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Friday, 23 September 2022

संविधान और फर्जी...........

भारत के संविधान पर क्रांतिकारी कवि 'पाश' ने एक कविता लिखी थी. उनकी कविता में संविधान के प्रति रोष साफ झलकता है.

संविधान
यह पुस्‍तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्‍डक है
और एक-एक पन्‍ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु.

पाश की ये कविता कहती है कि अंधेरी कोठरी में मटर की पोटली खोजते वक्त सुबकते इंसान की आहें संविधान में नहीं दर्ज होती हैं. मत पढ़िए उसे. हथेलियों के गिट्ठे, पैरों के गुरखुलों का चुभता दर्द नहीं लिखा जाता संविधान में. मत पढ़िए उसे. सजल आंखों पर जब थप्पड़ पड़ता है तो दर्द और आंसू दोनों साथ छलकते हैं, सिस्टम के आगे हाथ जोड़कर खड़े उस बूढ़े की मजबूरी कोई नहीं लिखता उसमें. मत पढ़िए उसे.

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