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Wednesday, 6 April 2022


31 मार्च 2022ः *अलेक्सांद्रा कोलोन्तई* का 150वां जन्मदिन


 समाजवादी क्रांति स्त्री नजरिये से


जिन महिलाओं ने विश्व राजनीति को गहरे प्रभावित किया, उनमें से एक हैं- अलेक्सांद्रा कोलोन्तई। पर्चे, पुस्तिका, भाषण से लेकर कहानी, उपन्यास तक- अभिव्यक्ति की हर विधा का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने औरतों की दासता को अर्थनीति का हिस्सा बताते हुए, उनकी मुक्ति का रास्ता प्रशस्त किया। न सिर्फ मुक्ति की राह दिखाई, बल्कि उसे लागू कराने के काम में भी हर तरीके से लगी रहीं। वे महिला आन्दोलन के इतिहास की एक महत्वपूर्ण नायिका हैं। समाजवादी क्रांति को स्त्री नज़रिये से समझने के लिए कोलोन्तई के विचारों से गुजरना बेहद ज़रूरी है और यह एक महत्वपूर्ण काम भी है। अलेक्सांद्रा कोलोन्तई रूस की बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय समिति की एकमात्र महिला सदस्य थी। सोवियत संघ की महान अक्टूबर क्रांति का दिशा निर्देशन करने वाले लोगों में वो एक थीं। वे समाजवाद में महिलाओं की मुक्ति की योजना की प्रस्तोता थीं। महिलाओं की मुक्ति से संबन्धित उनके विचारों ने पहली बार साफ तौर पर पूंजीवादी नारीवाद से मार्क्सवादी नारीवाद को अलग किया, साथ ही साथ मार्क्सवादियों के बीच भी महिलाओं के लिए अलग से काम करने के महत्व को स्थापित किया। 1913 में उन्होंने लिखा- ''नारीवादियों का लक्ष्य क्या है, उनका लक्ष्य है पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्दर ही अपने पति, भाई और पिता जितनी सुविधाओं और पावर को हासिल करना। जबकि सर्वहारा महिलाओं के लिए यह उनके 'मालिकों' से बराबरी का सवाल है, वे चाहें पुरूष हों या स्त्री। सर्वहारा के रूप में एकजुट होकर वे सभी वर्ग की महिलाओं की स्थिति को सहज बना सकती हैं।'' 

इस समय अलेक्सांद्रा कोलोन्तई को याद करने का खास सन्दर्भ है, क्योंकि इसी साल यानि 2022 के मार्च महीने में इतिहास की इस महत्वपूर्ण नायिका का 150वां जन्मदिन और 70वां स्मृति दिवस है। 31 मार्च जन्मदिन और 9 मार्च स्मृति दिवस। विडम्बना है कि आज भी महिलाओं की मुक्ति को लेकर उनके विचारों को स्वीकृति नहीं मिल सकी है। वजह ये है कि वे औरतों के शोषण की इकाई के रूप में 'परिवार' के खात्मे की बात करती हैं, औरतों को दासी बनाने वाले 'विवाह संस्था' के खात्मे की बात करती हैं, जो आसानी से पचाई जाने वाली बात नहीं है। ये बात अलग है कि समाज में 'परिवार' और 'विवाह संस्था' दोनों के दरकने की आवाजें साफ-साफ सुनाई देने लगी है, और जिसे पैच-पैबन्द लगाने का काम भी लगातार जारी है। मौजूदा समय में वैवाहिक बलात्कार को अपराध 'मानने' और 'न मानने' पर कोर्ट में जो बहस चल रही है उसे सुनें, तो यह समझ में आयेगा यह पूरा मामला 'विवाह की संस्था' को जस का तस बनाये रखने बनाम इसमें छोटा सा सुराख करने का ही है। विवाह संस्था को खत्म करने की बात नहीं हो रही है, बल्कि संस्था के बने रहते कुछ महिला अधिकारों की बात की जा रही है। कल्पना करके देखिये कि जब कोलोन्तई ने इन दोनों को खत्म करने की बात कही होगी, तो कितना हंगामा मचा होगा। बेशक कोलोन्तई के विचारों को लागू करने लायक भौतिक परिस्थितियां नहीं बनी हैं, लेकिन उन्हें याद करते हुए उनके विचारों को जे़हन में बनाये रखना ज़रूरी है, ताकि मुक्ति का रास्ता साफ-साफ दिखता रह सके। मुक्ति के इस रास्ते को समझाने और बताने के लिए कोलोन्तई ने अपना जीवन लगा दिया, अपने लेखन का बड़ा हिस्सा इसमें लगा दिया। बकौल कोलोन्तई ''लिखना ज़रूरी है, अपने लिये नहीं, उन तमाम अज्ञात महिलाओं के लिए भी जो बाद में जिएंगी। वे जानेंगी कि हम कोई बहुत नायक और नायिकाएं नहीं थे। बस यह था कि अपनी बातों में बहुत शिद्दत के साथ विश्वास करते थे। हम अपने लक्ष्यों पर विश्वास करते थे और उन्हें पूरा करने में लगे रहते थे। ऐसा करने में हम कभी बहुत मजबूत होते थे तो कभी बहुत कमज़ोर।'' और आज हम देख रहे हैं कि कोलोन्तई के महिला मुक्ति सम्बन्धी विचार जिस पर वे शिद्दत से विश्वास करती थीं, चुप रह कर भी अपने सही होने का ऐलान कर रहे हैं। 

