कॉमरेड स्टालिन के बारे में आज कल फिर से पश्चिमी जगत की ओर से और उसके पिछलग्गू मुक्तचिंतकों और दिग्भ्रमित बुद्धिजीवियों की ओर से दुष्प्रचार की मुहिम चल रही है। जब पूरे विश्व की जनता आज पूंजीवाद की त्रासदियों से त्रस्त होकर विकल्प तलाश रही है तो पश्चिमी पूंजीवाद के लिए यह जरूरी है कि वह सोवियत समाजवाद की उपलब्धियों पर पर्दा डालने के लिए स्टालिन के तानाशाही आचरण को नमक मिर्च लगाकर पेश करें और चर्चा वहीं तक सीमित रहने दें। असल मुद्दा है कि स्टालिन ने व्यवहार में यह सिद्ध किया कि निजी संपत्ति को काफी हद तक समाप्त कर सार्वजनिक संपत्ति में बदला जा सकता है, कि देश की संपदा का उपयोग सबके लिए आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार देने के लिए किया जा सकता है, कि महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भारी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सकती है, कि हर भूमिहीन को भूमि मिल सकती है, कि कृषि का सामूहिकीकरण और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करके एक सशक्त जनपक्षीय अर्थव्यवस्था और समाज बनाया जा सकता है। यह सब करते हुए स्टालिन पश्चिमी पूंजीवादी लोकतंत्र की परिभाषाओं पर खरे नहीं उतरे। पर बात ये है कि ऊपर बताए गए काम क्या सही नहीं हैं। अगर हां, तो उन्होंने कुछ तानाशाही का इस्तेमाल किया गरीबों को हक देने और पूंजीपतियों को नियंत्रित करने के लिए, तो आज जो उनसे ज्यादा बुद्धिमान लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी और राजनेता हैं, वे वही सब काम लोकतांत्रिक तरीकों से कर के क्यों नहीं दिखा देते। अभी भी मौका है दिखा दें। सच तो यह है कि कोई भी पूंजीवादी लोकतंत्र इनमें से कोई भी सामाजिक आर्थिक उपलब्धि नहीं हासिल कर सका है। और यह सब उन्होंने तब किया जब पश्चिमी पूंजीवादी देशों ने सोवियत संघ की आर्थिक और सैनिक नाकेबंदी कर रखी थी, उनके अपने शासकीय ढांचे में उनके और हिटलर के एजेंट घुसपैठ किए हुए थे और स्टालिन के साथियों की हत्याएं कर रहे थे और साइबेरिया की जेलों में। भेज रहे थे। यह समाजवाद का पहला प्रयोग था इसमें नौकरशाहना गलतियां होनी लाजिमी थीं। अन्य वस्तुगत परिस्थितियों ने भी तानाशाही ढांचों को मजबूत किया। पर यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि पूंजीवादी लोकतंत्र वास्तव में शेष जनता पर पूंजीपति वर्ग की तानाशाही है। इसके उलट, समाजवादी लोकतंत्र में भी मजदूर वर्ग की तानाशाही के तत्व हो सकते हैं। हां , उसके साथ समाजवादी जनतंत्र के तत्वों को पोषित करना भी जरूरी है। इतिहास ने स्टालिन को यह करने का मौका नहीं बख्शा। पर अगर उनके नेतृत्व का सोवियत संघ नहीं होता तो समाजवाद का कोई सपना भी नहीं बचा होता, तीसरी दुनिया के देशों की आजादी भी स्थिर न बन पाई होती, दुनिया के हर देश में मजदूर आंदोलन और वामपंथ का उभार भी न आया होता, न हिटलर पराजित हुआ होता। दुनिया की तस्वीर बहुत अलग रही होती। पूरी बीसवीं सदी के विश्व इतिहास पर स्टालिन की एक अमिट सकारात्मक छाप है जो किसी के मिटाए न मिटेगी।
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