क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र; फ़रीदाबाद इकाई
मज़दूर जब भी जागा है, इतिहास ने करवट बदली है
साथियो, मोदी सरकार मज़दूरों से कितना प्रेम करती है, उनका कैसा 'सशक्तिकरण' कर रही है, इस बात का एक और सबूत आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है!! सरकारी संस्थान 'राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB)' की, 29 अगस्त को प्रकाशित वर्ष 2021 की रिपोर्ट हमें बताती है कि 2021 में कुल 1,64,033 देशवासी, जीवन के कठिन संघर्ष की जंग हार गए और आत्महत्या करने को मज़बूर हुए. इनमें 42,004 औद्योगिक मज़दूर हैं, जो आत्महत्या करने वाले कुल लोगों का 25.06% है. इसके आलावा कृषि क्षेत्र में कुल 10,881 लोगों को लगा, कि इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी. इनमें भी 5,563 खेत मज़दूर और 5,318 छोटे किसान थे, मतलब वे भी मज़दूर ज्यादा और किसान कम थे. इस तरह, बेतहाशा मंहगाई, बे-रोज़गारी और आगे उम्मीद की कोई किरण नज़र ना आने पर, कुल 52,885 मज़दूर, खुद अपनी जीवन-लीला समाप्त करने को मज़बूर हुए. जिस देश में हर रोज़ 145 मज़दूर आत्महत्या कर रहे हों, उस देश का प्रधानमंत्री कहता फिरता है कि हम 'अमृत काल' में प्रवेश कर गए हैं, भारत विश्व गुरु बन गया है!! शर्म उन्हें मगर नहीं आती!! उनके ऐसा कहने की भी, हालाँकि, वज़ह मौजूद है. 2014 में जब, 'हर एक के खाते में 15 लाख जमा, साल में 2 करोड़ लोगों को रोज़गार, जहाँ झुग्गी वहीँ सबको पक्का मकान' आदि रसीले वादों और हिन्दू कट्टरवादी राष्ट्रवाद के नशे में झूमते हुए, लोगों ने, मोदी जी को सत्ता सौंपी थी तब, उनका सबसे लाड़ला कॉर्पोरेट धन-पशु, गौतम अडानी, दुनिया के सबसे अमीरों की लिस्ट में, कुल $2.8 बिलियन की सम्पदा के साथ 609 वें नंबर पर था, जो आज $137.4 बिलियन की सम्पदा के साथ दुनिया में तीसरे नंबर पर आ गया है!! अभी अगले चुनाव को डेढ़ साल बाक़ी है, तब तक मोदी जी, उसे दुनिया का नंबर 1 अमीर बना देंगे, भले करोड़ों लोग भूख से कराह रहे हों, लाखों ख़ुदकशी को मज़बूर हो रहे हों. मुट्ठीभर धन-पशुओं के लिए ये सही में 'अमृत काल' है. हाँ, 125 करोड़ मेहनतक़श देशवासियों के लिए 'मृत काल' है.
देश के मेहनतक़शों, मज़दूरों पर मोदी सरकार ने चौतरफ़ा हमला बोला हुआ है.
पहला घातक हमला है-- सैकड़ों सालों की क़ुर्बानियों की बदौलत, मज़दूरों ने जो सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने के 44 अधिकार हांसिल किए थे, उन्हें एक झटके में छीनकर, उनके हाथ में 4 लेबर कोड का झुनझुना थमा देना. सरमाएदार वर्ग की लम्बे समय से मांग थी, कि 'श्रम सुधार' किए जाएँ, जिनका असल मायने है, उन्हें मज़दूरों की हड्डियाँ तक चिचोड़ने की खुली छूट मिले. मोदी सरकार ने, देश के विकराल होते जा रहे धन्ना सेठों को दिया वचन निभाते हुए, सितम्बर 2020 में 'श्रम सुधार बिल' पास करा लिया. ये बिल लागू हो जाने पर, मज़दूरों के काम के निश्चित घंटे नहीं रहेंगे, मालिक निश्चित अवधि के लिए मज़दूरों को काम पर ले सकेंगे, ज़रूरत ना रहने पर, जब चाहे, काम से निकाल सकेंगे, यूनियन बनाना गैरकानूनी होगा, महिलाओं से रात की पाली में भी काम लिया जा सकेगा, हर तरफ ठेका व्यवस्था का बोलबाला हो जाएगा. यहाँ तक कि, हर वक़्त अभाव में जीने वाला मज़दूर, अगर हारी-बीमारी में मालिक से कुछ रक़म अग्रिम वेतन के रूप में ले लेता है तो मालिक उस पर मनमाना ब्याज भी ले सकेगा. अब तक इस राशि पर कोई भी ब्याज नहीं देना होता था. मज़दूरों को कुछ पैसे अडवांस देकर ज़िन्दगी भर उन्हें बंधुआ बनाने वाला बर्बर युग फिर से आने की दस्तक दे रहा है.