महिला मुक्ति के सवाल को जैसे ही कोई समाज व्यवस्था के सवाल से जोड़ेगा, उसे इस पर अपनी पुख्ता राय बनाने के लिए अलेक्सांद्रा के विचारों को पढ़ना और समझना ही होगा। वास्तव में अलेक्सांद्रा कोलोन्तई ने एंगेल्स के विचारों को पूर्णता देने का काम किया है, इसे अतीत से भविष्य तक पहुंचाया है। एंगेल्स ने अगर महिलाओं की गुलामी के ऐतिहासिक कारणों को खोलते हुए परिवार और विवाह की संस्था को राज्य की उत्पत्ति और विकास से जोड़ा, तो कोलोन्तई ने राज्य के ही माध्यम से निजी सम्पत्ति का खात्मा कर उनकी मुक्ति का सटीक खांका प्रस्तुत किया।

एंगेल्स ने अपनी किताब 'परिवार निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति' में बताया है कि परिवार किसी राज्यसत्ता की सबसे छोटी इकाई है, यह किसी समाज की कोशिका है। निजी सम्पत्ति की व्यवस्था को संरक्षित और क्रियाशील बनाये रखने का काम प्राथमिक तौर पर विवाह और परिवार संस्था ही करती है। स्त्रियां व्याहकर परिवारों में लाई जाती हैं, ताकि वे उस कुनबे के 'वंशज' यानि बेटा पैदा करें। यह वंशज उस कुनबे के ही पुरूष का हो, इसके लिए हर धर्म की विवाह संस्था में औरतों को नियंत्रित करने वाले ढेरों धार्मिक रीति-रिवाज, नियम-कानून बने हैं। जिन्हें राज्यों का संरक्षण प्राप्त है। उदाहरण के लिए भारत में बलात्कार के कानून 375 की उपधारा 2, जो यह कहती है 'पति द्वारा अपनी पत्नी (जो 18 साल से ऊपर हो) से किसी भी तरह से बनाया गया यौन सम्बन्ध बलात्कार नहीं माना जायेगा।' इस छूट में यह अवधारणा निहित है कि पति अपनी पत्नी के साथ कुछ भी कर सकता है। इसके खिलाफ महिला संगठनों द्वारा कोर्ट में जो पीआईएल डाला गया है उसमें सरकार की ओर से जो तर्क आये हैं वे कहते हैं- 'कानून बना कर पति-पत्नी के बीच के सेक्स सम्बन्धों का अपराधीकरण करना विवाह संस्था और परिवार की संस्था में दखलअंदाजी करना है, क्योंकि विवाह का मतलब ही है कि पत्नी की सेक्स के लिए सहमति है।' यह बयान खुली सरकारी घोषणा है कि परिवार और विवाह संस्था औरतों के शोषण की एक इकाई है, जिसे बनाये रखने में सरकार की भी रूचि है। हो भी क्यों न, वो शोषण करने वाली निजी सम्पत्ति के संरक्षण वाली राज्य व्यवस्था की सरकार जो ठहरी।

एंगेल्स की ऐतिहासिक व्याख्या की रोशनी में देखें, तो निजी सम्पत्ति की शोषक व्यवस्था खतम होने के साथ ही राज्य और उसकी इकाई के रूप में परिवार और सामंती पितृसत्तात्मक विवाह संस्था का खात्मा हो सकता है और इसके बाद ही औरतों को दासता की स्थिति से मुक्ति मिलेगी।

