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Thursday, 1 September 2022

जन ज्वार से - चर्च का जातिवाद

                 
दलित पादरी फादर विलियम प्रेमदास चौधरी की आत्मकथा आडंबरपूर्ण कैथोलिक चर्च व्यवस्था में फैले भेदभाव और अश्पृश्यता के अंधियारे का खुलासा करती है और चर्च के मिथक को तोड़कर उसकी असली कहानी बयां करती है...
आरएल फ्रांसिस - फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने अपनी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा 'ऐन अन्वान्टिड प्रीस्ट' (एक अवांछित पादरी) में इस समस्या पर खुलकर आक्रमण किया है। उन्होंने चर्च के पादरियों के जीवन का विश्लेषण किया है, जिससे अब तक गैर ईसाई ही नहीं खुद ईसाई समुदाय भी अनजान है।

चर्च की ऊंची दीवारों से घिरे और काफी अंदर तक फैले जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, असमानता का जिक्र करते हुए फादर विलियम आर्चबिशप विन्सेंट एम कैनसासियों के एक पत्र का उत्तर देते हुए कहते है 'मैं एक दलित पादरी हूँ, न कि भिखारी। मैं अपने लिए किसी चर्च का प्रमुख बनने की भीख नही मांग रहा हूँ। मैं कोई दक्षिण भारतीय पादरी नहीं, जिसकी आपको चिंता हो। मुझे धर्म की शिक्षा देने के लिए आपके निर्देशों की जरूरत नहीं, जीजस हमारे स्वामी हैं न कि आप। मैं जीजस का भक्त हूँ न कि आपका। चर्च प्रमुख बनने के बिना भी मैंने जो पाया है उससे मैं संतुष्ट हूँ। मैं दलित वर्ग से आया हूँ इसलिए ये मेरी जिम्मेदारी है कि मैं कैथोलिक चर्च के अंदर दलित ईसाइयों के सम्मान की रक्षा करूं.

चर्च में गहरे तक फैले भेदभाव का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि स्थानीय दलित पादरी होने के कारण चर्च नेतृत्व ने मेरा मनोबल तोड़ने के लिए पिछले चार वर्षों से मुझे 'कलर्जी होम' (एक तरह से अवकाश प्राप्त पादरियों का आवास) में रखा हुआ है। आज तक किसी कार्यरत युवा पादरी को इतने समय तक यहा नहीं रखा गया है। कैथोलिक बिशप से वह पूछते हैं कि आप कहते हैं मुझे किसी चर्च का प्रमुख नहीं बनाया जा सकता क्योंकि मुझमें कमियां हैं,जबकि आप अभी तक मेरे किसी दोष को सिद्ध नहीं कर सके हैं, केवल इसके कि मैं हिन्दू दलित से धर्मांतरण करके ग्यारह वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद पादरी बना हूँ।

'ऐन अन्वान्टिड प्रीस्ट' चर्च के अंदर पादरियों के बीच पनपने वाले अहम, अहंकार और टकरावों और इस विशाल संस्थान के कामकाज के तरीके पर कई सवाल खड़े करती है. साथ ही धर्मांतरित दलितों और दलित पादरियों पर हुए जुल्म पर भी जोर देती है। इस किताब ने कई चीजों का खुलासा किया है और कई मिथकों को तोड़ा भी है। फादर विलियम ने चर्च संस्थानों में फैले भ्रष्टाचार और चर्च के कुछ खास पदाधिकारियों द्वारा आर्थिक बदइंतजामी फैलाने पर भी कई सवाल खड़े किये हैं। वो एक अन्य पादरी डोमिनिक इमानुएल जो दिल्ली कैथोलिक आर्च डायसिस के प्रवक्ता हैं, के बारे में लिखते हैं उन्होंने भारतीय सिनेमा के लिए बनाई गई फिल्मों का आय-व्याय का सही ब्योरा नहीं दिया। उसके विदेशों से पैसा पाने के तरीकों पर भी यह किताब कई प्रश्न खड़े करती है और इस बात पर जोर देती है कि चर्च के आमदनी और खर्चे का सही सही हिसाब रखा जाना चाहिए।

