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Friday, 23 September 2022

दोस्तोयेव्स्की और "रजत रातें"



महान लेखक और चिन्तक दोस्तोयेव्स्की मुख्यतः अपने बड़े सामाजिक- दार्शनिक उपन्यासों के लिये ही विश्व-विख्यात है । किन्तु "अपराध और दण्ड" तथा "कारामाजोव बन्धु " के रचयिता के कृतित्व मे लघु उपन्यासों और कहानियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।

दोस्तोयेव्स्की की पहली रचना "दरिद्र नारायण" १८४६ में प्रकाशित हुई । तब से ७ वे दशक के मध्य तक लघु उपन्यास ही उनका प्रिय और लगभग एकमात्र साहित्यिक विधा बना रहा। एक के बाद एक लघु उपन्यास पढते हुए हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन सम्बन्धी विशद सामग्री को धीरे-धीरे पचाते हुए सृजनात्मक प्रौढ़ता प्राप्त करने तक उन्होंने कितना जटिल मार्ग तय किया ।

दोस्तोयेव्स्की के पहले लघु उपन्यास " दरिद्र नारायण " का प्रकाशन पाचवें दशक में साहित्य - जगत की एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना माना गया। इस छोटी-सी रचना में ही गोगोल की साहित्यिक प्रवृत्ति के मूलभूत विचार इतने स्पष्ट और पूर्ण रूप मे झलके कि बेलीन्स्की आत्म-विभोर हो उठे और उन्होंने दोस्तोयेव्स्की के महान लेखक होने की भविष्यवाणी की ।

योदोर मिखाईलोविच दोस्तोयेव्स्की का जन्म ११ नवम्बर १८२१ को मास्को मे हुआ। उनके पिता मास्को के मारीइन्स्की अस्पताल के एक मामूली से और निर्धन चिकित्सक थे। दोस्तोयेव्स्की का बचपन से ही प्रभावों और दुख मुसीबतों से पाला पड़ा, वे स्वभाव से अत्यधिक अनुभूतिशील व्यक्ति थे और छोटी उम्र में उन्हे नगर के दीन-हीनों की दुर्दशा का ज्ञान हो गया था। पीटर्सबर्ग के सैन्य इंजीनियरी . विद्यालय में उनकी शिक्षा के वर्ष जीवन के वास्तविक अनुभव की दृष्टि से बहुत



महत्वपूर्ण रहे। इस महानगर के सामाजिक वैषम्य ने तरुण दोस्तोयेव्स्की के हृदय पर अमिट छाप अंकित कर दी। इजीनियरी, विद्यालय की पढाई ख़त्म करने के बाद दोस्तोयेव्स्की ने सेना मे कोई अच्छा ओहदा पाने की इच्छा प्रकट नही की । साहित्य ने उन्हें अपनी और खींच लिया। उसी में उन्हें स्पष्ट रूप से अपना भविष्य दिखाई दिया । पुश्किन और गोगोल, बाल्जाक और शिल्लर के अत्यधिक श्रद्धालु दोस्तोयेव्स्की साहित्य को जीवन-बोध और मानवीय आत्मा को प्रभावित करने का महान साधन मानते थे । वे सुखी और श्रेष्ठ मानव की कल्पना करते थे, किन्तु अपने चारो ओर निर्दयता और अधिकारहीनता, पीड़ितो के दुखभरे आंसू और अत्यधिक, लगभग कल्पनातीत गरीबी पाते थे। दोस्तोयेव्स्की के पहले बड़े नगर के इन मामूली और बदकिस्मत लोगो की दुर्दशा का किसी ने भी ऐसा करुण चित्र प्रस्तुत नही किया था ।

'दरिद्र नारायण', - यह एक लघु उपन्यास का नाम ही नही, उससे कही "" बढ़कर है, दोस्तोयेव्स्की ने अनेक वर्षों तक के अपने साहित्य-सृजन के मुख्य " विषय के बारे मे उक्त मत प्रकट किया था। दीनो और भाग्यहीनों की स्थायी चिन्ता उन्हे सदा बेचैन किये रही और यही शाश्वत बेचैनी तथा सत्य की यही अन्तहीन और यातनापूर्ण खोज ही शायद उनकी प्रतिभा का सब से जोरदार पहलू है ।

