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Saturday, 30 April 2022

जॉर्ज एंजेल (15.04.1836-11.11.1887)


मैंने जर्मनी 1872 में  छोड़ा क्योंकि मशीनों ने कारीगरों को कंगाल कर दिया था और इन्सान जैसी ज़िन्दगी जीने लायक काम भी उनके हाथों को मिलना मुश्किल हो गया था. मैं अपने परिवार के साथ उस अमेरिका में आ गया जहाँ के आज़ादी के किस्से हमने बहुत सुने थे. आप मेरा पिछला इतिहास देख सकते हैं. बम फेंकना छोडिए, मैंने कभी कोई अपराध नहीं किया. ये पहला मौका है जब मैं किसी अदालत के अन्दर घुसा हूँ. अमेरिका महान देश है, दुनिया में सबसे अमीर है लेकिन यहाँ भी मैंने ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो कचरे के डिब्बे से निकालकर अपना पेट भरते हैं. उनकी ज़िन्दगी में कोई आनंद नहीं, कोई उत्साह नहीं. इस 'आज़ाद' मुल्क में आकर जब मैंने गौर से देखा तो पाया कि यहाँ भी कमोबेश वही हालात हैं. काम की तलाश में न्युयोर्क, फिलाडल्फिया भटका और बाद में शिकागो आ गया. हर तरफ वही हालात हैं. 

हम काम करना चाहते हैं. हमारे हाथों को काम क्यों नहीं मिलता? मैं ये सोचकर परेशान रहने लगा. फिर मैंने किसी से कार्ल मार्क्स का नाम सुना. मेरी मेहनत की कमाई के जो भी पैसे मेरी जेब में थे उनसे मैंने कार्ल मार्क्स, लासेल और हेनरी जॉर्ज की किताबें खरीदीं. मैं राजनीति को समझने लगा और जल्दी ही मेरी समझ आ गया कि 'चुनाव का अधिकार' तो एक धोखा है, एक पाखंड है. मैं जिस सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की सभाओं में जाने लगा था, वो मैंने बंद कर दिया और 'इंटरनेशनल वर्किंग मेन एसोसिएशन' से जुड़ गया. मुझे जर्मनी में सुनी कार्ल शुर्त्ज़ की बात समझ आ गई कि समाजवाद के बगैर मज़दूरों की मुक्ति नहीं हो सकती. वे कहीं के भी नागरिक बनें,, बनें या ना भी बनें, मज़दूरों को इस व्यवस्था में कोई अधिकार नहीं मिल सकते. सारे कानून ऐसे हैं जो मज़दूरों की ज़िन्दगी से आज़ादी और खुशियों की चाह छीन लेते हैं. मैंने देखा, शिकागो के मज़दूर उसी समाजवाद की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे मैंने किताबों में पढ़ा था और मुझे उनसे जुड़कर बहुत ख़ुशी हुई.

मैं सरकारी वकील ग्रिन्नेल और उसके सहायक फर्दमेन को बताना चाहता हूँ कि आप हम 7 मज़दूरों को फांसी और एक को 15 साल जेल में डालकर समाजवादी आन्दोलन को नहीं रोक पाओगे. बस यही होगा कि अगर आप बोलने नहीं दोगे तो हम लड़ने का तरीका बदल लेंगे. मज़दूर बना कुछ भी सकते हैं, ये बात अगर आप की समझ नहीं आई है तो समझ लीजिए. मैंने हे मार्केट मीटिंग में भाषण दिया था और उससे पहले भी अनेकों बार भाषण दिया है. एक बात बताइये, मज़दूर ज़मीन के अन्दर खानों में जाकर ऐसी पुरानी जर्जर मशीनों में काम करते हैं जिनकी मरम्मत नहीं होती. फिर हादसा होता है सैकड़ों मज़दूर मर जाते हैं, क्या आप उस मालिक को फांसी देते हैं जो उन सब का कातिल है. नहीं ना? फिर जब हम इन्सान जैसी ज़िन्दगी जीने के लिए काम के घंटे 8 करना चाहते हैं, पगार में 10 सेंट बढ़ोत्तरी के लिए सभा करते हैं तो आप हम पर गोलियां क्यों चलाते हैं? और एक बात, क्या आप लोगों को ये 'चुनाव की आज़ादी' बिन लड़े मिल गई थी? आज जैसे हालात हैं उनमें मैं चुप नहीं बैठ सकता, ये बात मै स्पष्ट कर देना चाहता हूँ.

सारे अधिकार अमीरों को ही क्यों मिलते हैं? मज़दूरों के हिस्से कुछ भी क्यों नहीं आता. ऐसी सरकारों का मैं कभी भी सम्मान नहीं कर सकता. उनकी पुलिस और जासूसों के बावजूद मैं ऐसी सरकारों से लडूंगा. मैं पूंजीपतियों से भी ज्यादा ऐसी सत्ता से नफ़रत करता हूँ जो इस पूंजीवादी व्यवस्था को चलाती है, उन्हें ही सारे अधिकार देती है. जहाँ तक मेरे ऊपर इस आरोप की बात है कि मैं पूंजीवाद के नकारात्मक प्रभाव में आ गया हूँ , उस बारे में मुझे कुछ नहीं कहना. मेरी सबसे बड़ी चाहत एक ही है कि मज़दूर अपने दोस्तों और दुश्मनों को जल्दी पहचान जाएँ. 

जॉर्ज एंजेल भी 11 दिसम्बर 1887 को शहीद हुए चार मज़दूर नेताओं में थे.

मई दिवस जिंदाबाद 
शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम 
दुनिया के मज़दूरो एक हो

Friday, 29 April 2022

मजदूर वर्ग की राजनीतिक क्रिया के बारे में


( 21 सितंबर 1871 को अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ के लंदन सम्मेलन में दिया गया भाषण)
                                --    फ्रेडरिक एंगेल्स
राजनीतिक क्रिया से सर्वथा विरत रहना असंभव है । विरतिवादी समाचार पत्र रोजाना राजनीति में भाग लेते हैं । प्रश्न केवल यह है कि आप राजनीति में कैसे भाग लेते हैं और किस प्रकार की राजनीति में भाग लेते हैं । बाकी बात यह है कि हमारे लिए राजनीति से विरत रहना असंभव है । अब तक अधिकांश देशों में मजदूर वर्ग की पार्टी राजनीतिक पार्टी के रूप में कार्य करने लगी है , और हमारा काम यह नहीं है कि राजनीति से विरत रहने का प्रचार करके उसे चौपट कर डालें । जीवंत अनुभव , मौजूदा सरकारों का राजनीतिक उत्पीड़न मजदूरों को राजनीति में दखल देने के लिए विवश करता है , चाहे वे इसे चाहें या न चाहें , चाहे वे ऐसा राजनीतिक लक्ष्यों के लिए करें या सामाजिक । उन्हें राजनीति से विरत रहने का उपदेश देकर हम उन्हें पूंजीवादी राजनीति के जाल में फंसा देंगे । पेरिस कम्यून के बाद , जिसने सर्वहारा की राजनीतिक क्रिया को  आज की कार्यसूची में दाखिल कर दिया , राजनीति से विरत रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता । 
हम वर्गों का उन्मूलन चाहते हैं । इसे पूरा करने का क्या साधन है ? इसका एकमात्र साधन सर्वहारा का राजनीतिक प्रभुत्व है। फिर भी अब , जब सभी इस बात को मानते हैं , हमसे कहा जाता है कि हम राजनीति में दखल न दें ! विरतिवादी कहते हैं कि वे क्रांतिकारी हैं , यहां तक कि सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी हैं । लेकिन क्रांति राजनीतिक क्रिया की पराकाष्ठा है और जो लोग क्रांति चाहते हैं  वे उसे संपन्न करने के साधन, अर्थात राजनीतिक क्रिया के प्रति उदासीन नहीं हो सकते । इस क्रिया से ही क्रांति के लिए जमीन तैयार होती है और मजदूरों को वह क्रांतिकारी प्रशिक्षण प्राप्त होता है , जिसके बिना वे लड़ाई के दूसरे ही दिन फाव्र तथा प्यात जैसे लोगों के धोखे में आए बिना नहीं रह सकते। मगर यह जरूर है कि हमारी राजनीति मजदूर वर्ग की राजनीति होनी चाहिए ; मजदूर पार्टी को किसी पूंजीवादी पार्टी का दुमछल्ला कभी नहीं होना चाहिए ; वह स्वाधीन होनी चाहिए ,उसका अपना लक्ष्य , अपनी नीति होनी चाहिए ।  राजनीतिक स्वातंत्र्य - सभा और संघ स्वातंत्र्य तथा प्रेस स्वातंत्र्य - ये हमारे अस्त्र हैं । जब कोई हमारे इन अस्त्रों को चुरा लेने की कोशिश करता है तब क्या हम चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और राजनीति से विरत रहें ? कहा जाता है कि अगर हम कोई राजनीतिक कार्रवाई करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हम मौजूदा वस्तुस्थिति को स्वीकार करते हैं ।परंतु जब तक मौजूदा वस्तुस्थिति हमें उसका प्रतिवाद करने का साधन प्रदान करती है , तब तक इन साधनों को इस्तेमाल करने का मतलब यह नहीं है कि हम मौजूदा वक्त में हावी व्यवस्था को स्वीकार करते हैं ।

पहली बार ' कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ' पत्रिका , अंक 29 , 1934 , में प्रकाशित ।

इतिहास क्या कहता है?

इतिहास क्या कहता है? साथियों के साथ आदित्य कमल अपना जनगीत प्रस्तुत करते हुए इसका उत्तर देते है।

मई_दिवस :: शिकागो के अमर शहीद अल्बर्ट पार्सन्स का पत्नी के नाम ख़त



_"आज सुबह हमारे बारे में हुए फैसले से पूरी दुनिया के अत्याचारियों में ख़ुशी छा गयी है, और शिकागो से लेकर सेण्ट पीटर्सबर्ग तक के पूँजीपति आज दावतों में शराब की नदियाँ बहायेंगे। लेकिन, हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत बन जायेगी जो नफ़रत, बैर, ढोंग-पाखण्ड, अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार और इन्सान के हाथों इन्सान की ग़ुलामी के अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के दबे-कुचले लोग अपनी क़ानूनी बेड़ियों में कसमसा रहे हैं। विराट मज़दूर वर्ग जाग रहा है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी ज़ंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफ़ान में नरकुल टूट जाते हैं।"_

शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम!
दुनिया के मजदूरों एक हो !! 
मई दिवस जिन्दाबाद !!!

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महिला, समाजवाद और ऑर्गेज्म



आज से ठीक 30 साल पहले 1990 में जब पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हुआ तो समाजवादी व्यवस्था के तहत लंबे समय तक रहे पूर्वी जर्मनी को और प्रकारान्तर से समाजवादी रहे देशों को नीचा दिखाने के लिए पश्चिमी जर्मनी और पूंजीवादी पश्चिमी जगत के तमाम अखबारों-पत्रिकाओं ने एक खुला युद्ध छेड़ दिया। पूर्वी जर्मनी की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था के साथ ही उन्होंने पूर्वी जर्मनी के लोगो विशेषकर महिलाओं के सेक्सुअल जीवन पर भी हमला शुरू कर दिया और कैरीकेचर बनाया जाने लगा कि समाजवादी देशों में महिलाओं का सेक्सुअल जीवन बहुत शुष्क होता था और समाजवादी राज्य नागरिकों के सेक्सुअल जीवन का भी दमन करता था। जाहिर है कि लक्ष्य यह था कि 'सेक्सुअल फ्रीडम' और महिलाओं के 'यौन सुख' को पूँजीवाद की देन बताना और समाजवाद को सेक्स विहीन या सेक्स दमित नीरस व्यवस्था के रूप में पेश करना। यानी समाजवाद में सेक्स का मतलब समाजवाद के लिए सिर्फ मजदूर पैदा करना था।

लेकिन इसी समय कुछ स्वतंत्र शोधार्थियों ने (जिसमें से ज्यादातर पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया के ही थे) सच का पता लगाने का बीड़ा अपने हाथ में लिया। सर्वे का नतीजा बेहद चौकाने वाला था। तमाम सर्वे में यह पुष्ट हुआ कि भूतपूर्व समाजवादी पूर्वी जर्मनी की 84 प्रतिशत से ज्यादा महिलायें 'पूर्ण यौन सुख' (orgasm) का आनन्द लेती रही हैं, जबकि पूंजीवादी पश्चिम जर्मनी की महिलाओं के लिए यह आंकड़ा महज 50 प्रतिशत था।  [इसके अलावा सेक्स करने की फ्रीक्वेंसी भी भूतपूर्व समाजवादी देशों में पूंजीवादी देशों के मुकाबले ज्यादा रही है। यह भी सर्वे में स्पष्ट हुआ।] इसी सर्वे के आधार पर एक रिसर्च पेपर 2004 में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम भी बेहद दिलचस्प था - The Sexual Unification of Germany [Ingrid Sharp],  इसके बाद इस लगभग अछूते और आम तौर से टैबू माने जाने वाले विषय पर कई दिलचस्प और महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुई। 2005 में एक बेहद महत्वपूर्ण किताब Sex after Fascism: Memory and Morality in Twentieth-Century Germany [Herzog D] आई। 2011 में Love in the Time of Communism [Josie McLellan] आई। लेकिन 2018 में इसी विषय पर दो बेहद महत्वपूर्ण किताब आयी। Kateřina Lišková की Sexual Liberation, Socialist Style: Communist Czechoslovakia and the Science of Desire, 1945–1989  और Kristen Ghodsee की Why Women Had Better Sex Under Socialism इसके अलावा इसी विषय पर एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री 2006 में आयी- Do Communists Have Better Sex? इसे आप 'यू ट्यूब' पर देख सकते हैं। इसमें Sex after Fascism की लेखिका Herzog D का महत्वपूर्ण इंटरव्यू भी है।

इन किताबों-फिल्मों से गुजरना समाजवाद पर पड़ी धूल झाड़कर उसकी शानदार उपलब्धियों से रूबरू होना था। Kateřina Lišková समाजवादी चेकोस्लोवाकिया के बारे में लिखते हुए बताती हैं कि 1952 में ही चेकस्लोवाकिया के सेक्सोलाजिस्टों ने पूरे देश के पैमाने पर महिलाओं के आर्गज्म को लेकर एक शोध शुरू कर दिया था और इसमें पैदा होने वाली दिक्कतों को अपने अध्ययन का आधार बनाया था। Lišková कहती हैं-'चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट-सेक्सोलाजी ने महिलाओं का मां और मजदूर के रूप में ही ध्यान नहीं रखा वरन् उनकी सेक्स संबधी बेहतरी का भी ध्यान रखा।'  1961 में महिलाओं के आर्गज्म और इसमें आने वाली समस्याओं पर एक कांफ्रेंस का भी आयोजन किया गया, जिसमें चेकोस्लोवाकिया के बाहर के देशों के अनेक सेक्सोलाजिस्टों ने भी हिस्सा लिया, और टैबू माने जाने वाले इस सर्वथा अछूते विषय पर खुल कर चर्चा की। कान्फ्रेस की शुरूआत करते हुए चेकोस्लोवाकिया की प्रमुख गाइनोकोलाजिस्ट मिरोस्लाव वोज्ता (Miroslav Vojta) कहती हैं- 'हम आमतौर पर अपेक्षाकृत सेक्स पर कम बात करते हैं क्योकि हमारे समाज को इससे ज्यादा ज्वलंत विषयों से जूझना पड़ रहा है। लेकिन जब किसी के सेक्स जीवन में असंतुष्टि या टकराव आता है तो वह उसके कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है। इसलिए समाजवादी समाज उस वक्त मूकदर्शक बनकर नहीं खड़ा रह सकता, जब आम महिलाओं व पुरूषों के बीच उनका सेक्स-प्यार बाधित होता है। यह ना सिर्फ उस मजदूर के लिए नुकसानदेह होगा, वरन यह सामान्य हित को भी प्रभावित करेगा।'  यह था समाजवाद का सेक्स के प्रति नजरिया। इसी कांफ्रेंस में प्रमुख सेक्सोलाजिस्ट नोब्लोचोवा (Knoblochová) महिलाओं के आर्गज्म पर विस्तार से बात करते हुए कहती हैं- 'जब महिलाओं को घर में रहने को बाध्य किया जाता है और वहां उन्हें बार-बार एक ही तरह का नीरस काम करना पड़ता है तो वे बोर हो जाती है जिसके प्रभावस्वरूप सेक्स में उनकी रूचि खत्म होने लगती है।'

