Total Pageviews

Saturday, 3 September 2022

"डिक्शनरी"



इंडिया में आने से पहले अंग्रेज पूरब के देशों जैसे थाइलैंड, इंडोनेशिया, 

मलेशिया, आदि जगहों में जडें जमा चुके थे। ब्रिटेन से वहां जाने वालों में केवल युवा उम्र के अंग्रेज पुरुष होते थे। वो पुरुष वहां की किसी एक औरत को अपने साथ रहने को नियुक्त करते थे, जिसको "डिक्शनरी" कहा जाता था। 

वो डिक्शनरी उनके लिए एक गाइड का कार्य भी करती थी और किराए की औरत का भी जिसका अर्थ आप भली-भांति जानते ही होंगे। 
उस डिक्शनरी से जो बच्चे पैदा होते थे, समाज उनको नहीं अपनाता था इसलिए उन्हें मिशनरियों को सौंप दिया जाता था। जहां वो अंग्रेजी और लोकल  दोनों भाषाओं को सीख जाते थे। 
17वीं शताब्दी में जब अंग्रेज इंडिया में भी जड़ जमाने लगे तो उन डिक्शनरियों की औलादों को भी अपने साथ लाए क्योंकि वो अंग्रेजी के जानकार हो चुके थे, जो द्विभाषीया के कामों मे निपुण होते थे।
अंग्रेजों के साथ साथ आये वो "डिक्शनरी की औलादें" मुम्बई, बर्मा, उड़ीसा और गुजरात के बंदरगाहों पर बस गए और अंग्रेजों के काम मे सहायता करने लगे।
अंग्रेजों ने इनको एक नया नाम दिया था ऐंगलोएसियॉन और इंडिया आने के बाद इन्हें एंगलोइंडियन के नाम से पुकार जाने लगा।
एंग्लो इंडियन अँग्रेजों के प्रिय और आर्थिक रूप से सबल थे, पर सामाजिक रूप से इंडिया में इनको गंदी नजरों से देखा जाता था, बिलकुल वैसे ही जैसे अबैध संतान या जिसे नाजायज़ औलाद बुला कर देखा जाता है वैसे ही। 
इसलिए ये प्रायः शहरों में ही बसे, क्योंकि वहां ये अपनी पहचान आसानी से छुपा के रह सकते थे।
सामाजिक बहिष्कृत होने के कारण ये कुंठित भी थे और इसी कुंठा में खुद को "शुद्ध" कहना शुरू किया। ये अंग्रेजो के पक्के वाले नकलची थे, जो दोनों समाजों में हेय दृष्टि से देखे जाते थे और एंग्लो इंडियन शब्द इनका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। 1931 में उन्होंने इसकी परिभाषा बदलवाई और एंग्लो एशियाई की जगह यूरेशियाई हो गए।
बाल गंगाधर तिलक ने खुद इस कटुसत्य को स्वीकारा है, उनका कहना था वो अंग्रेजों के साथ "यूरेशिया" से आए थे।
चूंकि इंडिया ग्राम्य जीवन वाला देश था और ग्रामीणों को शहरी जीवन में कोई दिलचस्पी थी ही नहीं, इसिलिए उन्हें इन बातों की कभी कोई जानकारी हूई ही नहीं। लेकिन एक वर्ग था जिसे इस बात की कुछ-कुछ जानकारी थी, वो थे अंग्रेजों के साथ पूर्वी देशों खासकर चंपा वियतनाम से आए मजदूर। उनको सत्ता और अफसरशाही में आरक्षण रूपी हिस्सेदारी का लालच देकर यूरेशियनों ने चुप करा दिया था।

अब अंग्रेज जब इंडिया से वापस जाने लगे तो उनकी कोशिश रही कि अपने मानसपुत्रों को ही यहाँ का सत्ता सौंपे और अफसरशाही के मुख्य पदों पर बिठाकर जाये। इसलिए वो आजादी के बाद भी यहां काफी समय तक देख-रेख के नाम पर रुके रहे, ताकि कोई मजदूर किसान जाति का नेता सत्ता ना हथिया बैठे। 1945 में किसान नेता छोटूराम जी की संदिग्ध मौत उसी का अहम हिस्सा और नतीजा था।
ये काली इंडोनेशियाई टोपी वाले एंग्लोइंडियन या युरेशियन असल में डिक्शनरी की औलादें आज भी अपनी पहचान छुपाने के लिए चाल पर चाल चले जा रहे हैं, जैसे कभी खुद को शुद्ध घोषित किया था। 

इतिहास के पन्नों में भी टोपी पहनते-पहनाते देखे जा सकते हैं। अब इतिहास बदलने की कबायद में जुटा है, इस सब में इन्होने खुद को कोंकणी ब्राम्हण घोषित कर मूल ब्राम्हनों को मोहरा बनाया, जिसे ये कहानी मालुम ही नहीं। ये सारे पक्ष विपक्ष  बनकर सत्ता के इर्द गिर्द बने रहते हैं, इस देश मे सत्ता और चमड़ी के धंधे के बिना ये लोग टिक ही नहीं सकते।
इस पर जेसिका अल्बा की एक बड़ी मशहूर हाऊलीउड मूवी भी है- द स्लीपिंग डिक्शनरी।
RSS की काली टोपी, शर्ट और पेंट देख कुछ समझ नही आता शंका नही होती। 

तभी तो मुझे ये बात परेशान करती हैं कि ये लोग उन अंग्रेजों से नफ़रत क्यूँ नहीं करते जो दो सौ साल इस देश को लूट खसोट कत्ल, अत्याचार मचा कर देश को पूरी तरह खोखला बना कर गए उन से इन rss और bjp वालों को कोई दिक्क्त नहीं ? उनसे इन्हें नफ़रत क्यूँ नहीं ?

मगर जो देश में हैं, दूसरे देशों से कमा कर भी यहीं आते हैं यही रहते, यहीं मरते और दफ़न होते हैं उन से परेशानी इतनी क्यूँ है ?

कोई जबाब किसी के पास नही, मगर मेरे मन में ये सवाल हमेशा रहेगा चिरंजीवी होकर... जय हो 

12-07-2019



No comments:

Post a Comment