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Monday, 26 September 2022

पाप और विज्ञान - प्रस्तावना



किसी भी आधुनिक नगर में सामाजिक परिपक्वता प्राप्त करने वाला कोई भी इन्सान कह सकता है कि अपराध, पाप और विज्ञान का मतलब तो खुद ही जाहिर है। हममें से अधिकतर, कम-से-कम हिन्दुस्तान के रहने वाले लोग जानते हैं कि अलग-अलग धर्मों में पाप की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं। एक मुसलमान के लिए शराब पीना पाप है। एक हिन्दू के लिए गाय का माँस खाना पाप है। पर, एक ईसाई ये दोनों ही काम रत्ती भर आत्मसन्ताप के बिना कर सकता है। पाप की ये अलग-अलग व्याख्याएँ समाज के नियन्त्रण के लिए काफी सिद्ध नहीं हुईं। इसलिए, कुछ कामों को जिन्हें अपराध कहा जाता है- रोकने के लिए कानूनी कार्रवाइयाँ की जाती हैं। इन कामों के लिए सजा देने का अधिकार पुलिस और अदालतों को दिया जाता है। सज़ा कारगर हो, इसके लिए जरूरी होता है कि अपराध का पता लगाया जाये और अपराधी के खिलाफ कुछ कानूनी कार्रवाई की जाये। पर अधिकतर मामलों में यह साबित करना मुश्किल होता है कि अब पाप का फल मिल गया है। इसलिए, यह कहकर सन्तोष कर लिया जाता है कि पापी अपने पापों का फल दूसरी दुनिया में या अगले जन्म में भोगेगा। पर, विज्ञान के अन्तर्गत नतीजों की नाप-जोख सावधानी से किये गये प्रयोगों और अनुभवों के तर्कपूर्ण भौतिकवादी विश्लेषण के आधार पर ही होती है। इसमें आध्यात्मिक और अदालती नियमों का समावेश नहीं। ज़हर की एक पुड़िया चाट जाने वाला इन्सान मरेगा ज़रूर, भले ही यह काम क़ानूनी हो या न हो। शरीर के अन्दर किसी रोग के कीटाणुओं के उचित मात्रा में पहुँच जाने पर वह रोग होगा जरूर, भले ही भगवान की इच्छा हो या न हो। साथ ही, रोग का निश्चित रूप से घटना - बढ़ना भी जारी रहेगा।


अगर किसी काम के सम्बन्ध में इन तीनों (धार्मिक, कानूनी और वैज्ञानिक - अ.) नज़रियों से हम एक ही नतीजे पर पहुँचे, यानी उस काम को


प्रस्तावना / 7


करने से रोग हो जाने की भारी सम्भावना हो, साथ ही वह अपराध भी हो, तो समाज उस ख़तरनाक बुराई को उखाड़ फेंकने की भरसक कोशिश करता दिखायी पड़ता है। यौन-सम्बन्धों तथा उससे सम्बन्धित बातों तलाक़ गुप्त रोग, - वेश्यावृत्ति के नियन्त्रण के बारे में तो बात ऐसी है ही। उसी तरह शराबखोरी तथा इन्सान, उसके परिवार और समाज पर मशीनी युग में बढ़ती दुर्घटनाओं के रूप में प्रकट होने वाले इसके प्रभाव के नियन्त्रण के बारे में भी बात ऐसी ही है।


अभी हाल में मौजूदा ज़माने की दो एकदम अलग-अलग सभ्यताओं ने - जो अपने-अपने ढंग की आदर्श सभ्यताएँ हैं इन बुराइयों को उखाड़ फेंकने के - लिए कुछ तरीके अपनाये हैं। डाइसन कार्टर ने उनकी सच्ची और निष्पक्ष रिपोर्ट पेश की है। कोई इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि अमेरिका में विज्ञान का महत्वपूर्ण विकास हुआ है। पर कोई इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकता कि वहीं पुलिस - शक्ति का उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण विकास हुआ है। अमेरिका के सभी धार्मिक दल ऐसे मसलों पर अपनी पूरी ताक़त जुटा देते हैं। फिर भी, वहाँ तलाक़ों की संख्या दुनिया भर में करीब-करीब सबसे ऊँची है। " "सुधार" के राजनीतिक आन्दोलनों, पुलिस की विशेष कार्रवाइयों और गिरजाघरों में लगातार धर्मोपदेश के बावजूद अमेरिका में गुप्त रोग, वेश्यावृत्ति और शराबखोरी अपनी-अपनी जगह पर ज्यों-की-त्यों बरकरार हैं। सोवियत रूस एक नयी समाज-व्यवस्था का पहला और सबसे बड़ा प्रतिनिधि है । वहाँ इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि वर्तमान समाज की ये खौफ़नाक वसीयतें पूरे जोर-शोर से भड़क उठें। क्रान्ति ने संगठित धर्म-व्यवस्था को ख़त्म कर दिया था। पहले के अधिकांश प्रतिबन्ध हटा दिये गये थे। वेश्या को अपराधी मानकर दण्ड नहीं दिया जाता था। तलाक़ बहुत आसान हो गया था। सरकार की ओर से सस्ती शराब का प्रबन्ध कर दिया गया था। इनके साथ-साथ, क्रान्ति के बाद विदेशियों के आक्रमणों और उत्पादन की बढ़ती हुई दर से उत्पन्न कठिनाइयों के बारे में भी सोचिए । पूँजीवादी तर्क - पद्धति आपको इसी नतीजे पर पहुँचायेगी कि अब वहाँ व्यभिचार का खूब बोलबाला होगा। पर, हम देखते यह हैं कि सोवियत रूस में वेश्यावृत्ति एकदम ख़त्म हो गयी है। तलाक़ों की दर को घटाकर न्यूनतम स्तर पर ला दिया गया है। जो देश कभी किसानों और मज़दूरों की नशेबाज़ी से बदनाम था, वहाँ अब शराबखोरी का क़रीब क़रीब लोप हो चुका है।


