिष्य की तरह श्री मिश्र की नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं. यहाँ बता देना उचित होगा कि 1969-70 में स्थापित माले पार्टी चीन को विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का आधारक्षेत्र और माओ को अंतरराष्ट्रीय नेता व मार्गदर्शक मानती थी और सांस्कृतिक क्रांति को सही मानते हुए देंग शियाओ-पिंग को पूँजीवाद का रही मानती थी. माओ की मृत्यु और देंग के सत्तारोहण के बाद विनोद मिश्र की नजर में देंग समाजवादी बन गये. लेकिन इसकी कोई व्याख्या नहीं दी गयी कि इस यू टर्न के वैचारिक व राजनीतिक कारण क्या थे. लेनिन और स्तालिन की नीतियों के अनुसार यह अवसरवाद था. स्तालिन के बाद की अवधि का सबसे बड़ा संकट था कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई अंतरराष्ट्रीय केंद्र नहीं था, जहाँ दुनियाभर की विभिन्न पार्टियों के बीच विचार विमर्श होता, जबकि लेनिन और स्तालिन के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय केंद्र हमेशा मौजूद रहा है. इस स्थिति ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद की कमर तोड़ दी थी.
'महान बहस' के बाद माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ को संशोधनवादी और बाद में सामाजिक साम्राज्यवादी कहते हुए उसे दुनिया की जनता का सबसे खतरनाक दुश्मन घोषित किया था. पार्टी के तत्कालीन महासचिव चारु मजूमदार के नेतृत्व में भाकपा माले ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयता के तहत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की इस नीति को भारत में लागू किया. लेकिन विनोद मिश्र ने इस सूत्र को बदलते हुए सोवियत संघ को विकृत समाजवादी देश घोषित किया. इस बदलाव के कारण वह दुनिया की जनता का दुश्मन भी नहीं रह गया, सबसे खूंखार होना तो दूर की बात है. कहाँ हुआ माओ की नीति का अनुसरण!
चारु मजूमदार के नेतृत्व में माले ने भाकपा और माकपा को संशोधनवादी यानी वामपंथी पूंजीवादी पार्टी घोषित किया था, लेकिन विनोद मिश्र ने इन पार्टियों के साथ कामरेडाना संबंध कायम कर लिया. इतना ही नहीं 1980 के दशक से उनकी पार्टी भाकपा, माकपा की राह पर चलते हुए संसदवादी राजनीति के दलदल में भी डूबने उतराने लगी. पहली बार आईपीएफ के बैनर में और दूसरी बार से पार्टी बैनर में. चुनाव में उनकी भागीदारी लेनिन और स्तालिन के रास्ते से नहीं हो रही थी, उसके लिए ख्रुश्चोवी मार्ग चुन लिया गया था. पहले तरीके में संसद और सड़क की लड़ाई में सड़क की लड़ाई प्राथमिक मानी जाती है और दूसरे में संसद की लड़ाई प्राथमिक बन जाती है. इसलिए भाकपा और माकपा अगर बर्बाद हुई हैं तो इसका कारण ख्रुश्चोवी पथ का अनुसरण था, न कि स्तालिन के पथ का. यह माले लिबरेशन के पतन का पहला चरण था.
इस चरण में पूंजीवादी -निम्नपूंजीवादी वामपंथी पार्टी के रूप में इनका जनाधार बढ़ा, बिहार विस में कुछ सीटें जीतने लगे. लेकिन तुरंत उसमें ठहराव के लक्षण दिखने लगे और जॉर्ज फरनान्डिस और नीतीश की पार्टी के साथ तालमेल का खेल शुरू हो गया. लेकिन वह तालमेल बेमेल खिचड़ी साबित हुआ और जनता की नजर में भी इनकी पूर्व अर्जित क्रांतिकारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी. फिलहाल एक दर्जन विधायकों के बल पर पूंजीवादी वामपंथ के नेता बने हुए हैं. लेकिन यह भी सच है कि अगर इनलोगों को राजद का वरदहस्त नहीं मिला होता, तो यह जीत असम्भव थी. चुनावी राजनीति का ही दबाव है कि अब माले, लिबरेशन के नेता मार्क्स और लेनिन का नाम लेने के बजाए अम्बेडकर और भगत सिंह के रास्ते मुक्ति की तलाश करने लगे हैं. क्या यही है, स्तालिन की नीति का अनुसरण?
