कामरेड नंदकिशोर सिंह के पोस्ट से उभरते जाति के सवाल पर चंद महत्वपूर्ण बाते:
1. भारत जैसे देश में वर्गीय उत्पीड़न के साथ- साथ सामाजिक या जातीय उत्पीड़न भी है।
2. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर , बाबू जगजीवन राम , राम विलास पासवान , डॉ. राम मनोहर लोहिया , कर्पूरी ठाकुर , नीतीश कुमार , मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, कांसीराम , मायावती , आदि बुद्धिजीवियों ने तो आजीवन बुर्जुआ वर्ग की राजनीति की है। बुर्जुवा वर्ग की राजनीति के द्वारा जातीय या सामाजिक उत्पीड़न खत्म नही किया जा सकता है। घृणित एवं कुत्सित जातीय भेद एवम उत्पीड़न के खात्मे की लड़ाई भी वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग और मेहनतकश किसानों और अन्य मेहनतकश वर्गों की एकता और गोलबंदी के आधार पर क्रांतिकारी वर्ग संघर्षों को विकसित कर ही लड़ी जा रही है और लड़ी जाएगी।
3. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर , जगदेव प्रसाद और ज्योतिबा फुले जैसे लोग किसी भी पैमाने पर कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी नहीं थे। सामाजिक न्याय के पैरोकारों या पूंजीवादी समाज सुधारकों को क्रांतिकारी का दर्जा देना सर्वथा अनुचित है। वैज्ञानिक समाजवाद के महान सिद्धांतों को अर्जक संघ के जातिवादी सोच के स्तर पर उतारने वाले लोग अपराध कर रहे हैं ।
4. किसी खास जाति या धर्म या वर्ग में जन्म लेना हमारे वश में नहीं है , लेकिन क्रांतिकारी या प्रतिक्रियावादी होना हमारे वश में होता है। इसलिए हम व्यक्तियों का विश्लेषण उसके कर्म के आधार पर करना उचित समझते हैं , न कि उसकी जाति, धर्म इस वर्ग के आधार पर।
5.यह समझ बिल्कुल ग़लत है कि क्रांति सिर्फ उत्पीड़ित जाति, धर्म, समुदाय या वर्ग से आने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। पहली बात तो यह कि क्रांति वर्ग सचेतन जनता करती है यानी मेहनतकश जनता जिसमें हमारे देश में मजदूर वर्ग और मेहनतकश किसानों के सभी तबके - खेतिहर मजदूरों से लेकर गरीब , छोटे एवं मझोले किसान शामिल होते हैं। लेकिन क्रांति का नेतृत्व तो लेनिनवादी कार्यशैली में गठित लौह अनुशासन वाली एक मार्क्सवादी - लेनिनवादी विचारधारा से लैस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी पार्टी ही करती है।
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कामरेड नंदकिशोर सिंह का पोस्ट
यह सच है कि भारत जैसे देश में वर्गीय उत्पीड़न के साथ- साथ सामाजिक या जातीय उत्पीड़न भी है। और भारतीय समाज की इस सच्चाई को कम्युनिस्ट पार्टियों वा वामपंथी दलों ने हमेशा स्वीकार किया है। दलितों , आदिवासियों एवं अत्यंत पिछड़े समुदायों को जितना क्रांतिकारी कम्युनिस्ट विचारधारा से अनुप्राणित संगठनों ने गोलबंद किया है और उन्हें क्रांतिकारी वर्ग संघर्षों में उतारा है , उतना किसी ने नहीं किया है। बहुत सारे दलित , आदिवासी , पिछड़ी जातियों में जन्म लेने वाले बुद्धिजीवियों ने तो आजीवन बुर्जुआ वर्ग की राजनीति की है। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर , बाबू जगजीवन राम , राम विलास पासवान , डॉ. राम मनोहर लोहिया , कर्पूरी ठाकुर , नीतीश कुमार , मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, कांसीराम , मायावती , आदि इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। घृणित एवं कुत्सित जाति व्यवस्था के खात्मे की लड़ाई भी वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग और मेहनतकश किसानों और अन्य मेहनतकश वर्गों की एकता और गोलबंदी के आधार पर क्रांतिकारी वर्ग संघर्षों को विकसित कर ही लड़ी जा रही है और लड़ी जाएगी।