चेकोस्लोवाकिया में 1963 में ही एक रेडियो प्रोग्राम 'इन्टीमेट कन्वर्सेशन' शुरू किया गया, जहां महिला पुरूष के सेक्स सम्बन्धी समस्याओं पर खुल कर चर्चा की जाती थी। और समाधान निकालने का प्रयास किया जाता था।

इन सभी अध्ययनों, शोधों व चर्चाओं से एक समीकरण निकल कर आया जो चेकोस्लोवाकिया में 1950 के दशक में सभी नौजवान महिलाओं पुरूषों के जेहन में था- समानता+ प्यार = यौन सुख (equality plus love would result in sexual happines)। इस समानता के लिए जरूरी था कि महिलाओं को सार्वजनिक जीवन व रोजगार में पुरूषों के बराबर अवसर दिये जाय और दूसरी तरफ पुरूषों को भी घर के कामों व बच्चों की परवरिश में बराबर का भागीदार बनाया जाय। बच्चों के पालन पोषण और घरेलू काम का बोझ हल्का करने के लिए समाजवादी राज्यों ने बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच और लांड्री जैसे सार्वजनिक उपक्रम शुरू किये। इसके अलावा विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी गयी।

यहां थोड़ा विषयान्तर करते हुए एक बात पर जोर देना जरूरी है कि महिला पुरूष समानता की जब बात हो रही है तो यहां पूरे समाज के सन्दर्भ में हो रही है। वर्तमान गैर बराबरी वाले समाज मे यदि कोई जनवादी पुरूष महिला का पूरा सम्मान करते हुए घरेलू कामों में हाथ बंटाता है और महिला भी सार्वजनिक जीवन में बराबरी से हिस्सा लेती है, तब भी दोनों के बीच समानता में कई अड़चने हैं। उसमें सबसे बड़ी अड़चन उनके आस पास से निरंतर गुजरती वे अनंत तस्वीरे हैं जिनमे महिलाएं-पुरूष अपनी परंपरागत जेन्डर भूमिका में है। ये कोई निष्क्रिय तस्वीरें नहीं होती जिनका काम महज आपके रेटिना तक पहुंच कर आपको सूचित करना होता है, बल्कि ये तस्वीरें हमारे रेटिना से आगे जाकर दिमाग में हमारे प्रगतिशील मानसिक संरचना से टकराती रहती है और उसे लहूलुहान कर रही होती है। इसलिए इसकी निरंतर रिपेयरिंग की जरूरत होती है। और इनकी रिपेयरिंग का एकमात्र तरीका यही है कि हम उन तस्वीरों को अपनी मानसिक संरचना के आइने में तोड़ने व बदलने का प्रयास करें। यानी समाज को प्रगतिशील दिशा में बदलने का प्रयास करें। सिर्फ तभी महिला और पुरूषों में सच्ची समानता स्थापित हो सकती है। यानी समानता कोई निष्क्रिय चीज नहीं है जो एक बार स्थापित हो जाने पर हमेशा बनी रहती है। यदि ऐसा होता तो समाजवाद का पतन ही क्यों होता।

'यौन सुख' के लिए जिस समानता को आधार माना गया था, वह समानता समाजवादी क्रान्ति में एक विस्फोट के रूप में सामने आयी।

1917 की सोवियत क्रान्ति और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप की समाजवादी क्रान्ति ने एक झटके में महिलाओं को वे सभी अधिकार दे दिये जिसके लिए पूंजीवादी देशों की महिलाएं आज तक संघर्षरत है। अपनी मर्जी से तलाक का अधिकार, अपनी मर्जी से गर्भपात का अधिकार, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार का अधिकार तथा वोट डालने और खुद चुने जाने का अधिकार। अमरीका में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार 1920 में मिला, जबकि सोवियत रूस में यह तीन साल पहले ही 1917 में मिल चुका था। इसके अलावा जब समूचे योरोप और अमरीका में होमोसेक्सुअलिटी कानूनन अपराध था तो सोवियत रूस वह पहला देश था जहां इसे मान्यता दी गयी।

समाजवाद के व्यापक असर को इस एक तथ्य से समझा जा सकता है कि अल्बानिया जैसे निहायत पिछड़े देश में जब 1945 में क्रान्ति सम्पन्न हुई तो वहां लगभग 95 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं अशिक्षित थी। महज 10 साल के अंदर 40 साल उम्र के अंदर की महिलाएं अच्छी तरह लिखने-पढ़ने लगी थीं। 1980 तक विश्वविद्यालय जाने वाले छात्रों में आधा महिलाएं थी। ये सभी महिलाएं शिक्षा, रोजगार व अन्य जनवादी अधिकारों से लैस होने के कारण जल्द ही खुद-मुख्तार हो चुकी थी। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान इस नारे 'जो काम पुरुष कर सकते हैं, वह महिलायें भी कर सकती हैं', के साथ ये नारा भी उछाला गया की 'जो काम महिलायें कर सकती हैं, वो पुरूष भी कर सकते हैं।' इस तरह माओ के शब्दों में कहें तो महिलायें आधी जमीन और आधे आसमान को दखल कर चुकी थी। हजारों साल पहले निजी संपत्ति के आविर्भाव के साथ महिलाओं की जो ऐतिहासिक गुलामी शुरू हुई थी, उसका अब खात्मा हो चुका था। निजी संपत्ति के खात्मे के साथ हजारों साल बाद महिलायें एक बार फिर मुक्त होकर अपनी इमेज में समाज को आगे बढ़ाने के काम में लग गयी।

आप इसकी तुलना यदि सबसे विकसित देश अमरीका से करेंगे तो रोजगार, गरीबी, नस्लवाद की बात यदि छोड़ भी दे तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1960 तक वहां कई राज्यों में यह नियम लागू था कि महिलाओं को जब बाहर कहीं काम करना होता था तो इसके लिए कानूनी तौर पर पति की मर्जी जरूरी होती थी।

समाजवादी राज्यों की महिलाओं ने विज्ञान, कला और खेल जैसे पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्रों में शानदार उपलब्धि दर्ज की। अन्तरिक्ष में जाने वाली पहली महिला सोवियत संघ की वैलेन्टीना तेरेस्कोवा (Valentina Tereshkova) थी। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने पृथ्वी का 48 बार चक्कर लगाया। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने अंतरिक्ष में इतना समय बिताया, जितना अमेरिका के सभी अंतरिक्ष यात्रियों ने मिलकर भी नहीं बिताया था। ओलंपिक खेलों में समाजवादी देशों का दबदबा खासकर उनकी महिला एथलीटों कारण ही था। बहुत कम लोगों को इस बात का अहसास है कि पूंजीवादी देशों में महिलाओं को जो अधिकार मिले और उन्होंने पुरुषों की दुनिया में अपनी जगह बनानी शुरू की, वह उनके अपने संघर्षों के अलावा शीत युद्ध के दौर में इन समाजवादी देशों के साथ प्रतियोगिता का दबाव भी एक कारण था।

लेकिन महिलाओं की स्थिति इन 'समाजवादी' देशों में 60 के दशक के बाद धीरे-धीरे गिरने लगी। इसका बहुत ही ग्राफिक चित्रण इन किताबों विशेषकर Kateřina Lišková  ने अपनी किताब में किया है। समाजवाद के पतन के कारणों को इससे समझने में काफी मदद मिलती है। Kateřina Lišková ने बहुत विस्तार से बताया है कि जैसे-जैसे 'समाजवादी' सत्ता वर्ग विहीन समाज के स्वप्न को साकार करने के संकल्प से पीछे हटने लगी वैसे-वैसे महिलाओं की पुरुषों के बरक्स समानता भी घटने लगी। कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में एंगेल्स ने लिखा था कि बच्चों की जिम्मेदारी जब राज्य और समाज की होगी, तभी महिलाएं सही मायनों में मुक्त होगी। इसी कान्सेप्ट के साथ क्रान्ति के तुरन्त बाद समाजवादी देशों में बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच खोले गये जहां महिलाएं अपने बच्चों को छोड़ कर काम पर जाती थी और लौटते समय महिलाएं या पुरुष (जो भी पहले घर लौटता था) उन्हें घर लाते थे और फिर घर में उसकी देखरेख दोनो बराबरी से करते थे। 60 के दशक में जब ये 'समाजवादी' सरकारें क्रान्ति के रथ को धीमे-धीमे पीछे खींचने लगे तो इसका असर पूरे समाज पर नज़र आने लगा। इसी समय चेकोस्लवाकिया में कुछ मनोचिकित्सकों ने एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया और इसे राज्य की तरफ से व्यापक तौर पर वितरित किया गया। इसमें बताया गया कि क्रैच में पलने वाले बच्चों का विकास उन बच्चों के मुकाबले धीमा होता है जो अपना पूरा वक़्त मां के साथ बिताते हैं। पूरा वक़्त मां के साथ रहने वाले बच्चों को प्राकृतिक और क्रैच में रहने वाले बच्चों को अप्राकृतिक बताया जाने लगा। इसी दशक में एक डाकूमेन्ट्री आयी, जिसका जानबूझकर काफी प्रचार किया गया। इस डाकूमेन्ट्री फिल्म का नाम था- 'चिल्ड्रेन विदआउट लव'। इसमें जानबूझकर कुछ उन क्रैचों को चुना गया जहां थोड़ी अस्तव्यस्तता रहती थी या पर्याप्त स्टाफ नहीं था। यहां कैमरा कुछ बच्चों पर फोकस करते हुए यह दिखाने की कोशिश की गयी इन बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। अगले कट में उन बच्चों पर फोकस किया गया जो मां की गोद में खिलखिला रहे है। इस तरह से समाज में एक माहौल बनाया गया और महिलाओं पर यह भावनात्मक दबाव बनाने का प्रयास किया गया कि वे अपनी मां की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माने और समाजवाद के निर्माण की अपनी भूमिका और पुरुषों के साथ बराबरी के अपने संघर्ष को धीमा करें। कुल मिलाकर कहें तो 'महिला सवाल' को बहुत बारीकी से चुपचाप 'बच्चों के सवाल' में बदल दिया गया या यूं कहें की बच्चो के सवाल को महिला सवाल के बरक्स खड़ा कर दिया गया।

इसी के समानान्तर कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व-अवकाश को भी थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ाया जाने लगा। चेकस्लोवाकिया में 18 सप्ताह के मातृत्व अवकाश को पहले 1 साल तक और बाद में 4 साल तक वेतन सहित बढ़ा दिया गया। महिलाओं को यह अच्छा ही लगा कि उन्हें बच्चे के साथ घर पर रहने का ज्यादा से ज्यादा मौका मिल रहा है। लेकिन इसके पीछे की साजिश वे नहीं समझ सकीं कि इस तरह से धीरे-धीरे उन्हें सार्वजनिक जीवन से काटा जा रहा है और उन्हें परम्परागत मां की भूमिका में ढकेला जा रहा है, कि महिला-पुरूष की परम्परागत जेन्डर भूमिका को धीमे-धीमे मजबूत किया जा रहा है। जब तक वे इसे समझती, तब तक काफी देर हो चुकी थी। यह इतिहास की अजीब विडम्बना है की जिस 'माँ अधिकार' [mother right] के छिनने से हजारों साल पहले महिलाएं गुलाम हुई, उसी 'माँ अधिकार' [mother right] को देने के नाम पर महिलाओं को फिर से गुलामी की ओर धकेला जा रहा था।

 1970 के दशक तक आते-आते परंपरागत जेन्डर भूमिका वाले परिवारों की तादात बढ़ने लगी और वे मजबूत होने लगे। जमीन पर आ रहे इस परिवर्तन का पुरुषों के मानस पर असर पड़ना लाज़िमी था। वे भी अब महिलाओं को पुरानी दृष्टि से देखने लगे। जेन्डर रिवोल्यूशन और सेक्सुअल रिवोल्यूशन के बीच का रिश्ता टूट चुका था।

 चूंकि महिलाएं और समाज पुराने विचारों से पूरी तरह अभी आज़ाद नहीं हो पाये थे (यह प्रक्रिया तो अभी जारी ही थी। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति इसी प्रक्रिया का हिस्सा था) इसलिए वे विशेषकर महिलाएं इस ट्रैप में फंस गयी। महिलाओं को धीमे-धीमे उनके परम्परागत भूमिका में धकेलने के लिए बच्चों की स्थिति का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसी बदले माहौल में धीरे-धीरे क्रैच की संख्या भी कम की जाने लगी। बच्चों के पालन पोषण करने की वजह से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की संख्या धीमे-धीमे कम होने लगी।

इसके साथ ही घर में महिलाओं के सेक्स जीवन पर भी असर पड़ने लगा। बच्चो की परवरिश और घर के बोरिंग रोजाना के कामों की वजह से महिलाओं की सेक्स में रूचि कम होने लगी। आर्थिक रूप से महिलाओं के पुनः पुरुषों पर निर्भर होते जाने से महिला-पुरुष समानता कम होने लगी। फलतः पुरुषों की नज़र में महिलाओं का सम्मान भी कम होने लगा। इसका परिणाम बेडरूम में भी दिखाई देना लगा और अब वे महिलाओं के 'यौन सुख' की परवाह कम से कम करने लगे।

इस बदलते परिवेश के अनुरूप ही तत्कालीन सेक्सोलाजिस्टों ने भी महिलाओं के यौन सुख के कारणो को बदलना शुरू कर दिया। क्रान्ति के शुरूआती वर्षों में महिलाओं के यौन सुख को एकमात्र महिला-पुरुष की बराबरी या समानता में देखा जाता था। लेकिन इसके बाद महिला-पुरूष बराबरी के अलावा दूसरे कारणों को भी इसमें शामिल किया जाने लगा। जैसे महिला का पुराना इतिहास, बचपन में कोई यौन दुर्घटना, शारीरिक स्वास्थ्य आदि। और फिर 70-80 के दशक में तो महिला-पुरुष बराबरी वाली बात पूरी तरह से गायब हो गयी और महिलाओं के यौन सुख को पूरी तरह तकनीकी, बायोलोजिकल और दवाई केन्द्रित बना दिया गया। और पूंजीवादी दुनिया के साथ इनके एकीकरण के बाद तो इस बेहद खूबसूरत, नर्म और आत्मीय रिश्ते पर पोर्न, सेक्स उपकरणों और सेक्स दवाइयों, नशीली दवाइयों का क्रूर हमला शुरू हो गया।

एक समय अंतरिक्ष में विचरण करने वाली महिला, ओलम्पिक में मेडल लाने वाली महिला, प्रयोगशालाओं में खोज करने वाली महिला, समाज को साम्यवादी भविष्य की ओर खींचने वाली महिला अब सड़कों पर ग्राहक के इंतजार में बैठने लगी। पश्चिमी पूंजीवादी देशों में अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में आया, दाई आदि का काम करने पर मजबूर होने लगी। समाजवादी राज्यों में विज्ञान, दर्शन और कला पढ़ने वाली लड़कियां 'gold digging' [अमीर पुरुषों से रिश्ता बनाने के तथाकथित गुर सिखाने के लिए रूस जैसे देशों में कई भूमिगत कोर्स चलते है] का कोर्स कर रही है। जो समाजवादी व्यवस्था महिलाओं के यौन सुख तक का ध्यान रखती थी वह अब पतित होकर विकृत पूँजीवाद में बदलकर उसके शरीर का ही व्यापार करने लगी।

उपरोक्त विवरण यह चीख-चीख कर कह रहे हैं कि समाजवाद महिलाओं का सच्चा दोस्त है। हमें इसे समझना होगा।

मशहूर राजनीतिक चिन्तक 'तारिक अली' कहते हैं की इतिहास का सबसे बड़ा दुरूपयोग इतिहास को भूल जाना होता है। और फिर महिलाओं का यह गौरवपूर्ण इतिहास तो उस रूप में इतिहास भी नहीं है। यह कुछ ही समय पहले तक हमारा वर्तमान था। आज हम जिस अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहे है, वहां 'अगस्त बेबेल' के शब्दों में महिला मुक्ति का सवाल मानवता की मुक्ति के सवाल से जुड़ चुका है। और जैसा की 'इनेसा अरमंड' [Inessa Armand] कहती हैं - 'यदि बिना साम्यवाद के महिला मुक्ति असंभव है तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि बिना महिला मुक्ति के साम्यवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

मनीष आजाद




मेरे लेनिन फ़िल्म

मई दिवस के अवसर पर

बदलाव, संगठन और मुक्ति...............