अलेक्सांद्रा कोलान्तई इस जटिल विषय को आसान तरीके से यूं समझाती हैं कि पितृसत्ता का सवाल केवल संस्कृति से जुड़ा सवाल नहीं, समाज की अर्थव्यवस्था से जुड़ा सवाल है इसलिए यह समाज की अर्थव्यवस्था बदलने के साथ ही खत्म होगा। सिर्फ राजनीतिक लेखों ही नहीं, अपने उपन्यास के पात्रों कहानियों और लेखों के माध्यम से इस बात के महत्व को स्थापित किया कि महिलाओं को उनकी दासता की स्थिति से बाहर तभी लाया जा सकता है, जबकि उनकी निर्भरता उनके पतियों या किसी पुरूष पर नहीं, बल्कि समाज के रूप में राज्य पर हो, उसी तरह जैसे पुरूषों की होती है। 

दूसरे, उन्होंने इस बात पर बहुत अधिक जोर दिया कि औरतें अपनी दासता से तभी मुक्त हो सकती हैं, जबकि पैदा होने वाला हर बच्चा मां या पिता की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि राज्य की ज़िम्मेदारी हो। इन दोनों से मुक्ति दिला कर ही औरतों की मुक्ति संभव है और ये दोनों काम उसी समाज व्यवस्था में हो सकता है, जिसमें निजी सम्पत्ति की व्यवस्था न हो और श्रम से पैदा हर सम्पत्ति सामूहिक हो। यह समाजवादी राज्य व्यवस्था में ही संभव है। लेकिन इस व्यवस्था में भी यह तभी संभव है, जब इसके प्रति दृष्टिकोण साफ हो। निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के खात्मे के बाद भी पितृसत्ता की व्यवस्था परिवार के माध्यम से बनी रहती है और ये पितृसत्तात्मक परिवार पलटकर निजी सम्पत्ति की व्यवस्था को लागू कराने का पूरा प्रयास करते रहते हैं, इसलिए इसे बदलना बहुत जरूरी है लेकिन इसे बदलना ही सबसे मुश्किल भी है, इसीलिए कोलोन्तई अर्थव्यवस्था के साथ मनोविज्ञान और नयी कम्युनिस्ट नैतिकता के हस्तक्षेप को भी ज़रूरी मानती हैं। सोवियत संघ के समाजवादी समाज में भी इसे लागू करने के लिए कोलोन्तई को काफी मशक्कत करनी पड़ी और विरोध झेलना पड़ा। 

सोवियत संघ के समाजवादी समाज में औरतों को दासता में बांधने वाले विवाह संस्था को एक पितृसत्तात्मक संस्था के रूप में खत्म करने का पूरा प्रयास किया गया, इसका पूरा उपाय किया गया कि परिवारों के अन्दर उत्पीड़न न होने पाये, पतियों द्वारा पत्नियों को तलाक दिये जाने सम्बन्धी सभी नियमों को कड़े बनाये गये। समाजवादी देश की पहली समाज कल्याण मंत्री के रूप में देश का पहला विवाह पंजीकरण कानून भी अलेक्सांद्रा कोलोन्तई ने ही बनाया। लेकिन बाद में उन्होंने इन सब को नकारते हुए कहा कि से सारे नये कानून दरअसल समाजवादी कानून नहीं, बल्कि 'अच्छे पूंजीवादी कानून' ही हैं, क्योंकि ये महिलाओं की पुरूषों पर आर्थिक और सामाजिक निर्भरता को तोड़ने का काम नहीं करते हैं जिसके बगैर औरतों की मुक्ति संभव नहीं है। उनका कहना था कि इन कानूनों की बजाय सरकार को केवल तीन काम मजबूती के साथ करना चाहिए- 

1-महिलाओं को पतियों की जिम्मेदारी मानने की बजाय हर नागरिक जिसमें महिला भी शामिल है, के भरण-पोषण की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्य को लेनी चाहिए। अलेक्सांद्रा का कहना था, कि तलाक के वक्त महिलाओं को उनके पति यानि पुरूषों से हर्जाना दिलाने का विचार गैर बराबरी पर तो टिका ही है अपने सार में यह महिलाओं का अपमान भी है, क्योंकि इस बात में यह निहित है कि पुरूष ही उसके भरण-पोषण के लिए जिम्मेदार है। तीसरी बात यह कि यह कानून सिर्फ अमीर पुरूषों पर ही लागू हो सकता है, सम्पत्तिविहीन पुरूष पर नहीं। इसकी बजाय महिला के भरण पोषण का जिम्मा पूरी तरह सरकार का होना चाहिए। ताकि किसी पुरूष से अलग होने, न होने का उसकी आर्थिक स्थिति पर कोई फरक ही न पड़े।

