*अंधविश्वास मुक्त नवरात्रि मनाने की पहल करें*
"नवरात्रि के दिनों में एक बार भानू भैया के साथ उनके मामा के घर गया तो उन्होंने खाने में मांस परोस दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। क्योंकि नवरात्रि में मेरे नानी घर में मांस तो दूर, प्याज-लहसुन और सामान्य नमक भी नहीं खाया जाता था। उन्होंने मेरी स्थिति समझी और बताया कि उनके यहां नवरात्रि के दिनों में हर दिन बलि देने की प्रथा है। और यह मांस उसी बलि का प्रसाद है।
आज देश में शाकाहारी, मांसाहारी की बहस चल रही है। नवरात्रि में मांस की दुकानें जबरन बंद कराई जा रही हैं। हर तरफ आस्था और भावनाओं के आहत होने का वास्ता दिया जा रहा है। सोशल मीडिया, टेलीविजन हर तरफ इसी का शोर है। इन्ही शोर के बीच मुझे अपना घर-गांव, इलाका याद आ रहा है। धार्मिक परिवार में जन्म लेने के बाद भी कभी मांसाहारी भोजन पर नियंत्रण जैसी चीज नहीं देखी। मांसाहार बेचने, खाने को लेकर कभी समुदायों के बीच तनातनी नहीं देखी। मेरे दादाजी सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद पंडिताई भी करते थे। सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा जैसे आयोजनों में लोग उन्हें बुलाते थे। लेकिन इससे उनके खान पान पर कभी असर नहीं पड़ा। न ही उन्होंने दूसरों के खान पान में कभी हस्तक्षेप किया। यह सिर्फ उनकी बात नहीं है। मिथिला में तो कई त्योहारों में मांस-मछली बनाने की प्रधानता रही है।
मिथिला के सांस्कृतिक त्योहार कोजगरा, भैया दूज में मछली बनते देखा है। जितिया के नहाई-खाय के दिन मछली खाई जाती है और उसके अगले दिन माएं बेटों के लंबी उम्र के लिए निर्जला उपवास करती हैं।
हमारे यहां श्राद्ध कर्म में तेरहवीं के बाद चौदहवें दिन "मांस-मछली" अनिवार्य रूप से खाया जाता है। दादी मां गुजरी तो मैं सोचने लगा कि पापा तो मांस-मछली खाते नहीं है। क्या वे खाएंगे? उस दिन जब उन्होंने खाना खा लिया तो सिर्फ रीति के मुताबिक उनकी थाली में मछली गिरा दी गयी।
मिथिला की शादियों में मांस-मछली खाना खास चर्चा का विषय रहता है। हर कोई अपनी खाने की लिमिट से कहीं ज्यादा खाता है। हर टेबल पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। मछली का मुड़ा खाना नाक की बात होती है। जो जितना बड़ा मुड़ा खाता है, उसे बारात में उतनी ज्यादा इज्जत मिलती है। लोग दो किलो, 4 किलो और इससे भी ज्यादा वजन का मुड़ा खाते हैं। और इसी तरह छककर मांस भी खाते हैं।
मेरे एक रिश्तेदार कभी प्याज-लहसुन भी नहीं खाते हैं। बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं। एक दिन उनके घर गया तो देखा कि मांस खा रहे हैं। पूछने पर बताया कि यह तो बलि का प्रसाद है और इसे प्याज-लहसुन के बगैर ही पकाया गया है। वे यह प्रसाद खाते हैं।
इसलिए जब यह बहस हो रही कि महज मांस की दुकान खुलने भर से भावनाएं आहत हो रही हैं और आस्था को चोट पहुंच रही है? तो मैं सोचता हूं कि क्या मेरे दादाजी, पिताजी और हमारे इलाके के लोग हिन्दू नहीं हैं? अधिकांश तो बहुत धार्मिक हैं। सुबह उठकर पूजा-पाठ करते हैं। हर छोटी बात में भगवान को याद करते हुए। कोई मुसीबत आती है तो सबसे पहले भगवान से यही कहते हैं कि इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, फलां चीज़ चढ़ाएंगे?