यहाँ यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि भगत सिंह महज इनके नकाब हैं, इनके असली प्रतीक अम्बेडकर बन गये है. ठीक वैसे ही जैसे 1960 के दशक में संशोधनवादियों के प्रतीक लोहिया बन गये थे. लोहिया से अम्बेडकर तक की वैचारिक यात्रा का सामाजिक आधार बिल्कुल स्पष्ट है. तब पिछड़ी जातियों के जागरण का काल था, अब दलित जातियों के जागरण का काल है. इसलिए घोर दक्षिणपंथी भाजपाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सावरकर और अम्बेडकर के नाम का जाप कर रहे हैं, तो मार्क्सवादी खेमे के घोर अवसरवादी दीपांकर भट्टाचार्य अम्बेडकर और भगत सिंह के नाम का.
इस संक्षिप्त विवरण में स्तालिन का भूत किसी वामपंथी के कंधे पर नजर नहीं आता, आता भी तो ख्रुश्चोव का भूत. अब राजनीति का पासा पलटने लगा है, ख्रुश्चोवी भूत उतरने लगा है. ख्रुश्चोवपंथी अपने आका को याद करने में भी शरमाने लगे हैं, जबकि 'जो हिटलर की चाल चलेगा, वह हिटलर की मौत मरेगा' जैसे नारे लगाकर अनजाने में ही उन्हें स्तालिन का गौरवगान करना पड़ता है. दूसरी ओर दुनिया के मजदूर अपनी बर्बादी से सबक लेकर एक बार फिर स्तालिन को याद करने लगे हैं. यही कारण कि देश और दुनिया के पूंजीपतियों को स्तालिन का भूत आतंकित करने लगा है और कविता कृष्णन जैसे लोग उन्हें कोसने लगे हैं.-कवीन्द्र (क्रमशः)
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -3
कविता कृष्णन ने बीबीसी (रेडियो) से प्रसारित अपने इंटरव्यू में माकपा सदस्यों द्वारा ट्रोल किये जाने का जिक्र किया था, लेकिन यह नहीं बताया था कि आखिर इन लोगों ने उन्हें किस बात पर ट्रोल किया. स्तालिन निंदा पर माकपा कार्यकर्ताओं का गुस्सा आश्चर्य की बात लगताी है क्योंकि उस पार्टी ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से कभी स्तालिन की नीतियों का अनुसरण किया ही नहीं.
रूस यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन के हाल के हमलावर रुख पर कविता कृष्णन का नजरिया खुलकर सामने आया है. वे फासिस्ट रूस का हवाला देकर पूरी निर्लज्जता के साथ नाटो शक्तियों के साथ खड़ी हो जाती हैं. रूस को दुनिया भर में शांति और जनतंत्र के लिए खतरा बताकर वे अमेरिका और उसके सहयोगियों के सभी अपराधों पर पर्दा डाल देती हैं जब कि सच यह है कि सभी साम्राज्यवादी देश विश्व शांति और उत्पीड़ित देशों के जनतंत्र के जानी दुश्मन हैं और उनमें अमेरिका और नाटो के देश अव्वल हैं. जाहिर है, लिबरेशन ग्रुप में रहते हुए उन्हें नाटो भक्ति की यह छूट नहीं मिल सकती थी. मुझे लगता है, माकपा कार्यकर्ताओं के विरोध का मुख्य कारण भी यही रहा होगा.
फिर भी किसी पूंजीवादी पार्टी के नाटो भक्त की तुलना में कविता जी कम्युनिस्ट आंदोलन पर ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं क्योंकि हर पार्टी और हर ग्रुप में उन्हें स्तालिन का भूत नजर आने लगता है. उनके इस भय के विपरीत लिबरेशन ग्रुप की तुलना में माकपा का स्तालिन विरोधी आचरण ज्यादा मुखर रहा है और उसकी बर्बादी के लिए तो स्तालिन का भूत कहीं से जिम्मेदार है ही नही, चाहे पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें या केरल का. यहाँ हम पश्चिम बंगाल की गतिविधियों तक सीमित रहेंगे.
पश्चिम बंगाल की गठबंधन सरकार (1967) में माकपा के जाने-माने नेता ज्योति बसु गृहमंत्री और हरेकृष्ण कोनार भूमि सुधार और राजस्व मंत्री बनाये गये थे. सरकार में मंत्री बनने के पहले श्री कोनार अपनी पार्टी के किसान संगठन के बड़े नेता थे जिसका मुख्य नारा था: जमीन जोतने वालों की. उसी समय इन्हीं की पार्टी के कुछ साथियों के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में जमींदारों के खिलाफ किसानों का विद्रोह फूट पड़ा जिसके नेता चारु मजूमदार, कानू सान्याल, सोरेन बोस, जंगल संथाल आदि थे. इस विद्रोह को दबाने के लिए युक्त सरकार ने किसानों पर गोलियां चलवाईं और आंदोलन के नेताओं का दमन किया जबकि उस समय तक ये नेतागण माकपा के ही नेता व कार्यकर्ता थे.