मई दिवस के अवसर पर
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भारत का मजदूर जो चीज सबसे पहले चाहता है वह है बदलाव। उसकी बेचैन आत्मा जिस चीज को ढूंढ रही है वह बदलाव है। थकी-उबी जिंदगी में बदलाव की कोई छोटी सी उम्मीद की किरण उसको दिखाई देती है तो वह उसके पीछे होने में गुरेज नहीं करता है। लेकिन अक्सर ऐसे बदलाव उसके लिए छल साबित होते हैं। बदलाव की बात करने वाले किस्म-किस्म के छलिया निकलते हैं। लेकिन फिर भी बदलाव का आकर्षण कम नहीं होता। जिंदगी चीख-चीखकर मांग कर रही होती हैं कि बदलाव चाहिए। 

शुरू-शुरू में उसकी जी-तोड़ मेहनत, एक काम को छोड़ना दूसरे को पकड़ना, एक जगह से दूसरे जगह भागना, भटकना, व्यक्तिगत मेहनत-संघर्ष सब अपने निजी जीवन में बदलाव के लिए होते हैं। लेकिन बदलाव होता नहीं। यथार्थ को स्वीकार कर वह कुछ हद तक एक सुप्त बीज सा कुछ बन जाता है एक सोया हुआ जीव। जिसके अंदर आग, ऊर्जा तो बहुत है परंतु उसके ऊपर एक अजीव सा ठंडापन है। रूखाई है। क्षमता बहुत है परंतु उसका कोई इस्तेमाल नहीं। आग अंदर ही सुलग रही है प्रकट नहीं हो रही है। बदलाव जीवन में तभी आ सकता है जब जीवन की समस्याओं के कारणों को समझा जाय। यह एक बेहद कठिन प्रक्रिया है। बेहद कठिन रास्ता है जिस पर चलकर मजदूर अपने जीवन, समाज, देश-दुनिया की समस्याओं के कारणों को समझ सकता है। शायद ही कोई बांका-बिरला होगा जो अपनी समस्याओं के वैज्ञानिक कारणों को समझ सके। और उससे बढ़कर समस्याओं के समाधान का सही रास्ता ढूंढ सके। 

मजदूर वर्ग की समस्याओं के कारणों को समझने और उनके समाधान का रास्ता वर्तमान पूंजीवादी समाज को पूरे तौर पर समझने की मांग करता है। वह मांग करता है कि जाना जाय कि पूंजीवादी व्यवस्था कैसे काम करती है। कैसे मजदूर का शोषण होता है और कैसे पूंजीपति इसके दम पर अकूत सम्पति हासिल करता है। कैसे दुनिया में हर स्तर पर गैर-बराबरी है? कैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, रूस जैसे देश दूसरें देशों पर अपनी मर्जी थोपते हैं? और कैसे भारत का प्रधानमंत्री अमेरिका के राष्ट्रपति से प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाता है?

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मई दिवस

मई दिवस के अवसर पर ' बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन ' द्वारा ज़ारी पर्चा :
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दुनिया के मजदूरो,एक हो!                     इंकलाब जिंदाबाद!
पूँजीवाद-साम्राज्यवाद   मुर्दाबाद!
सर्वहारा समाजवाद जिंदाबाद!
मई दिवस(पहली मई) के अवसर पर पूँजीवादी व्यवस्था को दफनाने के दृढ़ संकल्प को याद करें!
 साथियो!  
एकाधिकारी पूँजीवाद के युग में अधिकतम मुनाफे के ध्येय से चालित परजीवी पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया को अधिकाधिक बर्बादी की ओर ठेलता जा रहा है,नरक में तब्दील करता जा रहा है।कोरोना महामारी के चलते  लागू लाकडाउन की अवधि में नदियों के पानी का साफ-नीला दिखना, प्रदूषण में
काफी कमी आना ,यह साबित करता है कि मुनाफे के सामने शोषक पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकार प्रकृति के नियमों व वैज्ञानिक नियमों की कोई परवाह नहीं करते ,प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते रहते हैं ।19वीं शताब्दी में ही एक मजदूर यूनियन नेता टी.जे.डनिंगने कहा था कि मुनाफे के लिए पूँजी "कोई भी अपराध करने "और "मानवता के सभी नियमों को पैरों तले रौंदने को तैयार हो जाएगी"। हमें यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि जहान की सुरक्षा में ही जान की सुरक्षा है। लेकिन, शासक पूँजीपति वर्ग को पूँजी की रक्षा व उसके विस्तार की चिंता है,न कि जहान की।
                                      आज मजदूर वर्ग का शोषण इस कदर बढ़ता जा रहा है कि आज दुनिया के पैमाने पर 1प्रतिशत अमीरों के पास 99प्रतिशत आबादी की संपत्ति से दोगुनी संपत्ति हो गई है जबकि भारत में 1प्रतिशतअमीरों के पास 70प्रतिशत आबादी की संपत्ति के मुकाबले 4 गुनी ज्यादा संपत्ति है।ऐसी ही परिस्थिति में लूट के केंद्र के रूप में प्राइवेट अस्पताल खूब फल-फूल रहे हैं। पूँजीवादी परिस्थिति में और जनस्वास्थ्य पर कम से कम खर्च करने की सरकारी योजना के चलते जहाँ विशाल मजदूर- मेहनतकश समुदाय का मलेरिया, टी.बी. एवं डेंगू आदि पुरानी बीमारियों से ही पिंड नहीं छूट पा रहा है ,वहाँ पैदा ले रही नई -नई बीमारियों का हमला भी बढ़ता जा रहा है। मेहनतकश जनसाधारण को दिन-प्रतिदिन जिंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है।
                                    कोरोना महामारी की रोकथाम संबंधी गंभीरता की पोल तब खुल जाती है ,जब भारत सरकार, सर्वोच्च न्यायालय और निजी अस्पतालों के मालिक मिलकर यह तय कर लेते हैं कि जाँच हेतु 45 सौ रुपए लिए ही जाएँगे। शासक वर्ग खुद भी  कोरोना वायरस से प्रभावित होने की स्थिति में है, फिर भी उसकी सरकार इस महामारी से निपटने में सरकारी अस्पतालों की तुलना में अधिक बेड वाले प्राइवेट अस्पतालों को नियंत्रण में नहीं ले रही है। लंबी -चौड़ी डींगें हाँकनेवाली सरकार धन के लिए पूँजीपतियों से अनुनय-विनय करती है , उसमें यह दम नहीं है कि  वह कोरोना महामारी से निपटने हेतु पूँजीपति वर्ग से जरूरी पैसा ले ले जबकि ऊपरी मात्र 63 भारतीय पूँजीपतियों के पास भारत सरकार के सालाना बजट से ज्यादा धन है ।मास्क ,सुरक्षात्मक उपकरण, जाँच किट व बेड बढ़ाने के मामले में जरूरी कार्रवाई करने के बदले देशभर में सरकार द्वारा थाली बजाने या दिया जलाने का आह्वान अपनी अक्षमता व अयोग्यता पर पर्दा डालने के धूर्ततापूर्ण प्रयास के अलावा और क्या था?
                                        24 मार्च की 8बजे रात में लॉक डाउन की अचानक घोषणा ने ही बता दिया कि सरकार को मजदूरों -मेहनतकशों  की परेशानी से कोई लेना-देना नहीं। शहरों में कैद भूखे मजदूर जब मुंबई ,सूरत आदि शहरों की सड़कों पर निकलकर" काम दो या भोजन दो नहीं तो घर जाने दो" की मांग करने लगे तब पुलिस द्वारा बर्बर ढंग से पीटे गए। लाकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा मजदूरों से कान पकड़कर उठक -बैठक करवाने या मुर्गा बनाकर अपमानित करने के मामले भी चल रहे हैं । कोरोना-संकट की परिस्थिति में दुनिया के किसी भी देश में भारतीय पुलिस जैसा कुकृत्य व जनविरोधी चरित्र देखने को नहीं मिला। हाँ,यह भी सही है कि पूंजीपति और उनके राजनीतिज्ञ व उनके लगुए-भगुए  पार्टी, शादी -समारोह एवं धार्मिक समारोह आदि कार्यक्रमों में भाग लेकर लॉक डाउन का उल्लंघन करते रहे लेकिन पुलिस उनके सामने पूँछ हिलाती रही।इस बीच लाकडाउन के नियमों को तोड़कर प्रभावशाली लोगों को बसों से लाने -ले जाने की व्यवस्था तो हुई लेकिन मजदूरों के लिए नहीं ।   पैदल और साइकिल से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर घरों को लौट रहे मजदूरों में से तो कुछ रास्ते में ही मर गए और बहुत सारे पुलिस दमन के भी शिकार हुए ।सरकारी राहत शिविरों में छह-छह घंटे लाइन में लगने पर भी भोजन मिलने की गारंटी नहीं । 'द हिंदू' अखबार के अनुसार पहले लाकडाउन की अवधि में तो "प्रवासी मजदूरों" में सिर्फ 4प्रतिशत को ही सरकारी राशन मिल पाया था। सरकारी नियंत्रण कक्ष व राज्य मशीनरी तो फोन नंबर बाँटने, समस्याओं के कागजी समाधान करने व आँकड़ेबाजी के खेल में मशगूल हैं। केंद्र व  प्रांतीय सरकारों के पास तो मजदूरों के सही आँकड़े तक नहीं हैं लेकिन वे कुछ मजदूरों के खातों में 500रुपए या 1000 रुपए  डाल कर अपनी -अपनी पीठें थपथपा रही हैं। सवाल तो हर मजदूर परिवार के जीवन यापन का है। पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारी मदद कुछ ऐसे ही है जैसे कि बीच सड़क पर कोई अपराधी किसी मजदूर से उसकी दिनभर की मजदूरी लूट ले और सहानुभूति जताते हुए चाय पीने हेतु कुछ पैसे दे दे ।इस लॉक डाउन अवधि ने जहाँ मजदूरों को परेशानियों के शिकंजे में कस दिया है ,वहाँ उसने मजदूरों के पिछड़े हिस्से को भी   शोषण पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीपति वर्ग और सरकार के संबंध की असलियत को भी समझने का रास्ता दिखाया है।इन्हीं परिस्थितियों में सरकार की अक्षमता पर पर्दा डालने हेतु प्रतिक्रियावादी- जनविरोधी" गोदी मीडिया "ने कोरोना महामारी के फैलाव के कारण के रूप में कभी  चीन तो कभी 'तबलीगी जमात'( एक इस्लामी धार्मिक संप्रदाय )को जिम्मेदार ठहराना शुरू किया। इसप्रकार इन बिके चैनलों ने आम जनता के बीच धार्मिक विद्वेष फैलाकर, उन्हें आपस में ही लड़ाने की यानी मेहनतकश जनसाधारण के खिलाफ लड़ाई छेड़ने का अपराध किया।
                                   साथियो ,लॉक डाउन के चलते उद्योग धंधे वआर्थिक गतिविधियाँ बंद हैं और अर्थव्यवस्था संकट में है। हर संकट में पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों के माध्यम से अपनी क्षतिपूर्ति   मजदूर वर्ग की सुविधाओं व मजदूरी में कटौती करके करना चाहता है। हम देख रहे हैं कि केंद्र सरकार ने अगले एक साल तक कर्मचारियों को महँगाई भत्ता देने से इंकार कर दिया है और पेंशन योजना में भी अपनी घोषणा से पीछे हट गई है। इतना ही नहीं, पूँजीपतियों के संगठन ने सरकार से काम की अवधि को 8 घंटे से  बढ़ाकर 12 घंटे करने की माँग करते हुए इस संबंध में अध्यादेश लाने की माँग कर डाली है ।हमें भूलना नहीं चाहिए कि 8 घंटे की कार्य अवधि को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए मजदूर वर्ग के न जाने कितने योद्धाओं को अपनी शहादत देनी पड़ी । अगर हम पूँजीपति वर्ग व उसकी रक्षक सरकार के खिलाफ संघर्ष करने हेतु एकजुट नहीं हुए तो गुलामी का फंदा और मजबूत होने वाला है ।हमेशा याद रखने की बात है कि जबतक यह पूँजीवादी व्यवस्था है , मजदूरी -प्रथा है, तबतक मजदूर वर्ग को पूँजी की गुलामी से मुक्ति नहीं मिलने वाली और आजीविका की अनिश्चितता व परेशानियाँ बढ़ती ही जाने वाली है । इस व्यवस्था में सारी  असमाधेय समस्याओं की जड़ में मूल अंतर्विरोध यह है कि उत्पादन, समूह द्वारा, समाज द्वारा होता है लेकिन उस पर मालिकाना अलग-अलग व्यक्तियों का   यानी पूँजीपतियों का होता है ।इस अंतर्विरोध का सीधा हल है कि सामाजिक उत्पादन का मालिक भी समाज हो  यानी समाजवादी व्यवस्था कायम होऔर समाजवाद लाने ऐतिहासिक कार्यभार मजदूर वर्ग के कंधे पर ही है ।आज वक्त की माँग है कि शहर ,प्रदेश, देश और दुनिया के स्तर पर  छोटे-बड़े मजदूर - संगठनों के प्रतिनिधियों की नेतृत्वकारी कमिटी बने जो कार्रवाई की एकता सुनिश्चित कर सके। आइए, मजदूर दिवस पर रोजमर्रे के मामलों और मुक्ति के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने का दृढ़ संकल्प लें।
        
 सरकार से हम माँग करते हैं :                                (1)आजीविका से वंचित तमाम मजदूर परिवारों के जीवन यापन की व्यवस्था करो!
(2)राज्य अपने खर्चे पर मजदूरों को उनके इच्छित जगहों पर सुरक्षित पहुँचाए!
(3) कोरोना संकटकाल में मजदूरों से दुर्व्यवहार करने वाले मकान मालिकों एवं पुलिस अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई करो!
(4)पूँजीपतियों द्वारा 12 घंटे की कार्यावधि की माँग को खारिज करो!
(5)भारत में मजदूरों के अद्यतन आंकड़े जारी करो!
(6)मजदूर परिवारों के लिए नि:शुल्क शिक्षा , चिकित्सा व आवास की व्यवस्था करो!
(7) सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में तत्काल सुधार करो एवं प्रखंड स्तर के अस्पतालों में भी आईसीयू व वेंटिलेटर का इंतजाम करो!
(8) कार्यस्थल पर सैनिटाइजर एवं मास्क की व्यवस्था करो!
(9) बिना अंशदान लिए 60वर्ष के तमाम मजदूरों के लिए पेंशन की न्यूनतम राशि दस हजार घोषित करो!                       
मई दिवस जिंदाबाद!  
                        
                       बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन

मई दिवस

मई दिवस के शहीदों को याद करो!
अपने हकों-अधिकारों के लिए एकजुट हों!!