दूसरा घातक हमला है-- सभी मज़दूर बस्तियों को योजनाबद्ध तरीक़े से उजाड़ा जाना. भले वे 50 साल से वहाँ रह रहे हों, उनके पास वोटिंग कार्ड हों, आधार कार्ड हों, उनकी बस्तियों को 'अवैध' बताकर, वहाँ दैत्याकार बुलडोज़रों का काफ़िला पहुँच जाता है, और देखते-देखते उनके घर खाक़ में मिल जाते हैं. पिछले साल जुलाई महीने की बरसात में, कोविद महामारी के बीच, खोरी बस्ती के 15,000 घर तोड़ डाले गए, लाखों लोगों, महिलाओं, बच्चों को पुलिस ज़बरदस्ती खींचकर बाहर निकालती गई और उनके घर ढहते गए. हालाँकि उसी अरावली पर बनी, अमीरों की ऐशगाहें बिलकुल उसी तरह जगमगा रही हैं. उसके बाद भी फरीदाबाद की कई मज़दूर बस्तियां ढहा दी गईं और बाक़ी बची लगभग सभी पर उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है. अगर कहीं संगठित विरोध होता है, तो एक सोची-समझी रणनीति के तहत कुछ दिन पीछे हट जाते हैं, लेकिन फिर मौका ताड़कर हमला बोल दिया जाता है. अकेले दिल्ली में 200 से ज्यादा झुग्गी बस्तियों को, मतलब दिल्ली की लगभग आधी आबादी को उजाड़ने के लिए सरकार रणनीति बना रही है. इस सम्बन्ध में स्थगन आदेश के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA), राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में 63 लाख घरों को उजाड़ने की चेतावनी दे चुका है, लेकिन किसी भी पुनर्वास योजना का कहीं कोई ज़िक्र नहीं. दूसरी ओर, दिल्ली और आस-पास के शहरों में मिलाकर लाखों फ्लैट खाली पड़े हैं. '2022 तक जहाँ झुग्गी वहाँ पक्का मकान' चीख़-चीख़ कर किया वादा सबको याद है, लेकिन मोदी सरकार भूल गई. हाँ, 40,000 हज़ार करोड़ से बना विलासिता का भव्य प्रतीक, 'ग्रांड विस्टा प्रोजेक्ट' पूरा है, और मोदी जी के लिए 8500 करोड़ रु का आलिशान विमान भी आ चुका है. 7 अप्रैल के ट्वीट में प्रधानमंत्री बताते हैं, कि उनकी सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत 3.13 लाख करोड़ रु खर्च कर, गरीबों को 3 करोड़ से ज्यादा पक्के घर बनाकर दे दिए हैं. ये अदृश्य घर कहाँ हैं, ये बताने की ज़हमत उठाने की भला उन्हें क्या ज़रूरत!! फासीवादी शासक झूट बोलने में शर्माते नहीं बल्कि गौरवान्वित होते हैं. हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबेल का मूल मन्त्र था, 'झूट को बार-बार बोला जाए तो लोग उसे सच मान लेते हैं'.
