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Friday, 29 April 2022

मई दिवस

मई दिवस के शहीदों को याद करो!
अपने हकों-अधिकारों के लिए एकजुट हों!!

साथियो

मज़दूरों के सबसे बड़े त्योहार 'अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस' यानी 1 मई को दुनियाभर के पूँजीपति अमीरज़ादे दबाने की कोशिश करते हैं, पर हम मज़दूरों के लिए तो ये दिन सबसे खास है। इसलिए हमें इस दिन की अहमियत समझने की विशेष ज़रूरत है। आज से लगभग 130 वर्ष पहले अमेरिका के शिकागो शहर में मज़दूरों ने इन्सानों की तरह ज़िन्दगी जीने की जंग छेड़ी थी। उस वक़्त मज़दूरों से बारह से अठारह घण्टे हाड़तोड़ काम करवाया जाता था। स्त्रियों व बच्चों से भी इतने ही घण्टे काम करवाया जाता था। काम की परिस्थितियाँ भी बेहद नारकीय रहती थीं। मज़दूरों की औसत उम्र बेहद कम होती थी। मज़दूरों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता था। अधिकतर मज़दूर दिन का उजाला भी नहीं देख पाते थे। कोई अगर आवाज़ उठाता था तो मालिक उस पर गुण्डों व पुलिस से हमला करवाते थे। ऐसे में शिकागो के बहादुर मज़दूरों ने इस तरह जानवरों की तरह खटने से इनकार कर दिया और आठ घण्टे के कार्यदिवस का नारा बुलन्द किया। उनका नारा था- 'आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन'। 1877 से 1886 के बीच अमेरिका भर के मज़दूरों ने ख़ुद को आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए संगठित करने का काम किया। शिकागो का मज़दूर आन्दोलन बेहद मज़बूत था। वहाँ के मज़दूरों ने तय किया कि 1 मई के दिन सभी मज़दूर काम बन्द करके सड़कों पर उतरेंगे और आठ घण्टे के कार्यदिवस का नारा बुलन्द करेंगे। 1 मई के दिन शिकागो के लाखों मज़दूर सड़कों पर उतरे और 'आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन' के नारे से सारा शिकागो गूँज उठा। मज़दूरों की इस विशाल ताक़त ने सारे मालिकों के भीतर डर पैदा कर दिया। इसके दो दिन बाद डरे हुए मालिकों ने भाड़े के गुण्डों से मज़दूरों की एक जनसभा पर कायराना हमला करवाया। इस हमले में 6 मज़दूरों की हत्या की गयी। अगले दिन 'हे मार्केट' नाम के बाज़ार में मज़दूरों ने इस हत्याकाण्ड के विरोध में विशाल प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन पर भी पुलिस ने हमला कर दिया। इस प्रदर्शन में पूँजीपतियों ने जानबूझकर बम फिंकवा दिया जिससे कुछ पुलिसवाले व अनेक मज़दूर मारे गये। बम फ़ेंकने के फ़र्जी आरोप में आठ मज़दूर नेताओं पर मुक़दमा चलाया गया और चार मज़दूर नेताओं- अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, एंजेल्स व फ़ि‍शर को फ़ाँसी दे दी गयी। अपने प्यारे नेताओं की शवयात्रा में 6 लाख से भी अधिक मज़दूर सड़कों पर उमड़ पड़े।