साथियो

मज़दूरों के सबसे बड़े त्योहार 'अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस' यानी 1 मई को दुनियाभर के पूँजीपति अमीरज़ादे दबाने की कोशिश करते हैं, पर हम मज़दूरों के लिए तो ये दिन सबसे खास है। इसलिए हमें इस दिन की अहमियत समझने की विशेष ज़रूरत है। आज से लगभग 130 वर्ष पहले अमेरिका के शिकागो शहर में मज़दूरों ने इन्सानों की तरह ज़िन्दगी जीने की जंग छेड़ी थी। उस वक़्त मज़दूरों से बारह से अठारह घण्टे हाड़तोड़ काम करवाया जाता था। स्त्रियों व बच्चों से भी इतने ही घण्टे काम करवाया जाता था। काम की परिस्थितियाँ भी बेहद नारकीय रहती थीं। मज़दूरों की औसत उम्र बेहद कम होती थी। मज़दूरों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता था। अधिकतर मज़दूर दिन का उजाला भी नहीं देख पाते थे। कोई अगर आवाज़ उठाता था तो मालिक उस पर गुण्डों व पुलिस से हमला करवाते थे। ऐसे में शिकागो के बहादुर मज़दूरों ने इस तरह जानवरों की तरह खटने से इनकार कर दिया और आठ घण्टे के कार्यदिवस का नारा बुलन्द किया। उनका नारा था- 'आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन'। 1877 से 1886 के बीच अमेरिका भर के मज़दूरों ने ख़ुद को आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए संगठित करने का काम किया। शिकागो का मज़दूर आन्दोलन बेहद मज़बूत था। वहाँ के मज़दूरों ने तय किया कि 1 मई के दिन सभी मज़दूर काम बन्द करके सड़कों पर उतरेंगे और आठ घण्टे के कार्यदिवस का नारा बुलन्द करेंगे। 1 मई के दिन शिकागो के लाखों मज़दूर सड़कों पर उतरे और 'आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन' के नारे से सारा शिकागो गूँज उठा। मज़दूरों की इस विशाल ताक़त ने सारे मालिकों के भीतर डर पैदा कर दिया। इसके दो दिन बाद डरे हुए मालिकों ने भाड़े के गुण्डों से मज़दूरों की एक जनसभा पर कायराना हमला करवाया। इस हमले में 6 मज़दूरों की हत्या की गयी। अगले दिन 'हे मार्केट' नाम के बाज़ार में मज़दूरों ने इस हत्याकाण्ड के विरोध में विशाल प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन पर भी पुलिस ने हमला कर दिया। इस प्रदर्शन में पूँजीपतियों ने जानबूझकर बम फिंकवा दिया जिससे कुछ पुलिसवाले व अनेक मज़दूर मारे गये। बम फ़ेंकने के फ़र्जी आरोप में आठ मज़दूर नेताओं पर मुक़दमा चलाया गया और चार मज़दूर नेताओं- अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, एंजेल्स व फ़ि‍शर को फ़ाँसी दे दी गयी। अपने प्यारे नेताओं की शवयात्रा में 6 लाख से भी अधिक मज़दूर सड़कों पर उमड़ पड़े।

May day Martyrs Curved version 12शिकागो के मज़दूरों के महान संघर्ष को तो मालिकों ने कुचल दिया, उसे खून की दलदल में डुबो दिया लेकिन जो चिंगारी शिकागो के मज़दूरों ने लगाई थी उसकी आग दुनिया भर में फ़ैल गयी। आठ घण्टे काम की माँग पूरी दुनिया के मज़दूरों की माँग बन गयी। अन्ततः मज़दूरों ने संघर्षों के ज़रिये यह माँग जीत ली। दुनियाभर के पूँजीपतियों की सरकारों को क़ानूनी तौर पर आठ घण्टे का कार्यदिवस देने पर मजबूर होना पड़ा। मज़दूर आन्दोलन यहीं पर ही नहीं रुका बल्कि विश्व के बड़े हिस्से में पिछली सदी में मज़दूरों ने इंक़लाब के ज़रिये पूँजीपतियों की राज्यसत्ता को उखाड़कर अपनी राज्यसत्ता भी स्थापित की। उन्होंने ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें कारख़ानों, खदानों व ज़मीनों के वे खुद ही मालिक थे। मज़दूर जो कि दुनिया की हर चीज़ का निर्माण करते हैं, उन्होंने धरती पर ही स्वर्ग बनाकर दिखा दिया था।

लेकिन ग़द्दारों, भितरघातियों व अपनी भी कुछ ग़लतियों के कारण मज़दूरों ने जहाँ-जहाँ अपना राज कायम किया था, वहाँ पर फि़र से पूँजीपति सत्ता में लौट आये हैं। मज़दूर आन्दोलन को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। मज़दूरों ने अधिकतर श्रम क़ानून जो लड़कर हासिल किये थे, आज वो क़ानूनी किताबों में पड़े-पड़े सड़ रहे हैं और दुनियाभर की सरकारें मज़दूरों से रहे-सहे अधिकार भी छीन रही है। पूँजीवादी व्यवस्था जोकि मज़दूरों के खून-पसीने को लूटकर चंद पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरती है, आज बेहद संकट में यानी कि मन्दी में फ़ँसी हुई है। इस मन्दी के कारण पूँजीपतियों का मुनाफ़ा लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि बाज़ार में उनका माल बिक नहीं पा रहा है। अपने मुनाफ़े को जारी रखने के लिए ही आज पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों के ज़रिये मजदूरों का और अधिक शोषण करने पर उतारू है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही सबसे पहले मज़दूर वर्ग पर हमला बोला है। मोदी सरकार ने सभी श्रम-क़ानूनों को पूँजीपतियों के हितों के हिसाब से बदलना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने अभी यह क़ानून लागू किया है कि जिन कारख़ानों में 300 मज़दूर तक काम करते हैं, उसे कभी भी मालिक बन्द कर सकता है, यानी 300 मज़दूरों को जब चाहे धाक्का मारकर काम से निकाल सकता है। महाराष्ट्र के 41,000 कारख़ानों में से 39,000 कारख़ानों में 300 से कम मज़दूर काम करते हैं। पूँजीपतियों की सरकारें इसी तरह के क़ानून लाकर आज मज़दूरों को लूट रही हैं और मालिकों के लिए धन्धा करना और धन्धा बन्द करना आसान बना रही हैं। आठ घण्टे काम का क़ानून भी आज कहीं लागू नहीं हो रहा है और केवल किताबों में ही बन्द है। रतन टाटा ने इस क़ानून को भी 9 घण्टे करने का सुझाव सरकार को दिया है। अपनी लायी हुई मन्दी को आज हमारे ऊपर लादकर पूँजीपति वर्ग लाखों-करोड़ों लोगों को बेरोज़गारी और भयंकर ग़रीबी की ओर धकेल रहा है। हमारी एकजुटता न होने के कारण मालिकों के लिए यह आसान भी है।

आज मज़दूरों की 93 फ़ीसदी (लगभग 56 करोड़) आबादी ठेका, दिहाड़ी व पीस रेट पर काम करती है जहाँ 12 से 14 घण्टे काम करना पड़ता है और श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता। जहाँ आए दिन मालिकों की गाली-गलौज का शिकार होना पड़ता है। इतनी हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी हम अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने नहीं देख सकते। वास्तव में हमारा और हमारे बच्चों का भविष्य इस व्यवस्था में बेहतर हो भी नहीं सकता है। आज ज़रूरत है कि हम मज़दूर जो चाहे किसी भी पेशे में लगे हुए हैं, अपनी एकता बनायें। आज हम ज्यादातर अलग-अलग मालिकों के यहाँ काम करते हैं इसलिए आज ये बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी इलाकाई यूनियनें भी बनायें। अपनी आज़ादी के लिए, अपने बच्चों के भविष्य के लिए, इन्सानों की तरह जीने के लिए और ये दिखाने के लिए कि हम हारे नहीं हैं, हमें एकजुट होने की शुरुआत करनी ही होगी।

इंक़लाबी अभिवादन के साथ,

मई दिवस के अवसर पर ' बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन ' द्वारा जारी परचा


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दुनिया के मज़दूरो एक हो !
धर्म-जाति के सौदागरों के जाल में मत फँसो !!

मज़दूरी-प्रथा की ग़ुलामी का ख़ात्मा हो !
इन्क़लाब ज़िंदाबाद !!

मई दिवस : क्रांतिकारी विरासत को याद करें !
शोषण- दमन व बेरोजगारी से मुक्ति के लिए पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष करें !!

मज़दूर- मेहनतकश साथियो ,
1 मई ' मज़दूर दिवस ' हमारे लंबे संघर्ष और उससे हासिल अधिकारों का प्रतीक है । यह दुनियाभर के मज़दूरों की एकजुटता के उत्सव का दिन है ।पहले मालिक सोलह घंटे तक काम लेते थे ।इस स्थिति को देखकर समाजसुधारक रॉबर्ट ओवन ने कहा था कि आदमी को आठ घंटे ही काम करना चाहिए ताकि बचे समय का उपयोग शिक्षा , मनोरंजन और आराम करने में किया जा सके ।फिर , 1886 ई. में ' अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संघ ' ने काम के आठ घंटे की सीमा के कानून की मांग रखी ।इसी मांग को लेकर अमेरिका के मज़दूरों ने पहली मई 1886 ई. को अनेक शहरों में हड़ताल और प्रदर्शन किया था । दो दिनों बाद , 3 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों पर पुलिस ने गोली चला दी जिसमे चार निहत्थे मज़दूर मारे गए थे । 4 मई को हे मार्केट में हत्या के खिलाफ सभा हुई । सभा में पूँजीपति वर्ग के उकसावेबाज चाटुकारों ने अराजकता फैलाई और पुलिस ने फिर दस निर्दोष मज़दूरों को मौत के घाट उतार दिया । फिर उल्टे , मज़दूर नेताओं - पार्संस ( प्रिंटिंग मज़दूर ) , स्पाइस ( फर्नीचर कारीगर ) , फिशर ( प्रिंटिंग मज़दूर ) और एंजेल ( खिलौना बेचनेवाला ) - को 11 नवम्बर को फांसी दे दी गई । 1889 ई. में कई देशों के मज़दूर प्रतिनिधि  पेरिस में जमा हुए और उन्होंने पहली मई को हर साल मज़दूरों के अंतरराष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने का फैसला किया । इस दिन मज़दूर इस संकल्प को दुहराते हैं कि जबतक पूरी दुनिया से मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म नहीं हो जाता , तब तक संघर्ष जारी रहेगा ।
                          हमें भूलना नहीं चाहिए कि रूस के मज़दूर पहले संगठित हुए , उन्होंने अपनी पार्टी बनाई , क्रांति की और शासन अपने हाथ में लेकर समाजवादी समाज की नींव रखी । वहाँ सप्ताह में पाँच दिनों और सात घंटे का कार्य-दिवस लागू हुआ । इतना ही नहीं , वहाँ बेरोजगारी , वैश्यावृत्ति का ख़ात्मा हो गया ।मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी ताकत से डरकर कई पूंजीवादी सरकारों ने आठ घंटे काम का कानून पास किया ।मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को रोजगार-सुरक्षा , सामाजिक-सुरक्षा , पेंशन आदि सुविधाएँ मिलीं, जबकि मज़दूरों की विशाल संख्या को हवाई घोषणाएँ और झूठी दिलासा । आपने देश में भी छह-सात प्रतिशत मज़दूर और उनकी यूनियनें कुछ सुविधा पाकर अपने खोल में सिमट गईँ और बाकी मज़दूरों से अपने को काट लिया । इतना ही नहीं , इन सुविधाप्राप्त मज़दूरों ने इस झूठे विचार - पूंजीवादी व्यवस्था में ही धीरे-धीरे मेहनतकशों का जीवन बेहतर होता जाएगा - के झाँसे में आकर पूंजीवाद के खात्मे का अभियान ही छोड़ दिया ।लेकिन पूँजीपति वर्ग के राजनेता-विचारक मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने के लिए उसे देश ,प्रदेश , भाषा , धर्म , जाति आदि आधारों पर बाँटने में दिन-रात पिले रहे ।आज जब मज़दूर वर्ग विभाजित है और आंदोलन कमज़ोर पड़ गया है तो संगठित क्षेत्र के मज़दूरों से सुविधाएँ छीनी जा रही हैं ।असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हालत काम मिलने की अनिश्चितता व कम मज़दूरी के चलते बदतर होती जा रही है । उनके जीवन की कोई सुरक्षा नहीं है ।मज़दूर-परिवारों के बहुत सारे बच्चे तो शिक्षा पाने की स्थिति में ही नहीं हैं और जो किसी तरह पढ़ रहे हैं , उनके लिए मँहगी होती शिक्षा के चलते पढ़ाई जारी रखना असंभव दिख रहा है ।सामान्य बीमारी का इलाज भी उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है ।
शोषण- उत्पीड़न के मामले में जब पूंजी के मालिक एक हैं, संगठित हैं तब श्रमिक जुझारू यूनियन में संगठित होकर ही अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं , अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं ।मज़दूर वर्ग की एकता से पूँजीपति वर्ग और उसकी पार्टियाँ परेशान रहती हैं , इसलिए धर्म , जाति आदि के आधार पर मज़दूरों में एक-दूसरे के प्रति घृणा फैलातीं हैं ।ऐसी पार्टियाँ मज़दूर वर्ग की दुश्मन हैं ।हाल ही में पूरे देश में जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम दंगे कराए गए ।दंगों का सबसे आसान शिकार मज़दूर व उनकी बस्तियाँ ही होती हैं ।दंगों के दौरान काम के ठप्प पड़ने से मज़दूरों के भूखों मरने की नौबत आ जाती है ।लेकिन मज़दूर बर्ग में दरार पड़ने पर शोषक वर्ग जश्न मनाता है । इसलिए हम मज़दूरों को मालिकों के साजिशों का भंडाफोड़ करते हुए , उनकी बाँटने की नीति का विरोध करते हुए हर हाल में एकता बनाए रखनी होगी और कहीं भी मज़दूरों पर हो रहे दमन के खिलाफ खड़ा होना होगा ।
साथियो , एक मज़दूर का हित पूरे मज़दूर वर्ग के हित के साथ जुड़ा हुआ है ।एक मज़दूर के जीवन में खुशहाली तभी आ सकती है जब मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग के शासन से मुक्त होकर समाजवादी समाज की स्थापना करेगा , जिसमे न निजी संपत्ति होगी , न मालिक-मज़दूर और न किसी प्रकार का शोषण । इसलिए आइए , हम एकजुट होकर अपने संघर्ष के इतिहास को याद करें , उससे प्रेरणा और ताकत बटोरें , अपने संगठन को मज़बूत करें और पूंजीवाद के खात्मे के लक्ष्य के साथ अपने रोजमर्रे के संघर्ष को आगे बढ़ाएँ - मई दिवस का यही सन्देश है ।
पूंजीवाद मुर्दाबाद !.... मई दिवस ज़िंदाबाद !!

क्रांतिकारी अभिनंदन के साथ
बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन

नोट- 01 मई , 2018 मंगलवार को सात बजे सुबह पटना में सिपारा पुल के नीचे आयोजित सभा में शामिल हों ।

मई दिवस के अमर शहीदों को लाल सलाम!✊

🔴मई दिवस के अमर शहीदों को लाल सलाम!✊


—इंकलाबी मजदूर केंद्र के साथियों ने मजदूर दिवस को याद करते हुए आज 27 अप्रैल 2022 को सैक्टर-4 पटेल नगर मजदूर बस्ती में मजदूरों के बीच पर्चा वितरण व नुक्कड़ सभा किया गया।
1 मई दिन रविवार को #जनसभा, शाम 4:30 बजे से,  सैक्टर-24, सामुदायिक भवन, आजाद नगर, फरीदाबाद. शामिल होने का अह्वान किया गया! 
⚫मई दिवस का पैगाम - जारी रखना है संग्राम!
⚫ मजदूर दिवस के अमर शहीदों को क्रांतिकारी सलाम! 
⚫ 8 घंटे काम के अधिकार की लड़ाई में शहीद हुए मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सन्स, आगस्ट स्पाइस, एडाल्फ फिशर, जार्ज एंजेल को लाल सलाम!
⚫8 घंटे काम के अधिकार पर हमला नहीं सहेगें! 
⚫ मजदूर विरोधी 4 लेबर कोड रद्द करो! 

⚫ उठो मजदूरों करो तैयारी खत्म करो ये ठेकेदारी! 
⚫नई गुलामी ठेका प्रथा के खिलाफ एकजुट हो! 
⚫यूनियन बनाने व हड़ताल के अधिकार पर हमला नहीं सहेगें! 
⚫ महिला मजदूरों को समान काम का समान वेतन दो! 
⚫सरकारी उपक्रमों का नीजिकरण करना बंद करो! 
⚫ बढ़ती हुई महंगाई पर रोक लगाओं! 
⚫ न्यूनतम वेतन 25000 रुपये लागू करो! 
⚫ कौन बनाता हिन्दुस्तान भारत का मजदूर किसान! 
⚫ पूंजीवाद साम्राज्यवाद, फासीवाद का एक जवाब इंकलाब जिंदाबाद!