तीसरा घातक हमला है—मौजूदा मरणासन्न पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के जान-लेवा आर्थिक संकट का सारा बोझ गरीबों के कन्धों पर डालते जाना. ना सिर्फ़ सभी सरकारी इदारे कौड़ियों के भाव देश के लुटेरे धन्ना सेठों को दिए जा रहे हैं, बल्कि उनके 10 लाख करोड़ के क़र्ज़, मोदी सरकार पिछले 4 सालों में ही माफ़ कर चुकी है. 2014 में जब मोदी सत्तासीन हुए थे, तब बड़े पूंजीपतियों पर लगने वाले, 'कॉरपोरेट टैक्स' की दर 34.5% थी, जिसे क्रमबद्ध तरीक़े से घटाकर 24.7% कर दिया गया, कुछ उद्योगों पर तो यह मात्र 15% है. दूसरी तरफ़, गरीबों के जिंदा रहने के लिए आवश्यक पदार्थ जैसे आटा, अनाज, छाछ, दही, गुड आदि पर भी जीएसटी लगा दिया गया है. साथ ही रसोई में इस्तेमाल होने वाले अनेक पदार्थों पर जीएसटी 12% से बढाकर 18% कर दिया गया है. रसोई गैस आज अधिकतर मज़दूरों के बजट से बाहर हो चुकी है. इन सब का परिणाम है, कि एक छोर पर जहाँ भुखमरी-ग़रीबी-कंगाली- बेरोज़गारी का महासागर बनता जा रहा है, 80 करोड़ लोग ज़रूरी खाद्य पदार्थ खरीदने के लायक भी नहीं बचे, 'विश्व भूख इंडेक्स' के 116 देशों में देश, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी नीचे 101 वें नंबर पर पहुँचकर अफ़गानिस्तान, कांगो, यमन और सोमालिया के पास पहुँच गया है, वहीँ, दूसरी ओर, मुट्ठीभर अमीरों की दौलत के पहाड़ ऊँचे होते जा रहे हैं. विश्व साम्राज्यवादी लूट में उनका हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है.
चौथा घातक हमला-- अभूतपूर्व बेरोज़गारी ने मज़दूरी की दर को एकदम तलहटी में पहुंचा दिया है. भूख से मरने से बचने के लिए, मज़दूर, किसी भी मज़दूरी पर काम करने को राज़ी होने को मज़बूर है. शिकागो के अमर शहीदों की कुर्बानियों की बदौलत हांसिल हुए '8 घंटे के काम के दिन' के अधिकार को तो मज़दूर भूल ही चुके हैं. जब तक मालिक चाहे, तब तक काम करना है चाहे मूर्छित होकर ही क्यों ना गिर पड़ें. उसके बाद भी मज़दूर, शाम को काम ख़त्म करने के बाद घर जाते वक़्त घबराया हुआ होता है, कि कहीं मालिक ये ना बोल दे कि 'सुन, कल से तुझे काम पर आने की ज़रूरत नहीं'!!
मज़दूर वर्ग ही आज का मुक्तिदाता और आने वाले वक़्त का शासक है
प्रथम इंटरनेशनल के संविधान में, विश्व सर्वहारा के महान नेता कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स द्वारा दी गई एक बुनियादी सीख मज़दूरों को हमेशा याद रखना चाहिए, "मज़दूरों की मुक्ति की लड़ाई मज़दूर वर्ग ने ख़ुद ही जीतनी है..". मज़दूरों का हाथ लगे बगैर कोई भी उत्पादन/ निर्माण नहीं हो सकता, भले परियोजना में कितनी भी जड़ पूंजी क्यों ना लगी हो. मज़दूर और मेहनतक़श किसान ही किसी देश को बना या मिटा सकते हैं. उनकी श्रम शक्ति की चोरी से ही ना सिर्फ़ मालिकों के पूंजी के पहाड़ खड़े होते हैं, बल्कि इस लूट को सुचारू और संरक्षित रखने वाला, उसे कुचलने वाला, ये सारा भारी भरकम शासन तंत्र भी उसी का एक हिस्सा खाकर मोटाता जाता है. मोदी सरकार कौन सी भाषा समझती है, देश के जांबाज़ किसान, हज़ारों कुर्बानियों से हांसिल, ये सीख देश को दे ही चुके हैं. नया क़ानून बनाकर, हाथ जोड़कर माफ़ी मांगते हुए, मोदी सरकार को काले कृषि कानून हटाने पड़े. किसानों के हाथों मिली उसी हार का नतीज़ा है कि लेबर कोड अभी तक लागू नहीं हुए हैं. मोदी सरकार फूंक-फूंक कर क़दम बढ़ा रही है, कहीं ऐसा ना हो