ये परिणाम, जो बड़े विचित्र और असंगत प्रतीत होते हैं, सोवियत रूस में वैज्ञानिक अनुसन्धान के द्वारा इन समस्याओं की जड़ों का पता लगाकर ही प्राप्त किये गये थे। पूँजीवादी देशों में पुलिस वाला जिस सवाल को उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता, पादरी जिस सवाल को उठा नहीं सकता, वैज्ञानिक जिस सवाल


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को उठाता ही नहीं, वह यह है- आखिर इन बुराइयों की जड़ क्या है? सोवियत रूस का उत्तर है कि कुछ वर्ग इन बुराइयों से बेशुमार मुनाफ़े कमाते हैं, इसलिए ये मौजूद हैं। इस तरह सामाजिक बुराइयों से मुनाफा कमाना, सामाजिक बुराइयों से लाभ उठाना, जनता के बहुसंख्यक भाग के आम शोषण का ही नतीजा है। इससे जनता का बहुत बड़ा भाग इनकी तरफ झुकता है । इसीलिए ये फैलती हैं। जनता के आम शोषण का अन्त होने से ही, सोवियत रूस में इनके मूल कारणों का भी अन्त हुआ है। जो इनसे मुनाफा कमाते थे उनको कड़ा दण्ड दिया गया, उन लोगों को नहीं जो इनके शिकार हुए थे; अर्थात चकले चलाने वालों को, वेश्याओं को नहीं; गैर-कानूनी तौर पर शराब बनाने वालों को, शराब पीने वालों को नहीं। साथ ही, सोवियत रूस में काम पाने का अधिकार हर नागरिक का अधिकार बना दिया गया । हरेक के लिए अच्छा रहन-सहन मुमकिन बना दिया गया। नयी आज़ादी का असर आसानी से दिखायी देने लगा। कानून, पार्टी के प्रचार और जनता की वैज्ञानिक शिक्षा का सहारा लेना सरल बन गया। जनता को पूरी तरह शिक्षित बनाने का प्रबन्ध किया गया। सस्ती व अच्छी पठन सामग्री का प्रबन्ध किया गया। सभी के लिए सुन्दर संगीत, अच्छे से अच्छे सिनेमा, संस्कृति पार्कों और खेलकूद के मैदानों द्वारा मनोरंजन और थकान मिटाने के भिन्न-भिन्न साधनों की व्यवस्था कर दी गयी। पहले की सभी बुराइयाँ छू-मन्तर हो गयीं, क्योंकि अब उनके टिकने की कोई वजह नहीं रह गयी थी। मनुष्य का जीवन पहली बार रहने के लायक़ सुखमय जीवन बना। जीवन से कतराने और भागने की अब कोई ज़रूरत नहीं रह गयी।


भारत में, हमारे सामने भी यही समस्याएँ हैं। भारत में उन्हें दूर करने के लिए अमेरीकी तरीके अपनाये जा रहे हैं; उदाहरण के लिए शराबबन्दी । किन्तु देशवासियों से जीवन की आवश्यक चीजें छीनकर मुनाफाखोर उनके जीवन को तिल-तिल घटाते रहने को तैयार हैं। और यह काम वह समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के एक सम्मान प्राप्त सदस्य की हैसियत से करता है। उत्पीड़ितों के क्रोध से पुलिस उसकी और उसके मुनाफों की रक्षा करती है। भुखमरी, गन्दी बस्तियों और शिक्षा की कमी से आम जनता को कैसी हानि पहुँच रही है, इसे तो वैज्ञानिक भुला देता है। पर वह सुझावों, डॉक्टरी मदद, यहाँ तक की प्रशंसा के द्वारा पूँजीपति की सहायता के लिए दौड़ पड़ता है, क्योंकि धनी के सिवा अच्छी रकमें दे ही कौन सकता है? जिन लोगों ने भारी मुनाफ़े कमाये हैं, उनके अलावा खोजबीन के लिए रकमें खर्च कर ही कौन सकता है? जहाँ तक धर्म की बात है, वह सिर्फ इतनी घोषणा कर देता है कि पीड़ितों को अगले किसी जन्म में उनका हक मिल जायेगा। कुछ और तसल्ली देना हुई, तो धर्म कह देता है : ये


प्रस्तावना / 9


लोग ज़रूर ही अपने किसी पिछले जन्म के पापों का फल भोग रहे हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि उनकी तरफ़ नज़र ही न उठायी जाये, या कहिये, उनका और भी डटकर शोषण किया जाये। अपनी शुभेच्छाओं के बावजूद क्रान्ति के तमाम फलों को सुधारक लोग, बिना क्रान्ति किये ही हासिल कर लेना चाहते


प्रोफेसर डी. डी. कोसाम्बी


पूना


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