उस समय के पूंजीवादी विचारकों को वह कार्रवाई भी स्तालिनवादी कार्रवाई ही लगी थी. लेकिन सच्चाई है कि यह कार्रवाई पूरी तरह स्तालिन की नीतियों के विपरीत थी. इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ लेनिन और स्तालिन की सरकार ने जमीन मांगने वाले मेहनतकश किसानों पर गोलियां चलवाई हों. इसके विपरीत बोल्शेविक क्रांति की जीत के तुरंत बाद लेनिन की सरकार ने पहला राज्यादेश जमीन पर ही जारी किया था, जिसमें जार, उसके रिश्तेदारों, बड़े जागीरदारों और गिरिजाघरों की जमीन बिना मुआब्जा जब्त कर ली गयी थी और स्थानीय किसान समितियों की सलाह से वितरण की कार्रवाई शुरू कर दी गयी थी.
नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन पर दमन के बाद माकपा सर्वहारा की पार्टी से पतित होकर पूंजीपति वर्ग की वामपंथी पार्टी बनने की परीक्षा में शामिल गयी थी. उसके बाद के पांच साल (1967-72) पश्चिम बंगाल में उथल पुथल के रहे. 1972 में सिद्धार्थ शंकर राय ने तो दमन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. इस बीच युक्त मोर्चा की सरकारें बनती रहीं और इंदिरा सरकार द्वारा अपदस्थ की जाती रहीं. पूंजीवादी राजनीति की इस परीक्षा में पास हो जाने के बाद 1977 में माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ जिसने 34 वर्षों तक शासन किया. इस अवधि में सरकार के स्थायित्व के दो प्रमुख आधार बने: ऑपरेशन बरगा और पंचायती राज. बाद में तीसरा आधार बन गया, कार्यकर्त्ता के नाम पर लम्पट तत्वों का प्रवेश और दबदबा. ऑपरेशन बरगा तो मानों उनके 1967 के पापों का प्रायश्चित जैसा था. उस समय भारतीय बड़ा पूंजीपति वर्ग अंतरराष्ट्रीय खेमेबंदी में सोवियत साम्राज्यवाद के खेमे में था और उसे ऐसे पूंजीवादी जनवादी सुधारों से कोई परहेज नहीं था.
1991 के बाद यानी सोवियत साम्राज्यवाद के विखंडन और अस्थायी तौर पर अमेरिकी दबदबा बन जाने के बाद देश का पूंजीपति वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खेमे में आ गया. उसके बाद स्थिति बदल गयी और माकपा भी अपना रुख बदलने लगी. 2007 आते आते पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की किसान नीति बदल गयी. अब देशी, विदेशी पूंजीपतियों के उद्योगों के लिए ऑपरेशन बरगा के लाभार्थी किसानों से जमीन छिनी जाने लगी. इसके विरोध में सिंगूर और नंदीग्राम के किसान आंदोलन विश्वविख्यात हो गये और सरकार विकास और रोजगार सृजन के नाम पर देशी विदेशी पूंजीपतियों की वाकलत करने लगी. इस खुली किताब के बावजूद पूंजीवादी बुद्धिजीवियों ने बुद्धदेव भट्टचार्य सरकार की किसानों पर दमन की कार्रवाई को एक बार फिर स्तालिनवादी कार्रवाई घोषित कर दी. फिर हम दोहराना चाहेंगे कि इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें स्तालिन सरकार ने पूंजीपतियों के लिए किसानों की जमीन छिनी हो. हाँ, कृषि के सामूहिककरण के दौरान कुलकों की जमीन छिनी गयी है और ऐसा बार बार करना पड़ सकता है.
