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Thursday, 14 April 2022

इजारेदार कीमत, महँगाई -बिगुल

सोशल मीडिया के ''वामपंथी'' पत्रकार महोदय के नये कारनामे
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सोशल मीडिया के ''वामपंथी'' पत्रकार मूर्खेश असीम अद्भुत उत्‍पादकता के साथ मूर्खताओं का उत्‍पादन करते हैं। इजारेदार पूँजी, महँगाई, किसान आन्‍दोलन आदि प्रश्‍नों पर बहस में पिटने के बाद एक बार फिर इन्‍होंने बौखलाहट में बढ़ती महँगाई के सन्‍दर्भ में महँगाई के मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त पर निशाना साधा है। 

इनका कहना है कि हमने कहा था कि बड़े पूँजीपति महँगाई घटाते हैं और फिर वह व्‍यंग्‍य करने का असफल प्रयास करते हुए पूछते हैं कि तो फिर मोबाइल कम्‍पनियों ने सरकार द्वारा स्‍पेक्‍ट्रम के दाम घटाने के बावजूद मोबाइल रीचार्ज क्‍यों बढ़ा दिया है? ऐसी मूर्खतापूर्ण मासूमियत पर क्‍या कहा जाय? लेकिन असावधान पाठक यथार्थवादी मूर्खों के गिरोह से सावधान हो जाएँ और मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर इनके द्वारा फैलाये जा रहे अज्ञान की धुंध में न फँसें, इसलिए एक बार देख लेते हैं कि मुद्रास्‍फीति व महँगाई की मार्क्‍सवादी समझदारी क्‍या है। 

1. पहली बात, बड़े पूँजीपति महँगाई नहीं घटाते। इजारेदार पूँजीपति तो इजारेदार कीमत के ज़रिये अपने मालों का दाम बढ़ाते हैं। लेकिन पहली बात यह कि वह ऐसा एक सीमा में ही कर सकते हैं। मार्क्‍स ने 'पूँजी' के खण्‍ड-3 में बताया कि इजारेदार कीमत के निर्धारण के भी कुछ नियम होते हैं, वह इजारेदार पूँजीपति मनमर्जी नहीं तय करता है। इजारेदार कीमत इजारेदार पूँजीपति के माल के लिए बाज़ार में मौजूद प्रभावी माँग की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकती। वह इजारेदार कीमत उसी हद तक बढ़ा सकता है, जिस हद तक प्रभावी माँग उसे इजाज़त देती है, अन्‍यथा वह अतिरिक्‍त-लाभ तो दूर औसत मुनाफ़ा भी वास्‍तवीकृत नहीं कर पाएगा। दूसरी बात, यह इजारेदार कीमत भी इजारेदार पूँजीपति ही रख सकता है, कोई भी बड़ा पूँजीपति नहीं।