पहली मई

पहली मई को मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा त्यौहार 'अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस' पूरे जोशो-खरोश से मनाते हुए- पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष तेज़ करो! – संपादकीय 

पहली मई को दुनिया के मज़दूरों का सबसे बड़ा दिन, सबसे बड़ा त्यौहार अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस आ रहा है। हर वर्ष की तरह इस बार भी पूरी दुनिया में मज़दूर जलसों, जुलूसों, रैलियाँ, हड़तालों द्वारा मज़दूर दिवस के शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि देंगे, मज़दूरों-मेहनतकशों के पूँजीवादी-साम्राज्यवादी लूट-दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हुए अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करेंगे।

अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस सारी दुनिया के मज़दूरों को देश, राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, रंग, नस्ल आदि भेद मिटाने और सभी देशों के मज़दूरों की एकता कायम करने का आह्वान करता है। यह दिन मज़दूरों को बताता है कि पूँजीवादी लूट-शोषण के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष के अलावा मज़दूरों के पास बेहतर जि़ंदगी जीने का और कोई रास्ता नहीं है। मज़दूरों को कभी भी कोई अधिकार बिना संघर्ष के नहीं मिला है। जब तक पूँजीवाद रहेगा, मज़दूर-मेहनतकश बर्बाद रहेगा। इस दिन का इतिहास इस बात का गवाह भी है कि पूँजीवादी लूटेरे हुक्मरान चाहे जितना ज़ोर लगा लें, दमन, ज़ोर-जुल्म-अत्याचार का चाहे जितना भी क़हर बरपा कर लें, वे लूट-दमन के ख़िलाफ़ मज़दूरों की आवाज़ हमेशा के लिए दबा कर नहीं रख सकते।

मौजूदा समय में जब दुनिया-भर में मज़दूरों-मेहनतकशों का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण बेहद तीखा हो चुका है। मज़दूर एकता के न होने से क़ुर्बानियों भरे संघर्षों की बदौलत हासिल किए गए अधिकार हुक्मरानों द्वारा एक-एक करके छीने जाते रहे हैं। भारत में हालाँकि सभी पार्टियों की सरकारों ने मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों के निर्मम शोषण के लिए पूरा ज़ोर लगाया है, लेकिन फासीवादी संगठन आर.एस.एस. की राजनीतिक शाखा भाजपा के सत्ता में आने से शोषण कई गुणा बढ़ गया है। ऐसे समय में मज़दूर वर्ग के लिए अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रांतिकारी विरासत का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है। यह ज़रूरी है कि हम मई दिवस की क्रांतिकारी विरासत को आत्मसात करते हुए, विशाल मज़दूर आबादी तक पहुँचाएँ, संगठित करें, पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए आगे बढ़ें।

अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस का महान इतिहास

पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर शुरू से ही भयानक शोषण का शिकार रहे हैं। 19वीं सदी में काम के घंटों की कोई सीमा नहीं थी। ऐसे समय में अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने आठ घंटे काम की दिहाड़ी के लिए मज़दूरों को संगठित किया। अमरीका की मज़दूर यूनियनों द्वारा लंबी तैयारी के बाद पहली मई 1886 को कई शहरों में मज़दूरों की एक बड़ी हड़ताल हुई। उन्होंने मालिकों और सरकार के सामने माँग रखी कि एक दिहाड़ी में काम का समय आठ घंटे हो। उनका नारा था – "आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन!" शिकागो शहर में तो सारे कारख़ाने ठप्प कर दिए गए। डरा-धमकाकर, लालच देकर हड़ताल तोड़ने की कोशिश हुई, लेकिन मज़दूर नहीं झुके। पुलिस ने पूँजीपतियों के इशारे पर मज़दूर जलसे पर गोली चलाई।

कई स्त्री-पुरुष मज़दूर और बच्चे मारे गए। मज़दूरों का सफ़ेद झंडा ख़ून से लाल हो गया। इसके ख़िलाफ़ अगले दिन शिकागो की हे-मार्केट में मज़दूर सभा हुई। इसे विफल करने के लिए पुलिस के एजंटों ने सभा में बम फेंका, जिसमें कई मज़दूर और कुछ पुलिस वाले मारे गए। दोष आठ मज़दूर नेताओं पर लगा दिया गया। अल्बर्ट पार्संस, आगस्त स्पाइस, जॉर्ज एंजेल, एडॉल्फ़ फि़शर, सैमुअल फ़ील्डेन, माइकेल श्वाब, लुइस लिंग्ग और आस्कर नीबे पर झूठा मुक़द्दमा चला। मुक़द्दमे के लंबे नाटक के बाद अदालत ने 7 मज़दूर नेताओं को सज़ा-ए-मौत और एक को पंद्रह साल क़ैद बामशक़्क़त की सज़ा सुनाई। पार्संस, फ़िशर, स्पाइस और एंजेल को फाँसी दे दी गई। लुइस लिंग्ग को जेल में ही शहीद कर दिया गया। बाद में जब जन दबाव के कारण पुलिस की साज़िश का पर्दाफ़ाश हो गया तो जेल में बंद बाक़ी तीन मज़दूर नेताओं को बरी करना पड़ा। मालिकों ने सोचा था कि मज़दूरों का ख़ून बहाकर, मज़दूर नेताओं को फाँसी पर चढ़ाकर और जेलों में ठूँसकर मज़दूरों की आवाज़ दबा देंगे, लेकिन उनके मंसूबे पूरे न हो सके। शहीदों को अंतिम विदाई देने छ: लाख से अधिक मज़दूर और आम लोग पहुँचे। आगे चलकर पूरी दुनिया में मज़दूर संघर्ष और तीखा हुआ। सरकारों को आठ घंटे काम की दिहाड़ी का क़ानून बनाना पड़ा। दुनिया के विभिन्न देशों के मज़दूरों के क्रांतिकारी संगठन 'पहली इंटरनेश्नल ने 1890 से हर वर्ष पहली मई को दुनिया-भर में अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। तब से दुनिया में मज़दूर हर वर्ष 1 मई को हाथों में क्रांति का लाल झंडा लिए मई दिवस के शहीदों को याद करते हैं और आगे के संघर्ष के लिए प्रेरणा लेते हैं।

भारत में, अंग्रेज़ी गु़लामी के समय 1862 में पहली बार हावड़ा के रेल मज़दूरों ने आठ घंटे की काम की दिहाड़ी की माँग रखी। बंबे के कपड़ा मज़दूरों ने काम के घंटे घटाए जाने के लिए 1902-03 में ज़बरदस्त हड़तालों द्वारा अंग्रेज़ और भारतीय पूँजीपतियों को ज़बरदस्त टक्कर दी थी। यह संघर्ष बढ़ता ही गया। आंदोलन के दम पर ही आठ घंटे काम की दिहाड़ी, न्यूनतम वेतन, यूनियन बनाने के अलावा विभिन्न क्षेत्रों के मज़दूरों के लिए बहुत से संवैधानिक श्रम अधिकार प्राप्त किए। लेकिन मज़दूरों की एकता बिखरने से धीरे-धीरे ये अधिकार छिनते गए हैं। अधिकतर कारख़ानों और अन्य काम की जगहों पर तो ये श्रम अधिकारों से संबंधित क़ानून पहले ही लागू नहीं होते थे, लेकिन अब तो केंद्र की मोदी सरकार ने दर्जनों पुराने श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके चार नए श्रम क़ानून (कोड) बना दिए हैं। ऐसा करते हुए मोदी सरकार ने मज़दूरों के बहुत से अधिकारों को छीन लिया है, मज़दूरों को और अधिक पूँजीपतियों की गु़लामी के गढ्ढे में धकेलने का काम किया है।

अपने महान इतिहास से सीखकर हमें न सिर्फ़ छीने जा रहे तमाम अधिकारों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी है, बल्कि दूसरे मेहनतकशों को साथ लेते हुए, उनका नेतृत्व करते हुए मज़दूर वर्ग को शोषण पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना है और मज़ूदरों के राज वाले समाजवादी समाज का निर्माण करना है, जहाँ उत्पादन के साधनों पर मज़दूरों-मेहनतकशों का क़ब्ज़ा होगा।

विश्व मज़दूर आंदोलन का यह अहम सबक़ है कि मज़दूर वर्ग की देश स्तर पर संगठित क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बिना क्रांति संभव नहीं। एक ऐसी पार्टी जो एक ओर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों पर अडिग हो और दूसरी ओर कठमुल्लावाद का शिकार भी ना हो। क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी खुलेआम सदस्यता बाँटने वाली ढीली-ढाली पार्टी नहीं हो सकती। यह एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं पर आधारित लौह अनुशासन वाली, जनसंघर्षों में तपी बोल्शेविक पार्टी जैसी पार्टी ही हो सकती है, जिसकी कोर पेशेवर क्रांतिकारी हों। विश्व मज़दूर आंदोलन का एक अहम सबक़ यह भी है कि क्रांति कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता की एक हथियारबंद बग़ावत के ज़रिए ही संभव हो सकती है। यह लाज़िमी है कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने जन्म से ही गुप्त और ग़ैर-क़ानूनी ढाँचा क़ायम करे और इसे और निखारती जाए। पार्टी को गुप्त और खुले, ग़ैर-क़ानूनी और क़ानून ढाँचे का सुमेल करना पड़ेगा। वर्ग सचेत मज़ूदरों को ऐसी क्रांतिकारी पार्टी बनाने की कोशिशों को तेज़ करना होगा। अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रांतिकारी परंपरा को सही मायनों में इसी तरह आगे बढ़ाया जा सकता है।

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित

मज़दूर दिवस सम्मेलन, लुधियाना के संबंध में जारी पर्चा-पोस्टर

मज़दूर दिवस सम्मेलन, लुधियाना के संबंध में जारी पर्चा-पोस्टर
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दुनिया के मज़दूरो एक हो!                                                  
पूँजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!

मज़दूर शहीदों का पैग़ाम, जारी रखना है संग्राम!

1 मई को मज़दूरों का सबसे बड़ा त्यौहार अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस 
जोशो-खरोश से मनाते हुए पूँजीवादी शोषण के खिलाफ़ संघर्ष आगे बढ़ाओ!

मज़दूर दिवस सम्मेलन  
में बड़ी से बड़ी संख्या में पहुँचो!

1 मई 2022, (दिन रविवार), सुबह 11 बजे

स्थान- कारखाना यूनियन कार्यालय/शहीद भगतसिंह पुस्तकालय के सामने पार्क में (राशन डिपो के साथ), एल.आई.जी. कालोनी (राजीव गाँधी कालोनी और एच.ई. फ्लैटों के साथ स्थित), जमालपुर कालोनी, लुधियाणा

सम्मेलन में क्रांतिकारी नाटक और गीतों का सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होगा

पहली मई को मज़दूरों का सबसे बड़ा दिन, सबसे बड़ा त्यौहार – अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस – दुनिया के कोने-कोने में जोशो-खरोश से मनाया जाएगा। यह किसी प्रकार का कर्मकांड या रस्म-अदायगी करने का दिन नहीं हैं। पहली मई को सारे संसार के मज़दूर सम्मेलन, रैलियाँ, हड़तालें, प्रदर्शन करके महान मज़दूर शहीदों को याद करेंगे, उनके विचारों, संघर्षों, कुर्बानियों से प्रेरणा लेंगे। मज़दूर वर्ग समेत तमाम मेहनतकशों की पूँजीपति हुक्मरानों द्वारा लूट-शोषण को पूरी धरती से मिटाने के अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के मिशन को आगे बढ़ाने के नए संकल्प लेंगे। मौजूदा समय में पूँजीवादी-साम्राज्यवादी हुक्मरानों द्वारा पेश की जा रही चुनौतियों पर विचार करते हुए भविष्य के संघर्षों की रूप-रेखा पर विचार करेंगे। लाल झंडे और गगनभेदी नारे बुलंद करते हुए, दुनिया के कोने-कोने में सड़कों पर उतरे मज़दूर पूँजीपतियों को बताएँगे कि भले ही तुम आज ताक़त से हर किसी चीज़ पर क़ब्ज़ा जमाए बैठे हो, लेकिन तुम्हारा जु़ल्मों-सितम मज़दूर वर्ग के इंक़लाबी इरादों को, पूँजीवादी शोषण को जड़ से मिटाने के ऐतिहासिक मिशन को रौंद नहीं सकता। मज़दूर वर्ग के इंक़लाबी संघर्षों से एक दिन ज़रूर ऐसा आएगा, जब लूट पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था मिट्टी में मिला दी जाएगी। जब मेहनत करने वालों को उनकी मेहनत का पूरा फल मिलेगा। जब देश, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता आदि के नाम पर किसी का शोषण नहीं होगा। जब इंसान के हाथों इंसान का शोषण असंभव हो जाएगा।

मौजूदा समय में जब दुनिया-भर में मज़दूरों-मेहनतकशों का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण बेहद तीखा हो चुका है। मज़दूर एकता के न होने से कुर्बानियों भरे संघर्षों की बदौलत हासिल किए गए अधिकार हुक्मरानों द्वारा एक-एक करके छीने जाते रहे हैं। भारत में हालाँकि सभी पार्टियों की सरकारों ने मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों के निर्मम शोषण के लिए पूरा ज़ोर लगाया है, लेकिन फासीवादी संगठन आर.एस.एस. की राजनीतिक शाखा भाजपा के सत्ता में आने से शोषण कई गुणा बढ़ गया है। लंबे कुर्बानियों भरे संघर्षों की बदौलत जीते गए क़ानूनी श्रम अधिकारों पर बड़ा डाका डालते हुए मोदी सरकार ने पुराने दर्जनों श्रम क़ानूनों की जगह चार नए श्रम क़ानून बना दिए हैं, जिसके ज़रिए मज़दूरों को पूँजीपतियों की पहले से कहीं अधिक गुलामी के गढ्ढे में धकेला गया है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के पक्ष में लागू की जा रही वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के चलते मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों से भोजन, दवा-इलाज, शिक्षा, परिवहन आदि ज़रूरतों से संबंधित सरकारी सुविधाएँ बड़े स्तर पर छीनी जा चुकी हैं। जनसंघर्षों को कुचलने के लिए जहाँ दमन का ढाँचा सख्त से सख्त बनाया जा रहा है, वहीं जनता को धर्म, जाति के आधार पर बाँटने, दबाने का सिलसिला भी दिन-ब-दिन तेज़ होता गया है। 

ऐसे घनघोर अँधेरे समय में मज़दूर वर्ग के लिए अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रांतिकारी विरासत का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है। यह ज़रूरी है कि हम मई दिवस की क्रांतिकारी विरासत को आत्मसात करते हुए, विशाल मज़दूर आबादी तक पहुँचाएँ। मज़दूरों के विशाल संगठन बनाएँ, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष तेज़ करें। 