2-समाज का हर बच्चा, क्योंकि वह समाजवादी समाज का भविष्य है, इसलिए उसके परवरिश की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। महिला की गर्भावस्था और बच्चे को जन्म देना कोई व्यक्तिगत पारिवारिक दायित्व नहीं, बल्कि समाज के प्रति महिला का योगदान है, इसलिए बच्चे के गर्भ में आने से लेकर उसके वयस्क नागरिक बनने तक उसके परवरिश की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए, न कि किसी 'परिवार' के भरोसे पर उसे छोड़ना चाहिए। मां का दायित्व उसे जन्म देने और उसे दूध पिलाने की अवधि के बाद समाप्त हो जाता है, इसके बाद की सारी जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए। अलेक्सांद्रा तो यहां तक कहती हैं कि बच्चे के पिता के लिए उसका पितृत्व स्वीकार करना, न करना उसकी मर्जी पर छोड़ देना चाहिए। साथ ही हर मां-पिता को भी सिर्फ अपने बच्चे की परवरिश की बजाय समाज के बच्चों की परवरिश के बारे में सोचना चाहिए। वे इसे इस शब्द में कहती हैं कि 'सिर्फ अपने बच्चे की मां नहीं, सबके बच्चों की मां बनो।' इस तरह से औरतें सदियों पुरानी दिमाग में जड़ बना चुकी एक बहुत बड़ी चिन्ता से मुक्त हो सकेंगी कि 'अगर वे पति से अलग हो गयीं, तो उनके बच्चों का क्या होगा।' ये ऐसी बड़ी चिन्तायें हैं, जो कि औरतों की गुलामी का और उन्हें परिवार के दायरे में सोचने के लिए बाध्य करती है।      

3- औरतों के घर में किये जाने वाले कामों का सार्वजनिकीकरण। यानि घरेलू काम, जो कि परिवार संस्था में घर की दासी होने के नाते औरतों की ही जिम्मेदारी मानी जाती है, को सामाजिक बना देना। पुरूष या औरतों का जो भी समूह इस काम को करता है, उसे सार्वजनिक श्रम के हिस्से के तौर पर पहचान कर उसकी कीमत निर्धारित करना। अलेक्सांद्रा का कहना था कि घरेलू श्रम भी राष्ट्र की आमदनी में योगदान करता है, तो उसे उपेक्षित क्यों छोड़ा जाय? इसे देश की आमदनी से जोड़ा जाना चाहिए, इसे देश के लिए किया जाने वाला श्रम माना जाना चाहिए। घरेलू कामों के प्रति यह क्रांतिकारी समझदारी थी, जिसने महिलाओं को एक बड़े बन्धन से आज़ाद होने के सपने दिखाये और उस ओर उन्होंने एक कदम भी बढ़ाया।

ये तीन ऐसे क्रांतिकारी कदम है, जिससे समाज की अर्थव्यवस्था को पितृसत्ता रहित किया जा सकता है और जिससे परिवार और विवाह संस्था की नींव ढहाई जा सकती है। मामूली सी लगने वाली समाज की इसी इकाई पर पूरे राज्य की निजी सम्पत्ति के संरक्षण वाली भारी भरकम मशीनरी खड़ी है। जाहिर है ये आसान काम नही है। समाजवादी सोवियत संघ तक में यह स्वीकार नहीं किया गया। कोलोन्तई पर लेखों-भाषणों के माध्यम से हमले किये गये। किसी ने उन्हें 'अति वामपंथी' कहा, तो किसी ने 'नारीवादी'। वामपंथी उन्हें 'नारीवादी' कहते रहे और नारीवादी उन्हें 'अति वामपंथी', तो कुछ लोग 'अति वामपंथी नारीवादी' भी। महिला मुक्ति के सवाल को वे अलग-थलग अधिरचना में स्थित पितृसत्ता के रूप में नहीं, बल्कि आधार का सवाल मानते हुए व्यवस्था परिवर्तन से जोड़कर देखती थीं, इसलिए वे नारीवादियों के बीच में 'वामपंथी' कहकर नकारी जाती रहीं। और आधार में बदलाव को वे केवल राज्य की अर्थव्यवस्था में बदलाव से आगे बढ़ाकर परिवार और  यौन नैतिकता में बदलाव तक ले जाती थीं इसलिए वामपंथी उन्हें 'नारीवादी' कहकर नकारते रहे।