2. दूसरी बात, पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति होती है, मालों के मूल्‍य को घटाना। चूँकि लम्‍बी दूरी में मालों की कीमत उनके सामाजिक मूल्‍य के गुरुत्‍व केन्‍द्र के इर्द-गिर्द ही घूमती है, इसलिए दूरगामी तौर पर, यानी एक सेक्‍युलर टेण्‍डेंसी के तौर पर पूँजीवाद में सभी मालों की कीमत घटती है। यह किसी पूँजीपति (बड़े या छोटे!) की इच्‍छा का प्रश्‍न नहीं होता है, बल्कि पूँजीवाद की आम गति होती है, जो पूँजीपतियों की इच्‍छा से भी स्‍वतन्‍त्र होती है। ऐसा क्‍यों होता है? पूँजीपति वर्ग में आपसी प्रतिस्‍पर्द्धा होती है बाज़ार के अधिक से अधिक हिस्‍से पर कब्‍ज़ा करने की। इसके लिए हर पूँजीपति अपने माल को सबसे प्रतिस्‍पर्द्धी कीमत पर बेचने का प्रयास करता है। इसके लिए वह उत्‍पादकता को बढ़ाता है ताकि प्रति इकाई लागत और प्रति इकाई मूल्‍य को कम किया जा सके ताकि कीमतों को घटाकर बाज़ार के बड़े हिस्‍से पर कब्‍ज़ा किया जा सके। इससे उसका मुनाफ़ा घटता नहीं है, क्‍योंकि पूँजीपति द्वारा मुनाफ़ा कमाने की आम प्रणाली कीमत बढ़ाना नहीं होता है। ऐसा पहली-दूसरी कक्षा के बच्‍चे सोचते हैं कि मालिक दाम बढ़ाकर मुनाफ़ा कमाता है और ''यथार्थवादी'' बौड़म ब्रिगेड का मानसिक विकास उसी स्‍तर पर रुका रह गया है! पूँजीपति का मुनाफ़ा अतिरिक्‍त श्रमकाल को आवश्‍यक श्रमकाल की तुलना में सापेक्षिक तौर पर (और कभी-कभी निरपेक्ष तौर पर) बढ़ाने से आता है। साथ ही, पूँजीवाद श्रमशक्ति के मूल्‍य को भी अपनी नैसर्गिक गति से घटाता है। यानी, मज़दूरी उत्‍पाद (wage goods) पैदा करने वाले सेक्‍टरों में उत्‍पादकता के विकास के ज़रिये श्रमशक्ति के मूल्‍य में कमी आती है। इसका अनिवार्यत: यह अर्थ नहीं होता कि मज़दूर पहले से कम उपभोग ही करता है। मज़दूर का उपभोग उसकी वास्‍तविक मज़दूरी से तय होता है और वास्‍तविक मज़दूरी उपभोक्‍ता सामग्रियों की वह टोकरी है, जो वह अपनी मज़दूरी से ख़रीद सकता है। नॉमिनल मज़दूरी कुछ भी हो, वास्‍तविक मज़दूरी निश्चित परिस्थितियों में बढ़ भी सकती है और घट भी सकती है। यह श्रम की सक्रिय सेना और श्रम की रिज़र्व सेना के अनुपात से निर्धारित होता है। दूसरे शब्‍दों में, मज़दूरी का श्रमशक्ति का मज़दूरी से ऊपर या नीचे जाना इस अनुपात पर निर्भर करता है। स्‍वयं यह अनुपात पूँजी संचय के दौर व औद्योगिक चक्र (industrial cycle) से निर्धारित होता है। बहरहाल, मार्क्‍स बताते हैं कि आम तौर पर दीर्घकालिक प्रवृत्ति के रूप में पूँजीवाद श्रमशक्ति समेत सभी मालों की कीमतों को घटाता है क्‍योंकि उत्‍पादकता को बढ़ाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। इजारेदार पूँजीवाद के दौर में भी यह बात लागू होती है। पाठक इसे विस्‍तार से समझने के लिए अनवर शेख और माइकल रॉबर्ट्स के निम्‍न लेख पढ़ सकते हैं, जो एक परिचय दे देते हैं, हालाँकि इनके सभी नुक्‍तों से सहमत होना ज़रूरी नहीं है:


इसके अलावा, मार्क्‍स की 'पूँजी' के खण्‍ड-1 में मुद्रा व कीमतों के निर्धारण पर मार्क्‍स के विचार पढ़ें और खण्‍ड-3 में उत्‍पादन की कीमतों और बाज़ार-कीमतों के निर्धारण के बारे में पढ़ें। जो अभी 'पूँजी' नहीं पढ़ सकते, उनके लिए उपरोक्‍त दो लेख मार्क्‍स के महँगाई के सिद्धान्‍त के लिए एक कामचलाऊ परिचय साबित हो सकते हैं। 