एक रोचक प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा गया है 'इस तरह के प्रश्न उठाने पर कई बार उनकी अपने साथी पादरियों से लम्बी बहस हो जाती है. एक बार इन्हीं मुद्दों पर लम्बी खिंची बहस के बाद आर्चबिशप ने मुझे 'अन्वान्टिड प्रीस्ट' कह डाला।

ये किताब हिन्दू समाज पर भी दबाव डालती है कि वो उन दलित भाईयों के बारे में सोचे जो समाज में बराबरी और आदर के लिए ईसाइयत को अपना लेते हैं। धर्मांतरण करने वाले दलित सोचते हैं कि अब वो आजाद हैं, लेकिन उन्हें यहा भी मुक्ति नहीं मिलती। चर्च ढांचे में भेदभाव बड़ी चालाकी से होता है इसलिए फादर विलियम जैसे किसी दलित पादरी की स्थिति काफी खराब हो जाती है और उनके लिए सम्मानजनक रूप में पादरी बने रहना असंभव जैसा हो जाता है।

फादर विलियम ने वो लिखने की हिम्मत की है जिसे कई कहने और सपने में भी कबूल करने की हिम्मत नहीं करेंगे। वो धर्मांतरण के कड़वे सच और एक दलित की दुविधा को स्वीकार करते हैं। वो लिखते हैं कि करीब सभी दलित हिन्दु इसलिए गरीब थे क्योंकि उनका उच्च जातियों ने शोषण किया. वो या तो मजदूरी कर रहे हैं या फिर कोई बहुत ही तुच्छ कार्य। धर्मांतरण के बाद शोषण करने का जिम्मा कैथोलिक चर्च के पदाधिकारियों ने उठा लिया है, इसलिए धर्मांतरित दलितों की स्थिति पहले जैसी ही बनी हुई है। कैथोलिक चर्च पर दक्षिण भारतीय बिशपों एवं पादरियों के एकाधिकार जैसे कई अहम मसले 'ऐन अन्वान्टिड प्रीस्ट' में उठाये गये हैं।

कैथोलिक चर्च में दलितों और आदिवासियों की विशाल जनसंख्या की तरफ इशारा करते हुए यह पुस्तक कहती है कि उच्च जातीय चर्च नेतृत्व कदम-कदम पर उनका शोषण ण कर रहा है. जीसस पर उनके अटूट विश्वास ने ही उन्हें चर्च के साथ बांध रखा है, जबकि चर्च का सिस्टम हमेशा उच्च वर्गो और उच्च जातियों को ही फायदा पहुंचाने वाला रहा है। फादर विलियम इसे बदलने पर जोर देते हुए लिखते हैं कि इसी की वजह से कई जगह आपस में टकराव भी देखने को मिल रहे है। ये किताब पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का भी उल्लेख करती है जो दलित ईसाइयों के अधिकारों की पुरजोर वकालत कर रहा है। फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने एक बड़े ही आदर्श मंच का इस्तेमाल कर अपने चारों तरफ उपजे कई सवालों का जवाब दे दिया है।

'ऐन अनवान्टेड प्रीस्ट' फादर विलियम प्रेमदास चौधरी की आत्मकथा है. ये किताब धर्म में आस्था रखने वाले धार्मिक संस्थाओं, सरकार, नौकरशाह, न्यायपालिका, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग अनुसंधान कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों को ये समझने में मददगार होगी कि दलित और आदिवासियों की तमाम समास्याएं क्या हैं और सफेद पोशाक (पवित्र चोगा) के पीछे कितना अंधियारा छाया हुआ है। यह धर्मांतरण की राजनीति को समझने में मदद पहुंचाएगी। ये किताब यह समझाने में भी कारगर साबित होगी कि दलितों के आर्थिक विकास से समाज में बड़ा बदलाव आएगा, न कि धर्मांतरण से.

(आरएल फ्रांसिस पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं.)

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