सोवियत संघ भीतर से लेकर बाहर तक खुद इतने तरह के चौतरफा हमलों से घिरा हुआ था, कि उसके पास इस द्वंद को समझने और सुलझाने का समय ही नहीं था। युद्धों से निपटते हुए सोवियत संघ ने समाजवादी समाज को अभी जमीन पर उतारना ही शुरू किया था कि यह संशोधनवाद का शिकार हो गया। लेकिन यह भी सच है कि क्रांतिकारी महिला आन्दोलन को इस समाज से जिस मॉडल की उम्मीद थी, वह मॉडल पूरी तरह बन ही नहीं सका। बेशक क्रांतिकाल से लेकर हिटलर की सेना के खिलाफ मोर्चे पर सोवियत महिलाएं अपनी परम्परागत भूमिकाओं को जिस तरह से तोड़कर सामने आयी हैं, वह अभूतपूर्व है। यह आने वाले सुन्दर समाज की एक झलक तो दिखा ही गया। लेकिन सच है पितृसत्ता क्योंकि सबसे पुरानी बीमारी है, और एंगेल्स के शब्दों में क्योंकि यह मानव इतिहास का पहला वर्ग विभाजन था, इसलिए इससे लड़ाई भी काफी लम्बी और कठिन है। इसलिए भी यह कठिन है क्योंकि यह लड़ाई अपने ही लोगों से लड़ी जानी है। अलेक्सांद्रा जैसी नायिकाओं के कामों का एक बड़ा हिस्सा इन लड़ाइयों की ही भेंट चढ़ गया। 

स्माजवादी समाज से महिलाओं की जो अपेक्षायें थी, और कॉमरेड साथियों के साथ जो उनका असली जीवन था, उस पर उन्होंने कुछ कहानियां लिखीं, 'लव ऑफ वर्कस बीज़' नाम के संग्रह में प्रकाशित उनकी तीन कहानियां बहुत चर्चित भी हुई और आलोचना का शिकार भी हुई। क्योंकि इन कहानियों में उनके पात्रों का यौन जीवन अनियंत्रित और अनैतिकता की ओर बढ़ता हुआ है। लोगों का आरोप था कि वे ऐसे अराजक सम्बन्धों को बढ़ावा देना चाहती हैं। जबकि अलेक्सांद्रा का तर्क था कि वे अपनी कहानियों के माध्यम से नई अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाली नई यौन नैतिकताओं की ओर ध्यान दिला रही हैं। अपने एक भाषण में वे कहती भी हैं कि 'यौन नैतिकतायें भी समाज की अर्थव्यवस्थाओं के साथ बदलती रहती हैं। यह स्थिर नहीं रहती हैं, इसके साथ ही विवाह की संस्था और और परिवार की संस्था भी।' इन पर ध्यान देने के लिए वे आगे कहती है ''कम्युनिष्ट लोगों को नई नैतिकताओं को खुलेपन से स्वीकार करना चाहिए.....लेकिन हमें कम्युनिस्ट नैतिकता के महत्व को भी समझना होगा। ये दो टास्क नजदीकी से जुड़े हैं-नई नैतिकता नई अर्थव्यवस्था से बनती है, लेकिन हम नई कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था बगैर नयी नैतिकता के सहयोग से नहीं बना सकते। यह क्रांति आर्थिक ढांचे में बदलाव के साथ और सर्वहारा राज्य में औरतों के उत्पादन के कामों में भागीदारी के साथ सम्पन्न होती है। बदलाव के इस कठिन और समय के दौरान, जबकि पुराना ध्व्स्त हो रहा है और नया बनने की प्रक्रिया में हो- लिंगों के बीच के संबंध कभी ऐसे भी विकसित हो जाते हैं, जो सामूहिकता के सन्दर्भ में उचित नही होते, लेकिन फिर भी उनमें कुछ स्वस्थ्य सम्बन्ध ही होता है।''

कोलोन्तई के इन विचारो को पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि वे स्त्री-पुरूष के बीच अराजक यौन सम्बन्धों को प्रोत्साहित करती हैं। लेकिन वे इसके तुरन्त बाद और कई जगह लिखती है कि ''वह व्यवहार जो समूह के लिए हानिकारक हो कम्युनिस्टों द्वारा अवश्य रिजेक्ट किया जाना चाहिए।'' 