ऐसा करने वाले भी क्या हिन्दू माने जाएंगे? यह सवाल बार-बार मेरे जेहन में आ रहा है।
हालांकि यह बात भी कोरी कल्पना है कि अधिकतर हिन्दू मांसाहार नहीं खाते या सभी मुसलमान मांस खाते हैं। सिर्फ हमारे इलाके के लोग ही नहीं बल्कि देश के अधिकांश लोग मांस खाते हैं। और यह बात मैं नहीं बल्कि सरकारी आंकड़े कह रहे हैं।
चौथे राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 42.8% महिलाएं और 48.9% पुरुष प्रत्येक सप्ताह मांसाहार का सेवन करते हैं।
एस आर एस सर्वे 2014 के अनुसार भारत में 71.6% पुरुष और 70.7% महिलाएं मांस खाते हैं। बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल जैसे हिन्दू बाहुल्य राज्यों में मांसाहार का सेवन करने वाले लोगों की संख्या 90% से अधिक है। जाहिर तौर पर इसकी भौगौलिक और सांस्कृतिक वजहें हैं।
सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन से यह पता चलता है कि 56% हिन्दू मांस खाते हैं। अर्थात पूरे देश में सबसे अधिक मांस खाने वाले लोग हिन्दू ही हैं।
इसी अध्ययन से यह भी पता चला है कि 8% जैन और 75% बौद्ध मांसाहार का सेवन करते हैं। आमतौर पर इन दोनों धर्म के लोगों को शाकाहारी माना जाता है लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है।
प्यू रिसर्च बताता है कि 8% मुसलमान भी मांस नहीं खाते हैं।
इन सभी आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि मांसाहारी भोजन का संबंध किसी धर्म से नहीं है। खानपान का संबंध कई अन्य चीजों से है, जिसमें धर्म एक बहुत छोटी सी भूमिका निभाता है।"
आज शासक वर्ग (लुटेरे पूंजीवादी वर्ग) नवरात्रि को विराट मजदूर वर्ग के विभिन्न समुदाय में वैमनस्य फैलाने के लिये एक अवसर की तरह नवरात्रि पर्व का उपयोग कर रहा है, मजदूरवर्ग इनके तमाम बदमाशी भरे प्रचार एवम कार्यवाइयों की निंदा करने, उसका भंडाफोड़ करने के लिये कृतसंकल्प है। हमारी मिहनतकस जनता की संस्कृति इतना उन्नत रही है कि यह पर्व-त्योहारों पर भी मांसाहारी भोजन पर नियन्त्र करने के खिलाफ रही है। हमे इस संस्कृति को जारी रखने का संकल्प लेना होगा एवम नवरात्रि के अवसर पर इस संस्कृति का न केवल का प्रचार प्रसार करना चाहिये बल्कि सामूहिक मांसाहारी भोजन का आयोजन भी करना चाहिये।
*सर्वहारा संस्कृति जिंदाबाद!*
*पतनशील बुर्जुवा संस्कृति मुर्दाबाद!*
"नवरात्रि के दिनों में एक बार भानू भैया के साथ उनके मामा के घर गया तो उन्होंने खाने में मांस परोस दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। क्योंकि नवरात्रि में मेरे नानी घर में मांस तो दूर, प्याज-लहसुन और सामान्य नमक भी नहीं खाया जाता था। उन्होंने मेरी स्थिति समझी और बताया कि उनके यहां नवरात्रि के दिनों में हर दिन बलि देने की प्रथा है। और यह मांस उसी बलि का प्रसाद है।
आज देश में शाकाहारी, मांसाहारी की बहस चल रही है। नवरात्रि में मांस की दुकानें जबरन बंद कराई जा रही हैं। हर तरफ आस्था और भावनाओं के आहत होने का वास्ता दिया जा रहा है। सोशल मीडिया, टेलीविजन हर तरफ इसी का शोर है। इन्ही शोर के बीच मुझे अपना घर-गांव, इलाका याद आ रहा है। धार्मिक परिवार में जन्म लेने के बाद भी कभी मांसाहारी भोजन पर नियंत्रण जैसी चीज नहीं देखी। मांसाहार बेचने, खाने को लेकर कभी समुदायों के बीच तनातनी नहीं देखी। मेरे दादाजी सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद पंडिताई भी करते थे। सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा जैसे आयोजनों में लोग उन्हें बुलाते थे। लेकिन इससे उनके खान पान पर कभी असर नहीं पड़ा। न ही उन्होंने दूसरों के खान पान में कभी हस्तक्षेप किया। यह सिर्फ उनकी बात नहीं है। मिथिला में तो कई त्योहारों में मांस-मछली बनाने की प्रधानता रही है।
मिथिला के सांस्कृतिक त्योहार कोजगरा, भैया दूज में मछली बनते देखा है। जितिया के नहाई-खाय के दिन मछली खाई जाती है और उसके अगले दिन माएं बेटों के लंबी उम्र के लिए निर्जला उपवास करती हैं।