कि 'लेबर कोड बिल' का भी कृषि बिलों जैसा ही हाल हो जाए. मज़दूरों की मार किसानों से ज्यादा चोट पहुंचाती है, ये बात शासक वर्ग भी अच्छी तरह जानता है. मज़दूरों के पास तो इस ज़ालिम पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था ने कुछ भी नहीं छोड़ा. मज़दूरों के पास खोने को अक्षरसह कुछ नहीं बचा, सिवा गंदे नाले-सीवर के नज़दीक, मक्खी-मच्छरों के बीच ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी जीने के. उनकी वे झोंपड़ियाँ भी 'अवैध' हैं, जहाँ शौच तक की व्यवस्था नहीं, जहाँ उनकी बहन-बेटियां खुले में शौच करने जाने को मज़बूर हैं, और कई बार, आज़ाद नगर की गुड़िया की तरह, उनके लहूलुहान मृत शरीर ही वापस घर लौटते हैं. मज़दूर वर्ग के कन्धों पर ना सिर्फ़ अपनी मुक्ति की ज़िम्मेदारी है, शासन तंत्र के ज़ालिम पंजों से अपने असीम कुर्बानियों से हांसिल 44 अधिकारों को बचाना है, लेबर कोड रद्द कराने हैं, संवैधानिक-जनवादी अधिकार लुटने से बचाने हैं, बल्कि सारे समाज को इस अँधेरी फासीवादी गुफा से आज़ाद कराने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी भी उन्हीं के कन्धों पर है. 'संघर्ष' मज़दूरों की ज़िन्दगी का दूसरा नाम है, लेकिन उसकी आवश्यक शर्त है; मज़दूरों का अपना क्रांतिकारी संगठन और उनका अटूट एका. मज़दूर साथियो, शोषण-दमन की इस चक्की से हार मानकर, आत्महत्या करना बुजदिली है. हालात का दिलेरी से मुकाबला करने और हार ना मानने की ज़िद, मुसीबतों के इस पहाड़ को तोड़कर, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी. वर्ग-चेतना आधारित उनकी मुक्ति की तहरीक, आगे मेहनतक़श किसानों की तहरीक की धारा से मिलकर एक अजेय शक्ति बनेगी, जो श्रम के निर्मम शोषण और उसके साथ ही जातिगत दमन, धार्मिक भेदभाव, अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बढ़ते जा रहे अत्याचार, पुरुषवादी-ब्राह्मणवादी सोच द्वारा महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना डालने वाली, सड़ती जा रही इस पूंजीवादी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंकेगी और उसकी जगह शोषण-मुक्त, सच्ची बराबरी और श्रम और इंसानियत का सम्मान करने वाली, समाजवादी व्यवस्था का लाल सूरज उगेगा.
इसी वस्तुगत ज़रूरत ने, मज़दूरों की क्रांतिकारी तहरीक के अपने औज़ार "क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा' के विचार को जन्म दिया है. मज़दूरों की इस तहरीक को बुलंद करने के लिए और नेतृत्वकारी सांगठनिक टीम का गठन करने के लिए एक महत्वपूर्ण 'मज़दूर सभा/ प्रस्थापना सभा' आयोजित की जा रही है.
हम फरीदाबाद/एनसीआर के सभी मज़दूरों और मज़दूर वर्ग से प्रतिबद्धता रखने वाले नागरिकों से, पूरी शिद्दत और सक्रियता से, इस सभा में शरीक होने और इस तहरीक को बुलंद करने का तहे दिल से आह्वान कर रहे हैं.
'वो सुबह हमीं से आएगी'
इंक़लाब जिंदाबाद मज़दूर एकता जिंदाबाद दुनिया के मज़दूरो एक हो
मज़दूर सभा: रविवार दिनांक 25 सितम्बर 2022, अपरान्ह 3 बजे, स्थान- सामुदायिक भवन सेक्टर 24 मुजेसर थाने के पास,
नज़दीक मेट्रो स्टेशन मुजेसर
संपर्क: सत्यवीर सिंह 8383841789; नरेश 9868483444
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सत्यवीर सिंह तथा नरेश द्वारा 1917, आज़ाद नगर, सेक्टर 24, फरीदाबाद-121005, हरियाणा से प्रकाशित
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