सोवियत संघ में परिवार की संस्था और विवाह की संस्था को ध्वस्त कर उसमें समाजवादी बदलाव न लाने की आलोचना करते हुए वे लिखती हैं-''पुरानी अर्थव्यवस्था बिखर रही है, इसके साथ ही पुराने टाइप की शादी भी, लेकिन हम बुर्जुआ लाइफ स्टाइल से चिपके हुए हैं। हम पुराने सिस्टम के सभी पहलुओं को रिजेक्ट करने के लिए और जीवन के हर पहलू में क्रांति के स्वागत के लिए तैयार हैं, केवल परिवार को मत छुओ, परिवार को बदलने का प्रयास मत करो। यहां तक कि राजनैतिक रूप से जागरूक कम्युनिस्ट भी सच्चाई को सीधे देखने से बच रहे हैं, वे इस तथ्य से आंख चुरा रहे हैं, जो ये दिखाती है कि पुराने पारिवारिक सम्बन्ध कमजोर हो रहे हैं और अर्थव्यवस्था का नया रूप लिंगों के बीच नये तरह के संबन्धों का निर्देश दे रहा है, सोवियत पावर इस बात को चिन्हित कर रहा है कि महिलाओं को देश की अर्थव्यवस्था में आदमियों के बराबर भूमिका निभानी है, लेकिन रोजमर्रा के जीवन में हम पुराने तरीकों को अपनाते हुए पुरानी शादी के रूप को चलाये जा रहे हैं, जिसमें महिलाओं का पुरूषों के ऊपर भौतिक निर्भरता बनी रहती है।'' 

कोलोन्तई का जोरदार मत था कि इस निर्भरता को तोड़े बगैर दोनों के बीच में नये तरह के बराबरी और शुद्ध प्रेम पर टिके सम्बन्ध पनप ही नहीं सकते। इस सन्दर्भ में हम आज के 'लिव इन' सम्बन्धों को भी देख सकते हैं। जो ऊपरी तौर पर तो सामंती पितृसत्तात्मक विवाह संस्था को नकार कर बने नये तरह के सम्बन्ध हैं, जिसे स्वीकार तो किया जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ इस सच्चाई को भी ध्यान में रखना चाहिए कि गैर बराबरी की भौतिक स्थितियों को तोड़े बगैर इस नई यौन नैतिकता में भी महिलाओं के शोषण की संभाव्यता ज़रा भी कम नहीं होती, बल्कि क्योंकि इसमें 'विवाह संस्था' से औरत और उसके होने वाले बच्चे को मिलने वाली सामंती सुरक्षा भी छिन जाती है, शोषण की संभावना और भी बढ़ जाती है। इसलिए पुरानी यौन नैतिकताओं को तोड़ते हुए नया गढ़ना या गढ़ने की प्रक्रिया में लगना भी बहुत ज़रूरी है। यही कम्युनिस्ट नैतिकता है। 

कोलोन्ताई की सोवियत समाज की आलोचना को बहुत से लोग इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि 'देखों समाजवादी समाज में भी महिलाओं का शोषण हो रहा था', देखो उनकी भी बात नहीं सुनी जा रही थी।' इसका ये मतलब नहीं हो जाता कि महिलाओं की मुक्ति के लिए समाजवाद का रास्ता ही गलत है। बल्कि अलेक्सांद्रा का विश्लेषण समाजवाद द्वारा ही महिलाओं की मुक्ति को और मजबूती के साथ स्थापित करता है, साथ ही यह भी स्थापित करता है कि महिलाओं का पितृसत्ता से संघर्ष समाजवादी अर्थव्यवस्था लाये जाने के बाद भी जारी रहेगा, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना पहला कदम होगा। सोवियत संघ में महिलाओं की मुक्ति एक कदम आगे बढ़कर वापस लौटी है। यहां निश्चित ही यह भी सोचना चाहिए कि रूस में समाजवाद के खत्म होने के लिए कहीं ये बात भी तो महत्वपूर्ण नहीं है कि इसने निजी सम्पत्ति की सबसे छोटी इकाई परिवार को बना कर रखा था? और 'परिवार को न छूने' की बात आज भी कम्युनिस्ट संगठनों में पितृसत्ता की वजह तो नहीं बना हुआ है?  कोलोन्तई के जन्म का 150वां जन्म दिन मनाते हुए निश्चित ही इस पर विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन को विचार करना चाहिए। 


 *सीमा आज़ाद* 

समयांतर मार्च 2022 में प्रकाशित लेख




पूँजीवाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद ! 

दुनिया के मजदूरो, एक हो!

वैज्ञानिक समाजवाद जिंदाबाद!!

मजदूरी प्रथा का खात्मा हो!!


 28-29 मार्च, 2022 को आहूत देशव्यापी मजदूर हड़ताल को सफल बनाएँ!