हमारे यहां श्राद्ध कर्म में तेरहवीं के बाद चौदहवें दिन "मांस-मछली" अनिवार्य रूप से खाया जाता है। दादी मां गुजरी तो मैं सोचने लगा कि पापा तो मांस-मछली खाते नहीं है। क्या वे खाएंगे? उस दिन जब उन्होंने खाना खा लिया तो सिर्फ रीति के मुताबिक उनकी थाली में मछली गिरा दी गयी।
मिथिला की शादियों में मांस-मछली खाना खास चर्चा का विषय रहता है। हर कोई अपनी खाने की लिमिट से कहीं ज्यादा खाता है। हर टेबल पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। मछली का मुड़ा खाना नाक की बात होती है। जो जितना बड़ा मुड़ा खाता है, उसे बारात में उतनी ज्यादा इज्जत मिलती है। लोग दो किलो, 4 किलो और इससे भी ज्यादा वजन का मुड़ा खाते हैं। और इसी तरह छककर मांस भी खाते हैं।
मेरे एक रिश्तेदार कभी प्याज-लहसुन भी नहीं खाते हैं। बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं। एक दिन उनके घर गया तो देखा कि मांस खा रहे हैं। पूछने पर बताया कि यह तो बलि का प्रसाद है और इसे प्याज-लहसुन के बगैर ही पकाया गया है। वे यह प्रसाद खाते हैं।
इसलिए जब यह बहस हो रही कि महज मांस की दुकान खुलने भर से भावनाएं आहत हो रही हैं और आस्था को चोट पहुंच रही है? तो मैं सोचता हूं कि क्या मेरे दादाजी, पिताजी और हमारे इलाके के लोग हिन्दू नहीं हैं? अधिकांश तो बहुत धार्मिक हैं। सुबह उठकर पूजा-पाठ करते हैं। हर छोटी बात में भगवान को याद करते हुए। कोई मुसीबत आती है तो सबसे पहले भगवान से यही कहते हैं कि इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, फलां चीज़ चढ़ाएंगे?
ऐसा करने वाले भी क्या हिन्दू माने जाएंगे? यह सवाल बार-बार मेरे जेहन में आ रहा है।
हालांकि यह बात भी कोरी कल्पना है कि अधिकतर हिन्दू मांसाहार नहीं खाते या सभी मुसलमान मांस खाते हैं। सिर्फ हमारे इलाके के लोग ही नहीं बल्कि देश के अधिकांश लोग मांस खाते हैं। और यह बात मैं नहीं बल्कि सरकारी आंकड़े कह रहे हैं।
चौथे राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 42.8% महिलाएं और 48.9% पुरुष प्रत्येक सप्ताह मांसाहार का सेवन करते हैं।
एस आर एस सर्वे 2014 के अनुसार भारत में 71.6% पुरुष और 70.7% महिलाएं मांस खाते हैं। बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल जैसे हिन्दू बाहुल्य राज्यों में मांसाहार का सेवन करने वाले लोगों की संख्या 90% से अधिक है। जाहिर तौर पर इसकी भौगौलिक और सांस्कृतिक वजहें हैं।
सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन से यह पता चलता है कि 56% हिन्दू मांस खाते हैं। अर्थात पूरे देश में सबसे अधिक मांस खाने वाले लोग हिन्दू ही हैं।
इसी अध्ययन से यह भी पता चला है कि 8% जैन और 75% बौद्ध मांसाहार का सेवन करते हैं। आमतौर पर इन दोनों धर्म के लोगों को शाकाहारी माना जाता है लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है।
प्यू रिसर्च बताता है कि 8% मुसलमान भी मांस नहीं खाते हैं।
इन सभी आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि मांसाहारी भोजन का संबंध किसी धर्म से नहीं है। खानपान का संबंध कई अन्य चीजों से है, जिसमें धर्म एक बहुत छोटी सी भूमिका निभाता है।"
आज शासक वर्ग (लुटेरे पूंजीवादी वर्ग) नवरात्रि को विराट मजदूर वर्ग के विभिन्न समुदाय में वैमनस्य फैलाने के लिये एक अवसर की तरह नवरात्रि पर्व का उपयोग कर रहा है, मजदूरवर्ग इनके तमाम बदमाशी भरे प्रचार एवम कार्यवाइयों की निंदा करने, उसका भंडाफोड़ करने के लिये कृतसंकल्प है। हमारी मिहनतकस जनता की संस्कृति इतना उन्नत रही है कि यह पर्व-त्योहारों पर भी मांसाहारी भोजन पर नियन्त्र करने के खिलाफ रही है। हमे इस संस्कृति को जारी रखने का संकल्प लेना होगा एवम नवरात्रि के अवसर पर इस संस्कृति का न केवल का प्रचार प्रसार करना चाहिये बल्कि सामूहिक मांसाहारी भोजन का आयोजन भी करना चाहिये।
*सर्वहारा संस्कृति जिंदाबाद!*
*पतनशील बुर्जुवा संस्कृति मुर्दाबाद!*
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