मज़दूर दिवस की महान क्रांतिकारी विरासत

पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर शुरू से ही भयानक शोषण का शिकार रहे हैं। 19वीं सदी में काम के घंटों की कोई सीमा नहीं थी। ऐसे समय में अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने आठ घंटे काम की दिहाड़ी के लिए मज़दूरों को संगठित किया। अमरीका की मज़दूर यूनियनों द्वारा लंबी तैयारी के बाद पहली मई 1886 को कई शहरों में मज़दूरों की एक बड़ी हड़ताल हुई। उन्होंने मालिकों और सरकार के सामने माँग रखी कि एक दिहाड़ी में काम का समय आठ घंटे हो। उनका नारा था – "आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन!" शिकागो शहर में तो सारे कारख़ाने ठप्प कर दिए गए। डरा-धमकाकर, लालच देकर हड़ताल तोड़ने की कोशिश हुई, लेकिन मज़दूर नहीं झुके। पुलिस ने पूँजीपतियों के इशारे पर मज़दूर जलसे पर गोली चलाई। कई स्त्री-पुरुष मज़दूर और बच्चे मारे गए। मज़दूरों का सफे़द झंडा ख़ून से लाल हो गया। इसके खिलाफ़ अगले दिन शिकागो की हे-मार्केट में मज़दूर सभा हुई। इसे विफल करने के लिए पुलिस के एजंटों ने सभा में बम फेंका जिसमें कई मज़दूर और कुछ पुलिस वाले मारे गए। दोष आठ मज़दूर नेताओं पर लगा दिया गया। अल्बर्ट पार्संस, आगस्त स्पाइस, जॉर्ज एंजेल, एडॉल्फ़ फि़शर, सैमुअल फ़ील्डेन, माइकेल श्वाब, लुइस लिंग्ग और आस्कर नीबे पर झूठा मुक़द्दमा चला। मुक़द्दमे के लंबे नाटक के बाद अदालत ने 7 मज़दूर नेताओं को सज़ा-ए-मौत और एक को पंद्रह साल कै़द बामशक्कत की सज़ा सुनाई। पार्संस, फ़िशर, स्पाइस व एंजेल को फाँसी दे दी गई। लुइस लिंग्ग को जेल में ही शहीद कर दिया गया। बाद में जब जन दबाव के कारण पुलिस की साजिश का पर्दाफाश हो गया तो जेल में बंद बाकी तीन मज़दूर नेताओं को बरी करना पड़ा। मालिकों ने सोचा था कि मज़दूरों का खून बहाकर, मज़दूर नेताओं को फाँसी पर चढ़ाकर व जेलों में ठूँसकर मज़दूरों की आवाज़ दबा देंगे लेकिन उनके मंसूबे पूरे न हो सके। शहीदों को अंतिम विदाई देने छ: लाख से अधिक मज़दूर और आम लोग पहुँचे। आगे चलकर पूरी दुनिया में मज़दूर संघर्ष और तीखा हुआ। सरकारों को आठ घंटे काम की दिहाड़ी का क़ानून बनाना पड़ा। दुनिया के विभिन्न देशों के मज़दूरों के क्रांतिकारी संगठन 'पहली इंटरनेशनल ने 1890 से हर वर्ष पहली मई को दुनिया-भर में अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। तब से दुनिया में मज़दूर हर वर्ष 1 मई को हाथों में क्रांति का लाल झंडा लिए मई दिवस के शहीदों को याद करते हैं और आगे के संघर्ष के लिए प्रेरणा लेते हैं।

भारत में, अंग्रेज़ी गुलामी के समय 1862 में पहली बार हावड़ा के रेल मज़दूरों ने आठ घंटे की काम की दिहाड़ी की माँग रखी। बंबे के कपड़ा मज़दूरों ने काम के घंटे घटाए जाने के लिए 1902-03 में ज़बरदस्त हड़तालों द्वारा अंग्रेज व भारतीय पूँजीपतियों को जबरदस्त टक्कर दी थी। यह संघर्ष बढ़ता ही गया। आंदोलन के दम पर ही आठ घंटे काम की दिहाड़ी, न्यूनतम वेतन, यूनियन बनाने के अलावा विभिन्न क्षेत्रों के मज़दूरों के लिए बहुत से संवैधानिक श्रम अधिकार प्राप्त किए। लेकिन मज़दूरों की एकता बिखरने से धीरे-धीरे ये अधिकार छिनते गए हैं। 

हमें अपने महान इतिहास से सीखकर न सिर्फ़ अधिकारों के छीने जाने के खिलाफ़ लड़ाई लड़नी है बल्कि दूसरे मेहनतकशों को साथ में लेते हुए, उनका नेतृत्व करते हुए मज़दूर वर्ग को शोषण पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना है और मज़ूदरों के राज वाले समाजवादी समाज का निर्माण करना है जहाँ उत्पादन के साधनों पर मज़दूरों-मेहनतकशों का क़ब्जा होगा, क्योंकि ऐसे समाज के निर्माण से ही मज़दूरों-मेहनतकशों के शोषण का खात्मा हो सकता है।

आयोजक संगठन
कारखाना मज़दूर यूनियन और टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन

सहयोग- नौजवान भारत सभा और पेंडू मज़दूर यूनियन (मशाल)
संपर्क नं. - 9646150249, 9888655663

लखविंदर सिंह द्वारा शहीद भगतसिंह पुस्तकालय, जमालपुर कालोनी, लुधियाना से 8 अप्रैल 2022 को प्रकाशित। उन्हीं द्वारा ब्राइट प्रिंटर्ज, जालंधर से छपवाया।

मई दिवस के अमर शहीद अल्बर्ट पार्सन्स

"हमारी मौत दीवार पर लिखी इबारत बन जायेगी"

मई दिवस के अमर शहीद अल्बर्ट पार्सन्स द्वारा पत्नी व बच्चों को लिखे दो ख़त

अल्बर्ट पार्सन्स मई दिवस के उन चार शहीदों में से एक थे, जिन्होंने मज़दूरों के हक़ और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, और क़ुर्बानी दी। जेल की काल कोठारी से अपनी पत्नी लुसी पार्सन्स व बच्चों को लिखे पत्र मानवता के प्रति उनके प्रेम, आशावाद और जिंदादिली की मिसाल है। उनके दो अविस्मरणीय पत्र प्रस्तुत है :

पत्नी लुसी के नाम अल्बर्ट पार्सन्स का पत्र
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पत्नी लुसी पर्सन्स
मेरी प्रिय पत्नी :

आज सुबह हमारे बारे में हुए फैसले से पूरी दुनिया के अत्याचारियों में ख़ुशी छा गयी है, और शिकागो से लेकर सेण्ट पीटर्सबर्ग तक के पूँजीपति आज दावतों में शराब की नदियाँ बहायेंगे। लेकिन, हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत बन जायेगी जो नफ़रत, बैर, ढोंग-पाखण्ड, अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार और इन्सान के हाथों इन्सान की ग़ुलामी के अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के दबे-कुचले लोग अपनी क़ानूनी बेड़ियों में कसमसा रहे हैं। विराट मज़दूर वर्ग जाग रहा है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी ज़ंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफ़ान में नरकुल टूट जाते हैं।

हम सब परिस्थितियों के वश में होते हैं। हम वैसे ही हैं जो परिस्थितियों ने हमें बनाया। यह सच दिन-ब-दिन साफ़ होता जा रहा है।

ऐसा कोई सबूत नहीं था कि जिन आठ लोगों को मौत की सज़ा सुनायी गयी है उनमें से किसी को भी हे-मार्केट की घटना की जानकारी थी, या उसने इसकी सलाह दी या इसे भड़काया। लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। सुविधाभोगी वर्ग को एक शिकार चाहिए था, और करोड़पतियों की पाग़ल भीड़ की ख़ून की प्यासी चीख़-पुकार को शान्त करने के लिए हमारी बलि चढ़ायी जा रही है क्योंकि हमारी जान से कम किसी चीज़ से वे सन्तुष्ट नहीं होंगे। आज एकाधिकारी पूँजीपतियों की जीत हुई है! ज़ंजीर में जकड़ा मज़दूर फाँसी के फन्दे पर चढ़ रहा है क्योंकि उसने आज़ादी और हक़ के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत की है।

मेरी प्रिय पत्नी, मुझे तुम्हारे लिए और हमारे छोटे-छोटे बच्चों के लिए अफ़सोस है।

मैं तुम्हें जनता को सौंपता हूँ, क्योंकि तुम आम लोगों में से ही एक हो। तुमसे मेरा एक अनुरोध है – मेरे न रहने पर तुम जल्दबाज़ी में कोई काम नहीं करना, पर समाजवाद के महान आदर्शों को मैं जहाँ छोड़ जाने को बाध्य हो रहा हूँ, तुम उन्हें और ऊँचा उठाना।

मेरे बच्चों को बताना कि उनके पिता ने एक ऐसे समाज में, जहाँ दस में से नौ बच्चों को ग़ुलामी और ग़रीबी में जीवन बिताना पड़ता है, सन्तोष के साथ जीवन बिताने के बजाय उनके लिए आज़ादी और ख़ुशी लाने का प्रयास करते हुए मरना बेहतर समझा। उन्हें आशीष देना; बेचारे छौने, मैं उनसे बेहद प्यार करता हूँ। आह, मेरी प्यारी, मैं चाहे रहूँ या न रहूँ, हम एक हैं। तुम्हारे लिए, जनता और मानवता के लिए मेरा प्यार हमेशा बना रहेगा। अपनी इस कालकोठरी से मैं बार-बार आवाज़ लगाता हूँ : आज़ादी! इन्साफ़! बराबरी!

– अल्बर्ट पार्सन्स

कुक काउण्टी बास्तीय जेल, कोठरी नं. 29, शिकागो, 20 अगस्त, 1886

अल्बर्ट पार्सन्स का अपने बच्चों के नाम पत्र
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मेरे प्यारे बच्चों,

अल्बर्ट आर. पार्सन्स (जूनियर) और बेटी लुलु एडा पार्सन्स,

मैं ये शब्द लिख रहा हूँ और मेरे आँसू तुम्हारा नाम मिटा रहे हैं। हम फिर कभी नहीं मिलेंगे। मेरे प्यारे बच्चों, तुम्हारा पिता तुम्हें बहुत प्यार करता है। अपने प्रियजनों के प्रति अपने प्यार को हम उनके लिए जीकर प्रदर्शित करते हैं और जब आवश्यकता होती है तो उनके लिए मरकर भी। मेरे जीवन और मेरी अस्वाभाविक और क्रूर मृत्यु के बारे में तुम दूसरे लोगों से जान लोगे। तुम्हारे पिता ने स्वाधीनता और प्रसन्नता की वेदी पर अपनी बलि दी है। तुम्हारे लिए मैं एक ईमानदारी और कर्तव्यपालन की विरासत छोड़े जा रहा हूँ। इसे बनाये रखना, और इसी रास्ते पर आगे बढ़ना। अपने प्रति सच्चे बनना, तभी तुम किसी दूसरे के प्रति भी कभी दोषी नहीं हो पाओगे। मेहनती, गम्भीर और हँसमुख बनना। और तुम्हारी माँ! वह बहुत महान है। उसे प्यार करना, उसका आदर करना और उसकी बात मानना।

मेरे बच्चों! मेरे प्यारों! मैं आग्रह करता हूँ कि इस विदाई सन्देश को मेरी हरेक बरसी पर पढ़ना, और मुझमें एक ऐसे इन्सान को याद करना जो सिर्फ तुम लोगों के लिए ही नहीं बल्कि भविष्य की आने वाली पीढ़ियों के लिए क़ुरबान हुआ।

ख़ुश रहो, मेरे प्यारों! विदा!

तुम्हारा पिता

अल्बर्ट आर. पार्सन्स

कालकोठरी नम्बर-7, कुक काउण्टी जेल, शिकागो, 9 नवम्बर, 1887

मई दिवस : मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी संघर्ष

🔴मई दिवस : मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी संघर्ष

Www.enagrik.com (1-15May 2020) 

मई दिवस पूरी दुनिया में 1 मई को मनाया जाता है। यह दिन मजदूर वर्ग के 8 घंटे काम के दिन के संघर्ष के रूप में जाना जाता है। '8 घंटे काम, 8 घंटे आराम और 8 घंटे मनोरजंन' के नारे के तहत  1 मई 1886 में शिकागो शहर के मजदूरों की शानदार हड़ताल और 4 मई को शिकागो शहर में हे मार्केट की घटना के बाद मजदूरों के नेता पार्सन्स, फिशर, एंजेल्स और स्पाइस को फांसी देने की पूंजीपति वर्ग और उसकी संस्थाओं की हठधर्मिता ने 1 मई को पूंजी व श्रम के बीच वर्ग संघर्ष में एक मील का पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया। और 1889 से 1 मई को वैश्विक स्तर पर मजदूरों के 8 घंटे काम के संघर्ष के रूप में मनाया जाने लगा।

मानव समाज के वर्ग संघर्ष के इतिहास में जब पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की शुरूआत हुयी तब उसने मजदूरों के शोषण करने के नये-नये कीर्तिमान रचे। उसने केवल पुरुष मजदूरों के ही नहीं बल्कि महिलाओं व छोटे-छोटे बच्चों के शरीर से भी खून की आखिरी बूंद को अपने मुनाफे में ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूंजीपतियों द्वारा कल-कारखानों व खदानों में मजदूरों से काम कराने और मुनाफा कमाने के तरीकों ने दास मालिकों को भी पीछे छोड़ दिया था। 

पूंजीपतियों द्वारा 18-18 घंटे तक काम कराने के खिलाफ मजदूर वर्ग का प्रतिरोध भी हुआ साथ ही इंग्लैण्ड में संसद में मौजूद कुछ उदार हृदय के सांसदों ने काम के इन अत्यधिक घंटों के खिलाफ आवाज भी उठायी, साथ ही कुछ फैक्टरी इंस्पेक्टरों ने भी संसद के समक्ष अपनी रिपोर्टों में मजदूरों से अत्यधिक काम लेने की बुराईयों का जिक्र किया। लेकिन शुरू में यह केवल बच्चों व महिलाओं तक ही सीमित था। बच्चों व महिलाओं के लिए काम के दिन के घण्टे कम करने के कानून भी बने। महिलाओं को लड़के-लड़कियों के समान समझा गया। 7 जून 1844 को अतिरिक्त फैक्टरी अधिनियम के तहत 18 वर्ष के ज्यादा उम्र की महिलाओं को संरक्षण मिला और उनके लिए 12 घण्टे काम का दिन तय हुआ। 8 से 13 वर्ष के बच्चों के बारे में 1844 का अधिनियम कहता है कि वे साढ़े सात घण्टे काम करेंगे। 

लेकिन पूंजीपतियों ने काम के घण्टे कम करने के इन अधिनियमों को कभी भी नहीं स्वीकार किया और उनको तोड़ा। साथ ही उन्होंने दबाव के तरीके भी अपनाये ताकि सरकार को मजबूर किया जा सके कि वे इन कानूनों को रद्द करें। जब 1846 में कपास संकट पैदा हुआ तो उन्होंने मजदूरी में 10 प्रतिशत तक की कमी कर दी और 1 जुलाई 1847 को काम के घंटे 11 करने पर मजदूरी में 8.33 प्रतिशत की कटौती कर दी। 1 मई 1848 को काम के घण्टे 10 करने पर उन्होंने मजदूरी में 16.66 प्रतिशत की कटौती करने की धमकी दी। फलस्वरूप 8 फरवरी 1850 को यह कानून रद्द कर दिया गया। कानून के रद्द होने के फलस्वरूप मजदूरों का प्रतिरोध बढ़ गया। उसके बाद 5 अगस्त 1850 को अतिरिक्त फैक्टरी अधिनियम बना जिसके अनुसार लड़के-लड़कियों व महिलाओं के लिए सप्ताह में पहले पांच दिन काम के घण्टे 10 से साढ़े दस और शनिवार को साढ़े सात घंटे तय किये गये। 

पूंजीपतियों ने काम के कम घंटे के नियम को तोड़ने के लिए पाली प्रणाली का भी सहारा लिया। जैसे एक मजदूर सुबह की पाली में एक पूंजीपति के यहां काम करता था और रात की पाली में दूसरी जगह या फिर एक ही पूंजीपति की दो अलग-अलग फैक्टरियों में अलग-अलग समय पर काम कराकर बच्चों, महिलाओं व पुरुष मजदूरों के मामले में उसने कानून को ठेंगा दिखाया। उसने मजदूरों से काम के घंटे कम करने के खिलाफ पत्र संसद में भिजवाये लेकिन उनकी इस मेहनत पर मजदूरों ने यह कहकर पानी फेर दिया कि ये पत्र उनसे जबर्दस्ती लिखवाये गये हैं और वे काम के कम घंटे के लिए कम मजदूरी में भी काम करने को तैयार हैं। 

कुल मिलाकर पूंजीपति ने हर सम्भव तरीके से कानून द्वारा मजदूरों के लिए सामान्य दिन के घण्टे कम करने का विरोध किया और उनको कानूनी और गैरकानूनी दोनों रूपों में ही तोड़ा।  पूंजीपतियों मजदूरों की श्रम शक्ति को 30 साल के बजाय 10 साल में ही चूसकर अपनी तिजोरियां भरना चाहते थे और उनकी इस हवस ने मजदूरों को बहुत कम उम्र में ही मरने के लिए बाध्य कर दिया। और खास उद्योगों में होने वाली खास बीमारी ने तो बच्चों-महिलाओं व पुरुष मजदूरों की जिंदगी को भयानक कष्ट दिये। 

काम के घंटे कम करने का संघर्ष पूंजी और श्रम के बीच वर्ग संघर्ष का एक रूप है। इस संघर्ष में हे मार्केट के शहीदों से लेकर अनगिनत लोगों ने अपनी जान कुर्बान कर दी। शहादत का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। 

आज कोरोना के बहाने पूंजी द्वारा श्रम पर हमले को बढ़ाया जा रहा है। भारत में ही 5 राज्यों में काम के घण्टे बढ़ा कर 12 कर दिये गये हैं। ऐेसे वक्त में मई दिवस को याद करना और अपने संघर्षों को तेज करना मजदूर वर्ग के लिए जरूरी हो गया है। 

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मई दिवस का पैगाम, जारी रखना है संग्राम!