पाचवे दशक के अन्त में दोस्तोयेव्स्की ने नये विषय की ओर ध्यान दिया। उन्होने एक गरीब बुद्धिजीवी, एक स्वप्नदर्शी, उच्च मानसिक और बौद्धिक स्तर के एक  नायक की रचना की। पीटर्सबर्ग का बुद्धिजीवी यदि धनी और कुलीन नही था, ' निर्धनता और निपट एकाकीपन ही उसका भाग्य होते थे। दोस्तोयेव्स्की के चरित्र चित्रण के अनुसार ऐसा व्यक्ति दयालु, किन्तु दुर्बल है, वह कठोर वास्तविकता से नाता तोड़कर कल्पना और सपनो की दुनिया में जा बसता है। " रजत राते " (१८४८) का नायक यह स्वीकार करता हुआ कहता है- "मैं स्वप्नदर्शी हूं । मेरा वास्तविक जीवन बहुत कम है।" धीरे-धीरे वह तो बातचीत करना भी भूल जाता है और बात करता है तो इतने अधिक "सुन्दर" ढंग से मानो किताब लिख रहा हो । यदि कोई व्यक्ति हमेशा अकेला रहा हो, किसी से भी उसने कभी कोई बातचीत न की हो और यदि उसकी अपनी कोई "कहानी" भी न हो, तो इसमें हैरानी की बात ही कौन-सी है! इसके साथ ही स्वप्नदर्शी प्रतिभाशाली और चिन्तनशील व्यक्ति है - लगभग लेखक की शैली में ही उसके मुंह से कहानी कहलवायी जाती है। स्वप्नदर्शी की चेतना में कल्पना और वास्तविकता घुलमिल जाती है, उसके जीवन


मे रजत रातो की शीतत रोशनी सूरज के प्रखर प्रकाश का स्थान लेती है । जितनी जल्दी से रजत रात बीतती है, उसी तेजी से स्वप्नदर्शी की अल्पकालीन खुशी और जीवन के साथ उसके वास्तविक सम्पर्क का भी अन्त हो जाता है। एक के बाद एक चार रातें झलक दिखाकर गायब हो जाती है। लघु उपन्यास में भी इन्ही के अनुसार चार परिच्छेद है - "पहली रात ", 'दूसरी रात "... " "... और फिर सुबह हो गयी। स्वप्नदर्शी कहता है-" सुबह मेरी रातों का अंत बनी। दिन बुरा था। पानी बरस रहा था और मेरी खिड़की के शीशे पर उदासी भरी टपटप हो रही थी। मेरे छोटे-से कमरे में अंधेरा था, बाहर बादल छाये हुए थे।" प्रकृति-वर्णन बहुत ही बारीकी से नायक की मन स्थिति को व्यक्त करता कहानी कहनेवाला खुद भी कल्पना की उड़ानें भरनेवाला रोमानी व्यक्ति है और प्रकृति को अपनी ही नज़र से देखता है - " बहुत ही प्यारी रात थी, ऐसी रात, जो केवल तभी हो सकती है, जब हम जवान होते हैं, कृपालु पाठक।" स्वप्नदर्शी मन से कवि है- उसके लिये किसी अपरिचित के चेहरे से ही उसके चरित्र की कल्पना करना कुछ कठिन नही है, उसकी तो घरों से भी जान-पहचान है, वह उनके भाग्यों से परिचित है, उनकी "आवाजों" का अन्तर जानता है वह खुद भी तो कवि बनने का सपना देखता है, जो शुरू में अज्ञात रहता है मगर बाद मे ख्याति के शिखर पर पहुंच जाता है।