4. दीर्घकालिक तौर पर कीमतों को कम करने की पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति का यह अर्थ नहीं है कि बड़े या छोटे पूँजीपति अपनी मनोगत इच्‍छा से महँगाई को घटाना या बढ़ाना चाहते हैं। ''यथार्थवादी'' मूर्खेश असीम से आप इसी प्रकार की बचकानी समझदारी की उम्‍मीद कर सकते हैं, जिसके अनुसार पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था में जो कुछ होता है वह किंचित पूँजीपतियों की मनोगत इच्‍छा से निर्धारित होता है! हमने पहले भी अन्‍य उदाहरणों के ज़रिये दिखाया था कि ''यथार्थवादियों'' का पूँजीवाद का सिद्धान्‍त एक षड्यंत्र सिद्धान्‍त है, जो कि पूँजीवाद की गति के नियमों को नहीं समझता। मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की समझदारी का इससे ज्‍़यादा मूर्खतापूर्ण मखौल बनाना सम्‍भव नहीं है। दूसरी बात, पूँजीवाद द्वारा समस्‍त मालों की कीमतों को गिराने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति का यह अर्थ भी नहीं होता है कि हर आर्थिक तिमाही में कीमतें लगातार घटती चली जाती हैं! यह भी मूर्खेश असीम के विचित्र मस्तिष्‍क की ही पैदावार हो सकती है! मार्क्‍स स्‍वयं बताते हैं कि पूँजीवाद की इस दीर्घकालिक प्रवृत्ति के बावजूद लघुकालिक तौर पर तमाम तात्‍कालिक बाज़ार कारकों के चलते बाज़ार कीमतें बढ़ सकती हैं और कई वर्षों तक महँगाई और मुद्रास्‍फीति में बढ़ोत्‍तरी हो सकती है। लेकिन मूर्खेश असीम जैसे ''यथार्थवादी'' उपभोक्‍ता कीमत सूचकांक व थोक कीमत सूचकांक पर निगाह गड़ाए बैठे रहते हैं कि और किसी भी तिमाही पर महँगाई सूचकांक के बढ़ने पर अपनी कुर्सी से उछल पड़ते हैं कि ''देखो, बड़ा पूँजीपति इजारेदार कीमत वसूल करके महँगाई बढ़ाता है!'' और जब उपभोक्‍ता कीमत सूचकांक में गिरावट आती है तो यही मूर्खेश असीम मुँह में दही जमाकर बैठ जाते हैं। ऐसी अहमकाना बातों पर क्‍या कहा जा सकता है? इनके यह समझ में नहीं आता कि बाज़ार कीमतों की तात्‍कालिक गति का एक लम्‍बी अवधि में अध्‍ययन और सामान्‍यीकरण करके ही मार्क्‍स के उपरोक्‍त सिद्धान्‍त को समझा जा सकता है।

5. ''यथार्थवादियों'' को यह भी समझ में नहीं आता है कि समूची पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था के पैमाने पर जितना मूल्‍य पैदा होता है, उतना ही वास्‍तवीकृत हो सकता है। कीमतें अन्‍तत: मूल्‍य से निर्धारित होती हैं। अलग-अलग मालों के स्‍तर पर मूल्‍यों और कीमतों में अन्‍तर होता है जो कि मुनाफे की दर के औसतीकरण के कारण पैदा होता है। इसे ही मूल्‍य के कीमतों में रूपान्‍तरण की समस्‍या कहा गया है, जिसका सटीक हल मार्क्‍स ने दिया था। लेकिन समूची अर्थव्‍यवस्‍था के स्‍तर पर कुल मूल्‍य हमेशा कुल कीमत के बराबर ही होता है। इजारेदार पूँजीपति भी जब इजारेदार कीमत के ज़रिये अतिरिक्‍त मुनाफ़ा कमाता है तो वह अन्‍य सेक्‍टरों के पूँजीपतियों से मूल्‍य का स्‍थानान्‍तरण होता है। उसके द्वारा कीमत बढ़ाने से कुल मूल्‍य उत्‍पादन पर कोई असर नहीं पड़ता है। पूँजीवाद अगर कीमतों को लगातार बढ़ाता जाता है, तो इसका अर्थ है पूँजीवाद मालों के मूल्‍य को बढ़ाता जाता है और इसका यह मतलब हुआ कि पूँजीवाद उत्‍पादकता को घटाता जाता है! जिसने भी मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र का ककहरा भी पढ़ा है, वह मूर्खेश असीम जैसे ''यथार्थवादी'' किस कदर बेवकूफी का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। 