साथियो,


श्रम के शोषण पर आधारित वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में विषमता का आलम यह है कि जहाँ पिछले साल दस अरब से ज्यादा की संपत्ति वाले अति धनियाँ की संख्या में 179 का इजाफा हो गया, वहाँ गरीबों ( 4500रु. मासिक आय वाले) की संख्या में साढ़े 7 करोड़ की वृद्धि हो गई। कोरोना काल के मात्र आठ महीने में ही प्रमुख दस कंपनियों ने अपनी संपत्ति 42 लाख करोड़ रुपए के बराबर बढ़ा ली. जबकि निचली आधी आबादी, यानी मजदूर वर्ग व मेहनतकशों का देश की औसत आय में हिस्सा 1980 ई. के 20 प्रतिशत से भी कम होते-होते 13 प्रतिशत पर पहुँच गया है। ऐसी स्थिति में भी मोदी सरकार लेबर कोड के सहारे चाहती है कि पूँजीपति वर्ग मजदूरों के खून पीने तक ही सीमित न रहे, बल्कि उनकी बोटी-बोटी नोच ले। कहना न होगा कि चारों लेबर कोड के लागू होने पर आजीविका की अनिश्चितता व असुरक्षा बढ़ेगी, निर्माण मजदूरों से संबंधित कल्याण बोर्ड' का खात्मा हो जाएगा, मजदूरों से 12 घंटे तक काम लेना संभव हो सकेगा, मालिकों- ठेकेदारों को बुरी से बुरी शर्तों पर काम लेने व मनमानी करने का कानूनी अधिकार मिल जाएगा लेकिन, मजदूरों के लिए यूनियन बनाने में अड़चनें बढ़ जाएँगी और हड़ताल करने पर दंडित किए जाने की स्थिति बन जाएगी। इस प्रकार मजदूरों की जिंदगी एक गुलाम से भी बदतर हो जाएगी।


पूँजीवादी व्यवस्था और बेकारी की समस्या का चोली-दामन का साथ होता है। श्रम मंत्रालय के नेशनल कैरियर सर्विस पोर्टल पर पिछले अक्टूबर महीने में ही एक करोड़ 10 लाख बेरोजगार पंजीकृत हुए हैं। नवंबर महीने में देश के गाँवों व शहरों में बेरोजगारी दर करीब साढ़े 10 प्रतिशत रही। एन.एस.ओ. के अनुसार वित्तीय वर्ष (2020-21 ) में पिछले साल की तुलना में 25 लाख कम रोजगार प्रदान किए गए। केंद्रीय बजट में मनरेगा के मद में 25 प्रतिशत की कटौती से बेरोजगारी और बढ़ेगी। सरकारी कंपनियों व रेल को पूँजीपतियों के हाथों बेचने से शोषण, छँटनी व बेकारी में बेतहाशा वृद्धि होगी। आवागमन के सबसे बड़े साधन- रेल के निजीकरण से काम की खोज में शहर-दर-शहर भटकते मजदूरों के ही लिए नहीं, आम जनों की यात्रा भी महँगी हो जाएगी।


पूँजीपति वर्ग के शासन के तहत जमाखोरों व कालाबाजारियों की तो चाँदी है, लेकिन मजदूर और व्यापक मेहनतकश जनता त्रस्त है। हल्दी, जीरा, धनिया आदि मसालों के दामों में पिछले दिनों 71 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। कच्चा माल, माल-बिक्री, पूंजी निवेश व मुनाफे के मद्देनजर साम्राज्यवादी देशों द्वारा बाँटी गई दुनिया में रूस ने यूक्रेन के विरूद्ध इस मंसूबे से युद्ध छेड़ दिया है कि वह अमेरिका के पीछे-पीछे न चलकर उसकी बात माने। विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जंजीर की एक कड़ी होने के चलते भारत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। भारत के पूँजीपति विभिन्न देशों को गेहूँ, कोयला आदि निर्यात करने के लगातार ऑर्डर ले रहे हैं। निस्संदेह वे तो मालामाल होंगे, लेकिन महेंगी हुई खाद्य सामग्रियों से मेहनतकश जनता का जीवन और कष्टमय हो जाएगा। इतना ही नहीं, युद्ध का हवाला देकर तेल कंपनियों और अधिक महँगे पेट्रोल बेचकर मालामाल होंगी। केंद्रीय बजट में खादय अनुदान उर्वरक अनुदान, रसोई गैस अनुदान एवं छात्रों के लिए ब्याज अनुदान में क्रमश: 28 प्रतिशत 17 प्रतिशत, 10 प्रतिशत व 7 प्रतिशत की कटौती करने के कारण मजदूरों-मेहनतकशों पर आर्थिक बोझ तो बढ़ ही जाएगा. छात्रों के लिए महँगी होती शिक्षा और अप्राप्य होती जाएगी। देश में जन स्वास्थ्य पर सालाना होनेवाले कुल खर्च के 70 प्रतिशत तक लोगों द्वारा ही खर्च करने की बाध्यता के कारण व्यापक मजदूर मेहनतकश आबादी के लिए बीमारी का इलाज कराना बहुत ही मुश्किल है।