संक्षेप में यही है स्तालिन के भूत का वर्ग विश्लेषण जिसे पूंजीवादी और निम्नपूंजीवादी प्रभाव में चौंधियाये बुद्धिजीवी न देख पाते हैं और न समझ पाते हैं. ऐसा न करना उनके वर्ग हित में है. इस स्थिति में हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के शानदार इतिहास को बार बार दोहरायें ताकि पूंजीवादी झूठ का पर्दाफास कर वर्ग संघर्ष का मजबूत आधार तैयार कर सकें. जीत की उम्मीद इसी वैचारिक संघर्ष से है. (क्रमशः) - कवीन्द्र
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -4
इस परिचर्चा की अंतिम कड़ी में हम उसी विषय की चर्चा करें जिसमें कविता कृष्णन को स्तालिन का भूत दिखाई पड़ गया और वे कांप गयीं. दरअसल रूस यूक्रेन युद्ध में उनकी नजर में सिर्फ पुतिन अपराधी है, नाटो "निःस्वार्थ भाव से" यूक्रेन की आजादी की रक्षा में खड़ा है. लेकिन बात ऐसी है नहीं. साम्राज्यवाद के अप्रत्यक्ष प्रभुत्व के इस दौर में ऐसा नहीं हो सकता कि कोई देश पूरी तरह उसके प्रभाव या प्रभुत्व से मुक्त रहे. फिलहाल विश्व पूजीवाद आंतरिक क्षय की बीमारी से ग्रसित है और साम्राज्यवादियों के बीच अपने प्रभाव क्षेत्र को बचाने और बढ़ाने का संघर्ष जारी है. एक तरफ अमेरिका और यूरोप के देश हैं जिनका सैन्य गठबंधन नाटो है, दूसरी तरफ चीन और रूस का गठबंधन तैयार हो रहा है और इसका मकसद अमेरिकी व यूरोपीय प्रभुत्व को चुनौती देना है. यूक्रेन की सरकार पहले खेमे में खड़ी है और जनता उसमें पिस रही है.
1991 में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के विघटन के बाद येलत्सिन के नेतृत्व में रूस की हैसियत अमेरिकी खेमा के समय भीगी बिल्ली जैसी हो गयी थी. आज रूस को एक क्षेत्रीय साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उसके सामने खड़ा होने लायक बनाने का श्रेय पुतिन को जाता है. उसके बाद उनकी विस्तारवादी भूख बढ़ती चली गयी. दूसरी तरफ यूक्रेनी शासक वर्ग के प्रतिनिधि दुविधा के शिकार रहे, अमेरिकी खेमा में शामिल हुआ जाय या रूस के साथ रहा जाय. यह विवाद 2014 में अत्यंत तीखा हो गया जब तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर याक़ूनोविच को त्यागपर देकर देश छोड़ना पड़ गया. उन्होंने यूरोप के साथ संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था.
ध्यान देने की बात है कि याक़ूनोविच 2010 का राष्ट्रपति चुनाव जीते थे और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने उस चुनाव को निष्पक्ष माना था. लेकिन पश्चिमी यूरोप के खेमे में जाने से इनकार करने के कारण उन्हें जनविद्रोह का सामना करना पड़ा. रूसी शासकों की नजर में यह विद्रोह यूरोप प्रायोजित था और यहीं से उनके कान खड़े हो गये. लगभग उसी समय क्रीमिया और दोनबास्क में रूसी लोगों ने नस्लभेद का आरोप लगाकर विद्रोह कर दिया. पुतिन ने इस स्थिति का फायदा उठाकर क्रीमिया को अपने देश में मिला लिया. इस युद्ध में दोनबास्क आदि क्षेत्र का लगभग एक लाख सत्ताईस हजार वर्ग किमी रूस के कब्जे में हैं. भीषण संघर्ष जारी है.
निस्संदेह इस युद्ध की जड़ में नाटो की रूस विरोधी भूमिका है, वर्तमान राष्ट्रपति वोलोदमीर जैलेंसकी यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल होने को उतावले हैं और रूस यूक्रेन को कम से कम तटस्थ क्षेत्र के रूप में बनाये रखना चाहता है. यह लड़ाई ऊपर से रूस और यूक्रेन के बीच प्रतीत हो रही है, परन्तु अब यह रूस और नाटो के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गयी है. इसमें मजदूर वर्ग और जनता की जनवादी ताकतों के विरोध का होना चाहिए. इससे भिन्न कोई नजरिया अपनाकर दुनिया की जनता को किसी एक पक्ष से युद्ध में झोंक देने जैसा होगा.
ऐसी स्थिति में दुनिया के मजदूर वर्ग के सामने सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है कि वे इन दोनों लुटेरी ताकतों का विरोध करें और अपनी वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक स्थिति मजबूत करें. दुनिया के मजदूर वर्ग तथा शांति और जनवाद चाहनेवाली जनता को निम्न तीन मुद्दों पर एकजुट होकर जोरदार आवाज बुलंद करनी चाहिए :
- दुनिया भर में फैले सभी अमेरिकी सैन्य अड्डे खत्म हों,
- नाटो भंग हो और
- रूसी सेना अविलम्ब यूक्रेन छोड़े
यही स्थायी शांति और उत्पीड़ित देशों के जनवाद की रक्षा की अनिवार्य शर्तें हैं. (समाप्त) कवीन्द्र.
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