6. मूर्खेश असीम भूल जाते हैं कि वह जिस बहस में पिटे थे, उसका मूल मसला क्‍या था। मूल मसला यह था कि बड़ा औद्योगिक-वित्‍तीय पूँजीपति वर्ग लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था को क्‍यों खत्‍म करना चाहता है। हमारा कहना था कि लाभकारी मूल्‍य धनी किसानों-कुलकों को अतिरिक्‍त मुनाफ़ा देता है, जो कि उन्‍हें लाभकारी मूल्‍य के रूप में एक राजकीय इजारेदार कीमत से प्राप्‍त होता है। यह लाभकारी मूल्‍य एक ओर मेहनतकश जनता की आय में कटौती करता है, वहीं दूसरे सेक्‍टरों के पूँजीपतियों से लाभ का एक हिस्‍सा खेतिहर पूँजीपति वर्ग, यानी धनी किसानों व कुलकों को स्‍थानान्‍तरित करता है। साथ ही, यह अनाज की कीमतें बढ़ाता है जिसके कारण औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होता है। मज़दूरी के बढ़ने की सूरत में मुनाफे की दर में गिरावट आती है। इन तमाम कारणों से औद्योगिक-वित्‍तीय पूँजीपति वर्ग लाभकारी मूल्‍य के रूप में अतिरिक्‍त मुनाफ़ा देने वाले इस इजारेदार मूल्‍य को समाप्‍त करना चाहता है। मूल कारण है एक प्रमुख मज़दूरी उत्‍पाद (कृषि उत्‍पादों) की कीमतों का बढ़ना, और पूँजीपति वर्ग आम तौर पर मज़दूरी उत्‍पादों की कीमतों को कम रखना चाहता है, ताकि श्रमशक्ति का मूल्‍य कम हो और कुल नये मूल्‍य में मज़दूरी के हिस्‍से को मुनाफ़े के हिस्‍से के सापेक्ष घटाया जा सके। यह मार्क्‍स द्वारा बताया गया एक आम सिद्धान्‍त है। लेकिन इस मूल मुद्दे से उछल-कूद मचाकर पलायन करके मूर्खेश असीम जैसे ''यथार्थवादी'' अपनी पुरानी मूर्खताओं के बेताल को कन्‍धे पर लटकाये घूमते रहते हैं।

7. वैसे तो मोबाइल फोन के कॉल चार्जेज़ को मज़दूरी उत्‍पाद में गिनना एक बहसतलब मुद्दा हो सकता है, लेकिन फिर भी अगर मोबाइल फोन के कॉल चार्जेज़ की दीर्घकालिक प्रवृत्ति को देखा जाय, तो यह कम हुई है ज्‍़यादा? यह कम हुई है। 1995 में जब भारत में मोबाइल फोन लांच हुआ, तो प्रति कॉल दर रु. 24 थी। आज क्‍या स्थिति है? यह मूर्खेश असीम और उनके साथी ''यथार्थवादी'' खुद ही तुलना कर लें। इसका यह अर्थ नहीं है कि मोबाइल कम्‍पनियों का मुनाफ़ा घटा है। न ही इसका यह अर्थ है कि मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन स्‍तर ऊँचा उठ गया है। क्‍योंकि श्रमशक्ति के मूल्‍य में भी गिरावट आयी है और मज़दूरी का हिस्‍सा नये मूल्‍य में घटा है। इस रूप में अमीर और ग़रीब की खाई बढ़ी है और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ा है और ये ठीक उन्‍हीं नियमों के तहत हुआ है जिनके तहत पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में एक दीर्घकालिक प्रवृत्ति के तौर पर भी मालों का मूल्‍य घटता है। क्‍योंकि पूँजीपति वर्ग कीमतों को बढ़ाकर मुनाफ़ा नहीं वसूलता है, वह उत्‍पादकता को बढ़ाकर श्रम के शोषण की दर को बढ़ाता है और इस प्रकार अपने मुनाफ़े की दर को बढ़ाता है। यह दीगर बात है कि ठीक यही चीज़ कालान्‍तर में मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति को पैदा करती है। यह मार्क्‍सवाद का ककहरा है, जो ''यथार्थवादियों'' के सिर से बाउंसर के समान गुज़रता रहता है। हर तिमाही पर या हर छमाही पर कीमतों के घटने की दीर्घकालिक ऐतिहासिक पूँजीवादी प्रवृत्ति की पहचान करने का प्रयास भी कोई बुड़भक ही कर सकता है। कहना होगा कि इस प्रयास में सारे ''यथार्थवादी'' लगे रहते हैं।