मई दिवस का पैगाम, जारी रखना है संग्राम!
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अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की क्रांतिकारी विरासत और पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाएं! 

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस अमर रहे!
दुनिया के मज़दूरों, एक हो! पूंजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!

साथियों,
1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है, यानी मजदूर वर्ग का सबसे खास दिन व त्योहार। यह ऐतिहासिक दिवस पहली मई को पूरी दुनिया के कोने-कोने में मजदूरों द्वारा रैली, प्रदर्शन, सभा, मीटिंग के रूपों में मनाया जाएगा। मई दिवस पूंजीवादी शोषण और गुलामी के खात्मे तक मजदूर वर्ग के संघर्ष को जारी रखने के संकल्प को दोहराने का दिन है। मई दिवस का इतिहास हमें यह याद दिलाता है कि '8 घंटे का कार्य-दिवस' के साथ मजदूरों के सभी अधिकार कोई तोहफे या खैरात में नहीं मिले थे, बल्कि लड़कर जीते गए जिसके लिए मजदूर वर्ग को बड़ी कुर्बानियां देनी पड़ी हैं। मई दिवस इसका भी परिचायक है कि जब मजदूर वर्ग एकजुट और सचेत हो जाता है, तो वह बड़ी से बड़ी लूटेरी शक्तियों को चकनाचूर कर सकता है। इसलिए पूंजीपति वर्ग ने कभी नहीं चाहा कि मजदूर वर्ग मई दिवस के बारे में जाने और इसके लिए अपने गुर्गों (सरकारों, मीडिया, संस्थाओं, प्रचारकों आदि) द्वारा मई दिवस के इतिहास को भिन्न तरीकों से छुपाया है।

मई दिवस की क्रांतिकारी विरासत

संघर्ष की शुरुआत : मई दिवस की शुरुआत आज से डेढ़ सौ साल पहले होती है जब पूरी दुनिया में मजदूरों के काम की कोई समय-सीमा तय नहीं थी और उन्हें 14-16 घंटे तक काम करवाया जाता था। इसके खिलाफ पूरी दुनिया, खास कर अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, में कई सालों से छोटे-बड़े आंदोलन हो रहे थे। लेकिन अमेरिका के मजदूरों ने पहली बार '8 घंटे काम' की मांग पर अक्टूबर 1884 में एक सम्मलेन आयोजित किया जिसमें 1 मई 1886 से 8 घंटे काम को लागू करवाने का दिन चुना गया।

उसी 1 मई से मई दिवस की लड़ाकू शुरुआत हुई जब पूरे अमेरिका के 4-5 लाख मजदूर '8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन' की मांग पर आर-पार की हड़ताल पर चले गए। हड़ताल के पूर्व ही पूंजीपति वर्ग का विरोध चरम पर था। पूरे अमेरिका में हथियारबंद पुलिस तैनात कर दी गर्इं। अखबारों द्वारा आंदोलन के खिलाफ कुत्साप्रचार अभियान शुरू किया गया। मजदूर नेताओं को अपराधी और गुंडा कहा गया। हड़ताली मजदूरों को नौकरी से निकाल देने और सजा देने का फरमान जारी हुआ। इन सबके बावजूद हड़ताल पूरी तरह सफल रही। 

3 मई को मजदूरों की एकता से बौखलाए पूंजीपतियों ने जवाबी हमला करते हुए मैककौर्मिक हार्वेस्टर वर्क्स के हड़ताली मजदूरों पर गोलियां चलवा दीं जिसमें 6 मजदूर शहीद हो गए और कई घायल हुए। इससे मजदूरों का गुस्सा भड़क उठा। इसके खिलाफ 4 मई को आंदोलन के केंद्र, शिकागो शहर, के हेमार्केट स्क्वायर चौक पर एक बड़ी मजदूर सभा का आयोजन किया गया। लेकिन सभा के दौरान ही भीड़ में छुपे पूंजीवादी दलालों ने षड्यंत्र के तहत चौक पर बम फेंक दिया जिसमें 4 मजदूर और 7 पुलिसवाले मारे गए। यह होते ही पुलिस को गोलियां बरसाने का खुला मौका मिल गया जिसमें 200 मजदूर घायल हुए और कई मारे गए।

इसी के साथ पूंजीपति वर्ग का खूनी तांडव शुरू हो गया। 8 प्रमुख मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें से 7 को फांसी की सजा सुनाई गई। अंततः 11 नवंबर 1887 को आनन-फानन में बिना सबूत के 4 नेताओं (जॉर्ज एंगेल, एडोल्फ फिशर, ऐल्बर्ट पार्सन्स, अगस्त स्पाइस) को फांसी दे दी गई। 7 साल बाद वहां के नए गवर्नर ने पूरे कानूनी प्रकरण को बेबुनियादी व अन्यायपूर्ण बताते हुए बाकी कैद नेताओं को रिहा कर दिया, परंतु निर्दोष मजदूर नेताओं को फांसी देने के लिए किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। यही है पूंजीवादी न्याय, जो मजदूरों के लिए हमेशा अन्याय ही होता है!

मई दिवस अंतर्राष्ट्रीय बन गया : अमेरिका के इस आंदोलन से उठी चिंगारी जल्द पूरी दुनिया में फैल गई। 1889 में मजदूरों के अंतरराष्ट्रीय संगठन 'द्वितीय इंटरनेशनल' का गठन पेरिस में हुआ जिसके स्थापना सम्मेलन में सभी देशों में 1 मई को 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। 1 मई 1890 को '8 घंटे काम' की मांग पर कई देशों में जबरदस्त प्रदर्शन हुए। तब से संघर्ष का यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा, 8 घंटे काम के साथ तमाम कानूनी हक मजदूरों ने हासिल किए। संघर्षों से मजदूरों में जो चेतना पैदा हुई, उससे मजदूर वर्ग की विचारधारा और परिपक्व हुई, तथा दुनिया भर में मजदूर वर्ग की पार्टियां बनीं। सन् 1917 में रूस के मजदूरों ने अपनी बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अक्तूबर क्रांति कर पूंजीवादी सत्ता को पलट कर मजदूरों का राज तक स्थापित किया, और धीरे-धीरे दुनिया के एक चौथाई हिस्से पर मजदूर वर्ग की सत्ताएं काबिज हुईं। तब से लेकर आज तक 1 मई दुनिया भर के मजदूरों के बीच एकता और पूंजीपति वर्ग के खिलाफ मुक्तिकामी संघर्ष का प्रतीक दिवस बना हुआ है।

मजदूर वर्ग पर आज लगातार बढ़ते हमले

136 साल के उतार-चढ़ाव भरी एक लम्बी यात्रा से गुजरते हुए मई दिवस आज एक बेहद मुश्किल समय में उपस्थित है। जैसे-जैसे मजदूर आंदोलन पीछे हटता व बिखराव की ओर बढ़ता चला गया, वैसे-वैसे ही पूंजीपति वर्ग अपने हमले बढ़ाता रहा। मई दिवस की परंपरा 8 घंटे काम की मांग से शुरू हुई थी, लेकिन आज कम वेतन पर काम के घंटे 12 से 14 होना भी आम बात हो गई है। एक तरफ बेरोजगारी नए रिकॉर्ड तोड़ रही है, तो दूसरी तरफ आज हर सेक्टर में ठेका प्रथा लागू है जिसमें नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। कई संस्थाओं में फिक्स-टर्म रोजगार (यानी एग्रीमेंट के तहत कुछ समय के लिए काम पर रख कर निकाल देना) तथा हायर व फायर नीति लागू है। छंटनी-बंदी का नया दौर गति पकड़ चुका है जिसमें परमानेंट मजदूर भी सुरक्षित नहीं रहे। यही नहीं, मोदी सरकार ने महामारी व लॉकडाउन के बीच "आपदा को अवसर" में बदलते हुए 44 श्रम कानूनों को ध्वस्त कर 4 नए श्रम कोड ले आए जो पूरी तरह से मजदूर-विरोधी और मालिक के पक्ष में हैं। इनके लागू होते ही हायर-फायर व्यवस्था लागू होगी, ठेका प्रथा और मजबूत बनेगी, मालिक मनमानी छटनी-गेटबंदी कर पाएगा, यूनियन बनाने व एकजुट संघर्ष का अधिकार खत्म हो जाएगा, 8 घंटे और न्यूनतम वेतन के कानून भी समाप्त हो जाएंगे आदि।

एक तरफ जहां महंगाई आसमान छू रही है, वहां वेतन में नाम-मात्र बढ़ोतरी होती है। सरकारी संपत्तियों व कंपनियों (जैसे रेल, विमान, एयरपोर्ट, बैंक, LIC, BSNL, कोयला, बिजली, तेल-गैस, स्टील आदि) को सरकार अपने आकाओं (पूंजीपतियों) को औने-पौने दामों पर सौंप रही है। मोदी सरकार ने रक्षा उपकरण बनाने वाली ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों को भी 7 निगमों में बांट कर निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर ली है। इसके खिलाफ जब कर्मचारी हड़ताल पर गए तो सरकार ने उसपर 'एस्मा' यानी आवश्यक सेवा अनुरक्षण कानून लागू कर हड़ताल को गैर-कानूनी बना दिया। 

आज मई दिवस का महत्व

आज पूरी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था गंभीर संकट में फंस गई है। मजदूरों के शोषण से पैदा होने वाले इसके मुनाफे का पहिया रुक गया है। इसी कारण से यह अब मजदूर वर्ग के खून-पसीने का आखिरी कतरा तक चूस लेने के लिए बेताब है, और इसलिए मजदूर अधिकारों पर हमले बढ़ते जा रहे है। यही नहीं, असली मुद्दों पर से ध्यान भटकाने तथा हमारी एकता तोड़ने के लिए आज पूंजीपतियों की ये सरकारें पूरे देश में सांप्रदायिक जहर फैला कर जगह-जगह पर दंगे करवा रही है। मीडिया को भी आग भड़काने के काम में लगा दिया गया है। आम सरकारों से बात नहीं बनी तो अब फासीवादी व घोर मजदूर विरोधी भाजपा सरकार को लाया गया है जो कि मेहनतकश जनता के हक और न्याय की आवाज उठाने वालों पर फर्जी मुकदमे थोप कर उन्हें गिरफ्तार कर ले रही है। जनांदोलनों पर लाठी-डंडा-बंदूक चलाना आम हो गया है। और तो और, मुनाफाखोरी के चलते साम्राज्यवादी ताकतों के बीच युद्ध की स्थिति बन गई है, जिसका दंश आज यूक्रेन की आम जनता झेल रही है। परंतु फिर भी पूंजीवादी मुनाफे का पहिया बढ़ नहीं पा रहा। यह साबित कर रहा है कि पूंजी का साम्राज्य बहुत दिनों का मेहमान नहीं है। इसे उखाड़ फेंक कर मजदूरों का राज यानी बराबरी, भाईचारे पर टिका शोषणविहीन समाज, जिसे समाजवाद कहते हैं, स्थापित करने के लिए बस जरूरत है तो मजदूर वर्ग के एकजुट होकर इसे आखिरी धक्का मारने की।

हम तमाम मजदूरों से अपील करते हैं कि वे मई दिवस के दिन इसकी क्रांतिकारी विरासत को ज्यादा से ज्यादा मजदूरों तक पहुंचाने के लक्ष्य से अपने बस्तियों-कॉलोनियों, कार्यस्थलों, नुक्कड़-चौकों आदि पर जुलूस-रैली, जुटान-प्रदर्शन, मीटिंग-सभा का आयोजन करें। इसकी तैयारी के लिए पर्चे बांटे, पोस्टर साटें, मीटिंग आदि करें। आइए पहली मई को मई दिवस के शहीदों को याद करते हुए संकल्प लें! आठ घंटे काम सहित मजदूर वर्ग को अधिकार विहीन बनाने के कुचक्रों (जैसे लेबर कोड) के खिलाफ वर्गीय एकता कायम करते हुए, हमारे शोषण पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ मेहनतकश वर्ग की मुक्ति के लिए निर्णायक संघर्ष खड़ा करें!

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा)
PDYF - Progressive Democratic Youth Federation 

कन्हाई बरनवाल, महासचिव, आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा यूनियन कार्यालय, हरिपुर, पश्चिम बर्धमान, प. बंगाल से जारी।

1 मई, अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस

1 मई, अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस ज़िन्दाबाद! मई दिवस के शहीद अमर रहें!
दुनिया के मज़दूरों, एक हो!
यह घोषणा करने का दिन, कि हम भी हैं इंसान!
घृणित दासता किसी रूप में नहीं हमें स्वीकार!!