दोस्तोयेव्स्की की शक्ति इस बात में निहित है कि " रजत राते" के नायक के प्रति पूरी सहानुभूति रखते हुए भी उन्होने उसकी दुर्बलताओं को उभारा है । वास्तविकता के सम्पर्क के क्षण ही स्वप्नदर्शी के सर्वाधिक प्रिय क्षण थे । यदि गोगोल के स्वप्नदर्शी चित्रकार पिस्कार्योव ( " नेव्स्की प्रोस्पेक्त ") के लिये जीवन के साथ पहला ही टकराव घातक सिद्ध हुआ, क्योकि वास्तविकता ने उसकी कल्पना के पंख तोड़ डाले, तो "रजत राते" के नायक ने जीवन में ही वह कुछ पाया, जो सर्वश्रेष्ठ है, जो कल्पना से बढ़-चढ़कर है । इसी वास्तविक जीवन के सामने कल्पना की सभी उडान, सभी सपनों का सदा के लिये रंग फीका पड़ गया। "रजत राते" के उदासी भरे और विषादपूर्ण अन्त का आशय यह है कि सपने पालकर और अधिक जीना सम्भव नही और प्रियतमा के जाने से वास्तविक सुख का महल भी गिर चुका है ।

... दोस्तोयेव्स्की की साहित्यिक गतिविधि का सिलसिला अचानक ही टूट गया। पेट्राशेववादियों के क्रान्तिकारी मण्डल पर चलाये गये मुकदमे के सम्बन्ध में उन्हें २३ अप्रैल १८४९ को गिरफ़्तार करके पीटर पाल किले में बन्द कर दिया गया। दोस्तोयेव्स्की ने सेम्योनोव्स्की मैदान में मृत्यु दण्ड के क्रूर नाटक, कठोर



श्रम-दण्ड और साइवेरिया में निर्वासन के भयानक वर्षों को साहसपूर्ण सहन किया।

निर्वासनकाल के लम्बे मौन के बाद १८५६ में, सामाजिक उत्थान के नये युग में, उन्होंने फिर से अपनी कलम सम्भाली। किन्तु वे निर्वासन से पहले जिस प्रेरणा से अनुप्राणित थे, उसी को संजोये हुए सामाजिक और साहित्यिक जीवन की ओर नही लौटे। वे संघर्ष-पथ पर बढते हुए वास्तविकता को बदलने, उसे बेहतर बनाने की सम्भावना में अपना विश्वास खो चुके थे। मानवजाति के दुःखी-कष्टो को अपनी आत्मा में उतारकर उन्होंने उनकी अन्तहीनता के आगे घुटने टेक दिये ।

लेखक के पीटर्सवर्ग लौटने पर उनके बड़े उपन्यास "अपमानित और अवमानित" (१८६१), "अपराध और दण्ड " (१८६६), "बुद्ध" " (१८६८), "भूत" (१८७१- १८७२), "तरुण" (१८७५), "कारामाजोव वन्धु " (१८७६ - १८८० ) प्रकाश में आये।

इन उपन्यासों ने दोस्तोयेव्स्की को रूमी और विश्वसाहित्य को एक महानतम उपन्यासकार बना दिया। उन्होने दार्शनिक विचारों से ओतप्रोत और मनोवैज्ञानिक गहराइयो को छूनेवाले विशेष ढंग के उपन्यास रचे, जो मानवीय आत्मा के 'अनुसन्धान" का विलक्षण रूप धारण कर लेते है । अपने उपन्यासों में वे बड़े उत्साह  और अथक रूप से सत्य की खोज करते रहे। " मानव के प्रति पीड़ा " की वह भावना उनमे निरंतर बनी रही जिसे प्रगतिशील आलोचको ने उनकी प्रारम्भिक रचनाओ में ही  स्पष्टतः भाप लिया था। उनका समूचा कृतित्व इसी पीड़ा, तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था से मानवतावादी लेखक के अत्यधिक असन्तोष, सभी लोगो के भाग्य के लिये प्रत्येक के उत्तरदायित्व की उच्च भावना की चेतना, बेचैनीभरे और पथ खोजते हुए विचारों से भरपूर है ।

दोस्तोयेव्स्की का देहान्त ९ फ़रवरी १८८१ को पीटर्सवर्ग में हुआ। लेखक के रूप में दोस्तोयेव्स्की का मूल्यांकन करते हुए म० गोर्की ने लिखा है - "दोस्तोयेव्स्की की प्रतिभासम्पन्नता निर्विवाद है, अभिव्यजना शक्ति की दृष्टि से शायद, केवल शेक्सपीयर से ही उनकी तुलना की जा सकती है।"

त० रोजेनब्ल्यूम

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