पूरी दुनिया में क्रांतिकारी आन्दोलन का इतिहास यही बतलाता है कि खाते-पीते सम्पन्न वर्ग में पैदा हुए बुद्धिजीवियों , जिन्हें आधुनिक ज्ञान विज्ञान से सबसे पहले परिचय हुआ , ने क्रांतिकारी मार्क्सवादी विचारधारा को अपनाया और उस विचारधारा से मजदूर - मेहनतकश वर्गों को परिचित कराया। स्वयंस्फूर्त ढंग से यह विचार मजदूर वर्ग में पैदा नहीं हो जाता। इसलिए निम्न पूंजीवादी और पूंजीवादी पारिवारिक पृष्ठभूमि के क्रांतिकारी सिद्धांतों से लैस बुद्धिजीवियों को कम करके नहीं आंकना चाहिए। हर क्रांतिकारी संगठन के मेरूदंड ऐसे ही क्रांतिकारी बुद्धिजीवी होते हैं।
कम्युनिस्ट पार्टी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता होता है। सर्वहारा वर्ग ही जनक्रांति का नेता होता है। भारत जैसे देश में किसानों का बड़ा हिस्सा, खासकर गरीब , छोटे एवं मझोले किसान क्रांति की मुख्य शक्ति हैं। इसके अलावे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में दबे-कुचले समुदायों के लोगों को भी संगठित करने का प्रयास किया जाना चाहिए , खासकर दलितों , आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर भारत के सन्दर्भ में विशेष ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन हम साम्प्रदायिक और जातिवादी लोगों को समाज का कोढ़ समझते हैं और यह मानते हैं कि जातिवाद और साम्प्रदायिक सोच से ग्रस्त व्यक्ति की जनपक्षधर , जनवादी एवं क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति में कोई जगह नहीं है । और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जातिवादी अपने सरनेम में सिंह , शर्मा ,पाठक , पासवान या असुर में से कौन सा सरनेम रखता है। किसी खास जाति या धर्म में जन्म लेना हमारे वश में नहीं है , लेकिन क्रांतिकारी या प्रतिक्रियावादी होना हमारे वश में होता है। इसलिए हम व्यक्तियों का विश्लेषण उसके कर्म के आधार पर करना उचित समझते हैं , न कि उसकी जाति के आधार पर।
विश्व सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों मार्क्स, एंगेल्स , लेनिन , स्टालिन एवं माओ में से कोई भी व्यक्ति उत्पीड़ित वर्गों से नहीं आते थे। यह समझ बिल्कुल ग़लत है कि क्रांति सिर्फ उत्पीड़ित व्यक्ति ही कर सकता है । पहली बात तो यह कि क्रांति वर्ग सचेतन जनता करती है यानी मेहनतकश जनता जिसमें हमारे देश में मजदूर वर्ग और मेहनतकश किसानों के सभी तबके - खेतिहर मजदूरों से लेकर गरीब , छोटे एवं मझोले किसान शामिल होते हैं। लेकिन क्रांति का नेतृत्व तो लेनिनवादी कार्यशैली में गठित लौह अनुशासन वाली एक मार्क्सवादी - लेनिनवादी विचारधारा से लैस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी पार्टी ही करती है। इतिहास ने यह जिम्मेदारी उसे ही सौंपी है और उसमें उटपटांग समझ रखने वाले तथाकथित उत्पीड़ित वर्गों के प्रतिनिधियों के लिए कोई जगह नहीं होती। बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर , जगदेव प्रसाद और ज्योतिबा फुले जैसे लोग किसी भी पैमाने पर कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी नहीं थे। सामाजिक न्याय के पैरोकारों या पूंजीवादी समाज सुधारकों को क्रांतिकारी का दर्जा देना सर्वथा अनुचित है। वैज्ञानिक समाजवाद के महान सिद्धांतों को अर्जक संघ के जातिवादी सोच के स्तर पर उतारने वाले लोग अपराध कर रहे हैं । जो लोग बिना समझे - बूझे हर चीज का विश्लेषण जाति के आधार पर करने में रुचि रखते हैं , असल में वे मार्क्सवाद - लेनिनवाद का ककहरा नहीं समझते। जिन लोगों ने स्वेच्छा से सामाजिक - राजनीतिक परिवर्तन के महान आन्दोलन से अपने भविष्य को जोड़ रखा है , उन्हें पहले कुछ क्रांतिकारी साहित्य का अध्ययन करना चाहिए और तब गंभीरता से क्रांतिकारी बदलाव के आन्दोलन में भाग लेना चाहिए। यह उनके राजनीतिक सेहत के लिए फायदेमंद होगा।
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