साथियो! दुनिया भर में पहली मई का दिन मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। मज़दूर वर्ग का अपना शानदार इतिहास रहा है। इस दुनिया में एक तरफ़ कमेरों का वर्ग है जिसकी मेहनत के दम पर सारी चमक-दमक कायम है लेकिन मेहनतकशों की ज़िन्दगी तबाह-बर्बाद है। 12-12 घण्टे काम करके भी गुजारा नहीं, बच्चों के लिए अच्छे दवा-इलाज़, शिक्षा-रोज़गार तक का प्रबन्ध नहीं हो पाता! दूसरी तरफ़ लुटेरों का वर्ग है जो बिना कुछ किये भी केवल लूट के दम पर दुनिया की दौलत पर कब्ज़ा करके बैठा है। मालिक वर्ग कम से कम मज़दूरी देकर ज़्यादा से ज़्यादा मेहनतकशों की श्रम शक्ति को निचोड़ डालना चाहता है और मज़दूर भी शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं। पूँजी और श्रम के बीच ऐसा ही एक संघर्ष 132 साल पहले अमेरिका के शिकागो शहर में लड़ा गया था।

 मई दिवस का स्वर्णिम इतिहास 

1 मई 1886 को अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने आठ घण्टे कार्यदिवस की माँग के लिए एक साथ हड़ताल करने का फैसला किया। हड़ताल में क़रीब 11,000 फैक्ट्रियों के कम से कम 3 लाख 80 हज़ार मज़दूर शामिल हुए। शहर के मुख्य मार्ग 'मिशिगन अवेन्यु' पर मज़दूर नेता अल्बर्ट पार्संस के नेतृत्व में शानदार जुलूस निकाला गया। मज़दूरों को संगठित होता देख डरे हुए मालिक-पूँजीपतियों ने भी प्रतिक्रिया स्वरूप मज़दूर वर्ग पर बार-बार हमले किये। ख़रीदे गये भाड़े के टट्टू अख़बार, पुलिस और गुण्डे मज़दूरों पर हमले के लिए लगा दिये गये। मज़दूरों के जुझारू आन्दोलन को तोड़ने के लिए मालिकों ने नीच से नीच षड्यन्त्र रचे। हड़ताल तोड़ने के लिए पुलिस के संरक्षण में तीन सौ गद्दार मज़दूरों को लाया गया। जब हड़ताली मज़दूरों ने इस गद्दारी के ख़िलाफ़ मीटिंग शुरू की तो निहत्थे मज़दूरों पर गोलियाँ चलायी गयीं। इस हमले में चार मज़दूर मारे गये और कई घायल हुए। अगले कई दिन तक मज़दूरों के ऊपर हमले जारी रहे। इस बर्बर पुलिस दमन के ख़िलाफ़ 4 मई को शहर के मुख्य बाज़ार 'हे मार्केट स्क्वायड' में जनसभा का आयोजन किया गया। सभा के अन्त में पूँजीपतियों के इशारों पर षड्यन्त्र के तहत पुलिस ने बम फिंकवा दिया और लोगों को तीतर-बीतर कर दिया। इसके बाद उल्टा दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ दिया गया और शान्तिपूर्ण सभा के ऊपर पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ और लाठियाँ बरसा दी। इस घटना में छः मज़दूर मारे गये और 200 से ज्यादा घायल हुए। घटना के दौरान मज़दूरों के रक्त से लाल हुआ कपड़ा ही मेहनतकश वर्ग का झंडा बना। बम काण्ड में मज़दूर नेताओं को फँसाकर जेल में बन्द कर दिया गया। आठ मज़दूर नेताओं को इस घटना का दोषी करार दे दिया गया। मज़दूर वर्ग के इन महान पूर्वजों के नाम थे अल्बर्ट पर्सन्स, आगस्टस स्पाईस, जार्ज एंजेल, अडोल्फ़ फिशर, सैमुएल फील्डेन, माइकल शवाब, लुईस लिंग्ग और ऑस्कर नीबे। इनमें से सिर्फ़ सामुएल फिल्डेन ही 4 मई को वारदात के समय घटनास्थल पर मौजूद था बाकी तो वहाँ पर थे भी नहीं! 20 अगस्त 1887 को इस मुकदमे का फैसला सुनाया गया जिसमें ऑस्कर नीबे के अलावा सभी मज़दूर नेताओं को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। 1 मई से शुरू हुआ मज़दूर वर्ग का संगठित संघर्ष यहीं पर नहीं रुका बल्कि इसके बाद दुनिया भर में 'काम के घण्टे आठ करो' का नारा गूँज उठा। हारकर पूँजीपति वर्ग को काम के घण्टे आठ के अधिकार को कानूनी मान्यता देकर स्वीकारना पड़ा और मज़दूर वर्ग के नायकों का बलिदान रंग लाया। तब से लेकर अब तक 135 साल बीत चुके हैं, इस दौरान मज़दूर वर्ग ने अनगिनत संघर्षों और कुर्बानियों के कीर्तिमान स्थापित किये। 

 मई दिवस की विरासत और हमारा समय 

दोस्तों मई दिवस को याद करना कोई रस्म निभाना भर नहीं है। मई दिवस को याद करना अपने पुरखों से संघर्ष की ऊर्जा लेना है। सच्चाई यह है कि हम मेहनतकश मज़दूरों के लिए हालात आज 2022 में 1885 से भी बदतर हैं। हमारे यहां अब किसी भी कारखाने में आठ घण्टे काम का नियम लागू नहीं होता है। आसमान छूती महँगाई के दौर में किसी को न्यूनतम वेतन नहीं मिलता। सारे श्रम क़ानून, जो मज़दूरों की कुर्बानियों की वजह से अस्तित्व में आए थे, उन्हें चार लेबर कोड बनाकर छीना जा रहा है। श्रमिकों के पास कोई भी हक़ अधिकार नहीं है। कम्पनी मालिक जब चाहे किसी को भी काम से निकाल सकता है। श्रमिकों के रोज़गार की कोई गारंटी नहीं है। कारखानों में हो रही दुर्घटनाओं में मज़दूरों के अंग भंग होने से लेकर जान तक जा रही है। कम्पनियों में सुरक्षा के कोई पुख़्ता इंतज़ाम नहीं है। मालिकों की मनमानी खुले आम चल रही है। आज की सच्चाई यही है कि मज़दूरों के ऊपर मालिकों को ताक़त हावी है। मज़दूरों की कोई बड़ी ताक़त मौजूद नहीं है जो मालिकों तथा उनकी सरकारों का मुक़ाबला कर सके।

दोस्तों, सरकारें पूंजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती है। सरकारों का काम मालिकों की सेवा करना है। मज़दूर मालिकों की गुलामी करते रहें इसके लिए नीतियाँ बनाना है। अगर हम मज़दूर शोषण अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं तो हम पर  डंडे चलाना है, हमारा दमन करना है।  यह हमें कभी नहीं भूलना चाहिए सरकार किसी भी दल की हो वह हमेशा मालिकों की ही चाकरी करती है। आज केन्द्र में फ़ासीवादी मोदी सरकार बैठी है, तो वहीं दिल्ली में केजरीवाल सरकार। दोनों ही सरकारें घनघोर मज़दूर विरोधी हैं। 
फ़ासीवादी मोदी सरकार हम मज़दूरों को आपस में बांटने के लिए देश भर में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने का काम कर रही है। अभी बीते दिनों जहाँगीरपुरी में हनुमान जयंती के दिन वहां साम्प्रदायिक तनाव फैलाया गया। उसके तीन रोज़ बाद वहां पुलिस तथा नगर निगम द्वारा बुलडोजर चलाकर ज़्यादातर मुसलमानों के मकान-दुकान तोड़े गए, ताकि इस घटना के बहाने ना सिर्फ़ जहाँगीर पुरी बल्कि दिल्ली व पूरे देश भर में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जाए, धार्मिक उन्माद फैलाया जाए। अभी देश भर में जहां-जहां भाजपा के हाथ में पुलिस प्रशासन है, वहां ग़रीबों के घर बुलडोजर चलाया जा रहा है, और इसका साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। दोस्तों, भाजपा चाहती है कि हमलोग जाति धर्म के झगड़ों में उलझे रहें, ताकि रोज़ी-रोटी, महँगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर हमारा ध्यान न जाए।  एक तरफ खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर गैस सिलिंडर के दाम महँगे होते जा रहे हैं, पर दूसरी तरफ हमारी तनख़्वाह में रत्ती भर की बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इन मुद्दों से ही ध्यान भटकाने के लिए देश भर में जाति-धर्म के नाम पर दंगे करवाये जा रहे हैं। हम हिन्दू मुसलमान में उलझते हैं तो इसका फ़ायदा सीधे पूँजीपतियों, कारखाना मालिकों, सरकारों, तमाम चुनावबाज़ पार्टियों तथा उनके लग्गू-भगुओं को होता है। 
आम आदमी पार्टी छिपे व खुले तौर पर भाजपा की सारी फ़ासीवादी नीतियों का समर्थन करती है। असल में दोनों ही सरकारें मिलकर ग़रीबों मेहनतकशों को लूटने का काम करती है। इस मक्कार केजरीवाल के घर के बाहर बाइस हज़ार आँगनवाड़ी की महिलाएं शानदार संघर्ष कर रही थीं, अपने बुनियादी हक़ अधिकार के लिए लड़ रही थीं। केजरीवाल सरकार पर महिलाओं के प्रदर्शन का पूरा दबाव था, कि ऐसे में भाजपा के राज्यपाल ने महिलाओं के संघर्ष को कमज़ोर करने के मक़सद से जनविरोधी हेस्मा कानून लगा दिया। और साफ़ ज़ाहिर कर दिया की भाजपा और आम आदमी पार्टी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। हड़ताल के तात्कालिक स्थगन के बावजूद आँगनवाड़ी कर्मियों का ऐतिहासिक संघर्ष आज भी ज़ारी है।

 हमारे आज के कार्यभार 
साथियो! आज हमारे संघर्ष दो क़दमों पर चलेंगे। आर्थिक संघर्ष; जिनमें काम के घण्टे, ईएसआई, ईपीएफ़, न्यूनतम मज़दूरी, सुरक्षा के समुचित इन्तज़ाम, बोनस, वेतन-भत्ते, रोज़गार इत्यादि से जुड़ी माँगों के लिए हमें आन्दोलन संगठित करने होंगे। देश-दुनिया के कौने-कौने में मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक संघर्ष लड़ भी रहा है किन्तु अधिकतर जगह पर नेतृत्व समझौतापरस्त है। मज़दूर आन्दोलन में आज अर्थवाद करने वाले और 20-30 परसेंट की दलाली खाने वाले हावी हैं। इनसे पीछा छुड़ाकर स्वतन्त्र क्रान्तिकारी नेतृत्व विकसित करना आर्थिक संघर्षों की जीत की भी पहली शर्त है।

मज़दूर वर्ग का असल संघर्ष उसका राजनीतिक संघर्ष है जो एक शोषणविहीन-समतामूलक समाज व्यवस्था के लिए होने वाला संघर्ष है जिसमें एक इंसान के द्वारा दूसरे इंसान का शोषण न हो सके। मज़दूर वर्ग पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर तथा समाजवादी व्यवस्था कायम करके ही ऐसा कर सकता है। इसके लिए मज़दूर वर्ग को संशोधनवाद, संसदवाद और अर्थवाद से छुटकारा पाना होगा और अपने अन्दर पैठे दलालों और गद्दारों को पहचानना होगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक होने वाले आर्थिक संघर्ष तो साँस लेने के समान हैं किन्तु असल लड़ाई शोषण के हर रूप के खात्मे के लिए होनी चाहिए। इसके लिए हमें अपनी क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ कर उसे मज़बूत करना पड़ेगा। मई दिवस का सच्चा सन्देश यही है कि हम अपने शानदार अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की दिशा का सन्धान करें। मई दिवस के शहीदों को भी हमारी यही सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है!

दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन

सम्पर्क: 9873868097

Thursday, 28 April 2022

Certificate without caste

मई दिवस जिंदाबाद शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम

माइकल जे शाक, 1886 के मई महीने में शिकागो में पुलिस कप्तान तैनात था. ये ही वो व्यक्ति था जो मामले की सारी हकीक़त जानता था, किसने बम फेंका, कैसे मज़दूर नेताओं को उसमें फंसाया गया. शिकागो के क्रांतिकारी मज़दूर नेताओं की गिरफ़्तारी भी उसी की निगरानी में हुई और वो ही उस मामले का मुख्य चश्मदीद गवाह था जिसमें उन क्रांतिकारियों को फांसी की सज़ा हुई. 11 नवम्बर 1887 उन्हें फांसी दिए जाते वक़्त भी वह मौजूद था. उसने रिटायर होकर एक किताब लिखी, 'Anarchy and Anarchists'. ज़ाहिर है वो मालिकों का गुरगा था और क्रांतिकारी मज़दूरों से नफ़रत करता था. अपनी किताब के आखरी अध्याय में माइकल जे शाक लिखता है;

"जज ने अगस्त स्पाइस से पूछा, आपको फांसी कि सज़ा क्यों ना दी जाए, आपको कुछ कहना है? 'मैं एक वर्ग के प्रतिनिधि की हैसियत से दूसरे वर्ग के प्रतिनिधि से बोल रहा हूँ. उसकी आवाज गरिमापूर्ण, ऊँची और चीरती हुई थी...अगर आप लोग सोचते हैं कि हमें फांसी पर लटकाकर आप मज़दूर आन्दोलन को कुचल देंगे तो आओ, आगे बढ़ो, हमें फांसी पर लटका दो. .. सतह के नीचे एक ज्वाला धधक रही है जिसे आप और आपका निज़ाम बुझा नहीं पाएगा...मेरे विचार मुझे बहुत प्रिय हैं, मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता. अगर सच बोलने की सज़ा फांसी है तो हमें मंज़ूर है. मैं ख़ुशी से ये क़ीमत चुकाने को तैयार हूँ...बुलाओ अपने जल्लाद को. सच्चाई के लिए फांसी चढ़े सुकरात, ईसा मसीह, गिओरदानो ब्रूनो, गैलिलिओ आज भी जिंदा हैं. हमें ये रास्ता इन्होने और इनके जैसे अनेक क्रांतिकारियों ने दिखाया है और हम ख़ुशी से इस रास्ते पर चलने को तैयार हैं.."

मई दिवस जिंदाबाद
शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम
दुनिया के मजदूर एक हो

मई दिवस जिंदाबाद

अगस्त स्पाइस के बाद 7 अक्तूबर 1886 को शिकागो की अदालत में बोलने की बारी माइकल श्वाब की थी. उनपर आरोप थे कि उन्होंने ही हे मार्केट में हुई  4, मई 1886 की सभा में बम फेंका था जिसमें 7 पुलिस वाले और 4 नागरिक मारे गए थे. पुलिस की पहली रिपोर्ट में था कि उन्होंने कई बम फेंके. बाद में जब पता चला कि वहाँ तो एक ही बम फेंका गया है तब पुलिस ने एफआईआर की तफ्तीश में लिखा, एक बम फेंका गया लेकिन वो माइकल श्वाब ने ही फेंका. (इनमें से किसी ने भी बम नहीं फेंका था, बाद में सिद्ध हो गया).

"मैं कुछ बोलना नहीं चाहता लेकिन चुप रहना कायरता होगी इसलिए बोल रहा हूँ. अदालत में जो चल रहा है वो न्याय का मखौल है...हमने जो किया उसे षडयंत्र कहा जा रहा है. ये षडयंत्र नहीं आन्दोलन है. निशाने पर हम नहीं हैं, निशाने पर मज़दूर आन्दोलन है, समाजवाद है. हर मज़दूर आन्दोलन को आवश्यक रूप से समाजवादी होना चाहिए. हम समाजवाद की, क्रांति की बात कर रहे हैं, आप उसे षडयंत्र बता रहे हैं...ये जो लोग दौलत के पहाड़ इकट्ठे कर रहे हैं, महलों में रहते हैं, ऐश करते हैं, ये सब हमारे उस श्रम की बदौलत है जिसका भुगतान हमें नहीं किया गया. हम जब बाज़ार जाते हैं तो हम बासी गोश्त का छोटा सा टुकड़ा और सड़ी सब्जियां ख़रीद पाते हैं. हम टूटे-उजड़े घरों रहते हैं और बीमारियों से मरते हैं...आप क्या जानते हैं मजदूर कैसे रहता है. मैं जानता हूँ . मैं डिपार्टमेंटल स्टोर के सेलर (सामान रखने की जगह) में रहा हूँ. मैंने मज़दूरों को भूखों मरते देखा है..काम करते-करते थक कर ख़त्म होते देखा है.. हमारे 12-14 साल के बच्चों को भी काम करना पड़ता है..ये सब आप अमीरों के अखबारों में नहीं छपता..आधुनिक मशीनें जो आज की ज़रूरत हैं वे ही हमारे लिए अभिशाप बन रही हैं. जबकि उनकी आवश्यकता है क्योंकि उससे काम आसान हो जाता है और उत्पादन कई गुना बढ़ जाता है... समाजवाद और कम्युनिज्म की जड़ें इस देश में मज़बूत होने की यही वज़ह है..ऐसा मत सोचिए कि इसे विदेशी लाए हैं (दरअसल माइकल श्वाब जर्मनी में पैदा हुए थे और वहाँ समाजवादी आन्दोलन से जुड़े थे), अमेरिका में जन्मे कम्युनिस्टों की तादाद बाहर वालों से कहीं ज्यादा है. समाजवाद से हमारा मतलब है कि ज़मीन और उद्योग पूरे समाज के होंगे और सभी को काम करना होगा. तब सभी को बहुत कम घंटे काम करना ही पर्याप्त होगा...मैं जानता हूँ कि हमारा लक्ष्य आज या कल हांसिल नहीं होने वाला लेकिन आप देखेंगे कि ये ज़रूर पूरा होगा...उस दिन हे मार्केट में बम किसने फेंका मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं, ना मुझे हिंसा फ़ैलाने वाले उस षडयंत्र के बारे में कुछ पता है जिसका आप ज़िक्र कर रहे हैं.

माइकल श्वाब

उन्हें भी फांसी की सज़ा हुई थी जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदल दिया गया था. दस साल की सज़ा के बाद वे रिहा हुए थे. उसके बाद उन्होंने मज़दूर अधिकारों के लिए काम किया और उनकी मृत्यु 29 जून 1898 को हुई.

मई दिवस जिंदाबाद 
शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम 
दुनिया के मज़दूरो एक हो
Satyavir Singh