समस्याग्रस्त मजदूर मेहनतकश जनता की आवाज उठाने पर घोर प्रतिक्रियावादी भारतीय सरकार द्वारा "हिंदुत्व का जाल फेंकने के साथ-साथ लोगों को परेशान करने के लिए राजद्रोह कानून व यू.ए.पी.ए. के तहत धड़ल्ले से गिरफ्तारियाँ की जाती हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2016-20 के बीच 'यू.ए.पी.ए.' के तहत 7243 गिरफ्तारियों में से सिर्फ 212 पर ही दोष सिद्ध हो सका।


ऐसी विकराल होती स्थिति में केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल का जो आह्वान किया है, हमारी यूनियन उसका समर्थन करती हैं। हम तमाम मजदूरों-मेहनतकशों एवं छात्रों से हड़ताल में शामिल होने की अपील करते हैं, ताकि धार्मिक विद्वेष फैलानेवाली, हमारे जीवन को बद से बदतर बनानेवाली, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को यू.ए.पी.ए. के तहत फँसानेवाली फासीवादी भाजपाई सरकार को यह संदेश दिया जा सके कि तुम्हारी मनमानी अब बर्दाश्त से बाहर है।


इस हड़ताल के माध्यम से सरकार से हमारी मुख्य माँगें निम्नलिखित हैं


1. चारों लेबर कोड रद्द करो !


2. न्यूनतम मजदूरी 25,000 रुपए मासिक तय करो! 


3. तमाम बेरोजगारों को न्यूनतम 15,000 रुपए मासिक भत्ता दो !


4. राज्य के खर्चे पर असंगठित क्षेत्र के तमाम मजदूरों के लिए न्यूनतम पेंशन 10,000 रुपए घोषित करो!


5. राज्य के खर्चे पर शिक्षा और पूर्ण इलाज की व्यवस्था करो!


6. हर मजदूर परिवार को राशन कार्ड प्रदान करो !


7. रेल व सरकारी कंपनियों को पूँजीपतियों को बेचना बंद करो! 8. राजद्रोह कानून एवं यू.ए.पी.ए.' रद्द करो ! 


नोट- 28 मार्च को 11:30 बजे तक पटना जंक्शन स्टेशन गोलंबर के पश्चिम में जुटना है और वहाँ से एकजुट होकर डाक बँगला चौराहा जाना है। 


क्रांतिकारी अभिनंदन के साथ,


बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन 

संपर्क- 9334356085, 9973043956, 9470726481



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. इसकी शुरुआत आज से क़रीब एक सदी पहले समाजवादी आंदोलनों से हुई थी.

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत साल 1908 में हुई थी, जब अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में क़रीब 15 हज़ार महिलाएं सड़कों पर उतरी थीं.

ये महिलाएं काम के कम घंटों, बेहतर तनख़्वाह और वोटिंग के अधिकार की मांग के लिए प्रदर्शन कर रही थीं.

महिलाओं के इस विरोध प्रदर्शन के एक साल बाद, अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहले राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने की घोषणा की थी.

महिला दिवस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का विचार क्लारा ज़ेटकिन का था.

क्लारा ज़ेटकिन ने वर्ष 1910 में विश्व स्तर पर महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव किया था.

क्लारा उस वक़्त यूरोपीय देश डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में कामकाजी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में शिरकत कर रही थीं.

इस कांफ्रेंस में उस वक़्त 100 महिलाएं मौजूद थीं, जो 17 देशों से आई थीं. इन सभी महिलाओं ने सर्वसम्मति से क्लारा के इस प्रस्ताव को मंज़ूर किया था.

पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस वर्ष 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटज़रलैंड में मनाया गया था

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को औपचारिक मान्यता वर्ष 1975 में उस वक़्त मिली, जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मनाना शुरू किया.

*नारी मुक्ति पर फे. एंगेल्स

"…मेरा विश्वास है कि स्त्रियों और पुरुषों के बीच वास्तविक समानता केवल तभी स्थापित हो सकती है जब पूँजी द्वारा किये जाने वाले दोनों के शोषण को मिटा दिया जाय और गृहस्थी के घरेलू काम-काज को एक सार्वजनिक उद्योग बना दिया जाये।"

फ्रेडरिक एंगेल्स (5 जुलाई, 1885 के आसपास गर्टूड जिलामें-शाक के नाम लिखे गये एक पत्र का अंश)

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रोजा लग्जमबर्ग

जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब माँगेंगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी।

            




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