8. धनी किसान-कुलक आन्‍दोलन पर हर्षोन्‍माद में पगलाए ''यथार्थवादी'' उत्‍तर प्रदेश चुनाव के बाद काफ़ी समय तक ख़ामोश हो गये थे! पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में 54 प्रतिशत जाट वोट (जिनका विचारणीय हिस्‍सा धनी किसानों-कुलकों से आता है) भाजपा को गया। इन बेचारों से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। लेकिन फिर जब लोगों ने इनसे काफ़ी सवाल पूछे तो उन्‍होंने प्रसिद्ध ब्रिटिश चुटकुले पर अमल किया: 'आप यदि आँकड़ों को पर्याप्‍त समय तक यातना दें तो उनसे कुछ भी बुलवा सकते हैं!' इन्‍होंने कहा कि वास्‍तव में भाजपा को पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में नुकसान हुआ क्‍योंकि भाजपा को कुछ सीटें हारनी भी पड़ीं! साथ ही, इनका कहना था कि सपा का वोट प्रतिशत किसानों के गुस्‍से के कारण ज्‍यादा बढ़ा! लेकिन यह एक सीधे से सवाल का जवाब नहीं दे पा रहे: जाट आबादी के बीच 2017 के चुनावों के मुकाबले भाजपा का वोट प्रतिशत 37 प्रतिशत से बढ़कर 54 प्रतिशत कैसे हो गया!? सपा का वोट प्रतिशत यदि भाजपा के वोट प्रतिशत में कटौती करके बढ़ा होता, तब तो ऐसे किसी तर्क पर कुछ विचार किया भी जा सकता था। लेकिन सपा और भाजपा दोनों का ही वोट प्रतिशत बढ़ा, और वह अन्‍य पार्टियों, विशेषकर बसपा और कांग्रेस की कीमत पर बढ़ा। इसलिए भाजपा का वोट प्रतिशत पूरे उत्‍तर प्रदेश और विशेषकर जाट आबादी में बढ़ना एक स्‍वतंत्र तथ्‍य है, जिसकी व्‍याख्‍या करने का प्रयास करते-करते बेचारे ''यथार्थवादी'' गंजत्‍व को प्राप्‍त हो गये! दूसरी बात, इनका कहना है कि 2022 के विधानसभा चुनावों के वोट प्रतिशत की तुलना हमें 2019 के लोकसभा चुनावों से करनी चाहिए। अगर यह तुलना की जाय तो पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में भाजपा का वोट प्रतिशत घटा है। यह भी एक कुतर्क है। सभी जानते हैं कि आम तौर पर विधानसभाओं और लोकसभा के लिए वोटिंग के पैटर्न में गुणात्‍मक अन्‍तर होता है। लोकसभा चुनावों में तमाम राज्‍यों में वही लोग जो भाजपा को वोट देते हैं, वे ही विधानसभा चुनावों में किसी क्षेत्रीय दल को वोट देते पाए गए हैं। इस परिघटना के तमाम विश्‍लेषण सामने आ चुके हैं, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि यह एक ठोस तथ्‍य है। इसलिए 2022 के विधानसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न की तुलना 2017 के विधानसभा चुनावों से ही की जा सकती है। और किसी भी सूरत में स्‍वतंत्र तौर पर यह सवाल तो बनता है कि 54 प्रतिशत जाट वोट इतनी नाराज़गी के बाद भी भाजपा को क्‍यों गया? इन ''यथार्थवादियों'' का दावा तो यह था कि इस बार उत्‍तर प्रदेश में जनता भाजपा से चुनाव लड़ रही है, कोई विपक्षी पार्टी नहीं और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में भाजपा का सूपड़ा साफ होने जा रहा है? जब नतीजे आये तो इन्‍होंने दाँत निपोर दिये और फिर आँकड़ों को यातना देने में लग गये! दिक्‍कत यह है कि ''यथार्थवादी'' बौड़म ब्रिगेड को वर्ग विश्‍लेषण नहीं आता है। न ही इन्‍हें राजनीतिक अर्थशास्त्र आता है। 

हम पहले भी हिन्‍दी जगत के सोशल मीडिया की प्रगतिशील जमात को इन ''बौद्धिक'' बहुरूपियों के बारे में आगाह करते रहे हैं, जो 'यथार्थ/दि ट्रूथ' पत्रिका के इर्द-गिर्द एकत्र हुए हैं। आगे भी हम इनकी इस अज्ञान-प्रसार परियोजना की सच्‍चाई से लोगों को अवगत कराते रहेंगे।


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