May day Martyrs Curved version 12शिकागो के मज़दूरों के महान संघर्ष को तो मालिकों ने कुचल दिया, उसे खून की दलदल में डुबो दिया लेकिन जो चिंगारी शिकागो के मज़दूरों ने लगाई थी उसकी आग दुनिया भर में फ़ैल गयी। आठ घण्टे काम की माँग पूरी दुनिया के मज़दूरों की माँग बन गयी। अन्ततः मज़दूरों ने संघर्षों के ज़रिये यह माँग जीत ली। दुनियाभर के पूँजीपतियों की सरकारों को क़ानूनी तौर पर आठ घण्टे का कार्यदिवस देने पर मजबूर होना पड़ा। मज़दूर आन्दोलन यहीं पर ही नहीं रुका बल्कि विश्व के बड़े हिस्से में पिछली सदी में मज़दूरों ने इंक़लाब के ज़रिये पूँजीपतियों की राज्यसत्ता को उखाड़कर अपनी राज्यसत्ता भी स्थापित की। उन्होंने ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें कारख़ानों, खदानों व ज़मीनों के वे खुद ही मालिक थे। मज़दूर जो कि दुनिया की हर चीज़ का निर्माण करते हैं, उन्होंने धरती पर ही स्वर्ग बनाकर दिखा दिया था।

लेकिन ग़द्दारों, भितरघातियों व अपनी भी कुछ ग़लतियों के कारण मज़दूरों ने जहाँ-जहाँ अपना राज कायम किया था, वहाँ पर फि़र से पूँजीपति सत्ता में लौट आये हैं। मज़दूर आन्दोलन को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। मज़दूरों ने अधिकतर श्रम क़ानून जो लड़कर हासिल किये थे, आज वो क़ानूनी किताबों में पड़े-पड़े सड़ रहे हैं और दुनियाभर की सरकारें मज़दूरों से रहे-सहे अधिकार भी छीन रही है। पूँजीवादी व्यवस्था जोकि मज़दूरों के खून-पसीने को लूटकर चंद पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरती है, आज बेहद संकट में यानी कि मन्दी में फ़ँसी हुई है। इस मन्दी के कारण पूँजीपतियों का मुनाफ़ा लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि बाज़ार में उनका माल बिक नहीं पा रहा है। अपने मुनाफ़े को जारी रखने के लिए ही आज पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों के ज़रिये मजदूरों का और अधिक शोषण करने पर उतारू है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही सबसे पहले मज़दूर वर्ग पर हमला बोला है। मोदी सरकार ने सभी श्रम-क़ानूनों को पूँजीपतियों के हितों के हिसाब से बदलना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने अभी यह क़ानून लागू किया है कि जिन कारख़ानों में 300 मज़दूर तक काम करते हैं, उसे कभी भी मालिक बन्द कर सकता है, यानी 300 मज़दूरों को जब चाहे धाक्का मारकर काम से निकाल सकता है। महाराष्ट्र के 41,000 कारख़ानों में से 39,000 कारख़ानों में 300 से कम मज़दूर काम करते हैं। पूँजीपतियों की सरकारें इसी तरह के क़ानून लाकर आज मज़दूरों को लूट रही हैं और मालिकों के लिए धन्धा करना और धन्धा बन्द करना आसान बना रही हैं। आठ घण्टे काम का क़ानून भी आज कहीं लागू नहीं हो रहा है और केवल किताबों में ही बन्द है। रतन टाटा ने इस क़ानून को भी 9 घण्टे करने का सुझाव सरकार को दिया है। अपनी लायी हुई मन्दी को आज हमारे ऊपर लादकर पूँजीपति वर्ग लाखों-करोड़ों लोगों को बेरोज़गारी और भयंकर ग़रीबी की ओर धकेल रहा है। हमारी एकजुटता न होने के कारण मालिकों के लिए यह आसान भी है।

आज मज़दूरों की 93 फ़ीसदी (लगभग 56 करोड़) आबादी ठेका, दिहाड़ी व पीस रेट पर काम करती है जहाँ 12 से 14 घण्टे काम करना पड़ता है और श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता। जहाँ आए दिन मालिकों की गाली-गलौज का शिकार होना पड़ता है। इतनी हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी हम अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने नहीं देख सकते। वास्तव में हमारा और हमारे बच्चों का भविष्य इस व्यवस्था में बेहतर हो भी नहीं सकता है। आज ज़रूरत है कि हम मज़दूर जो चाहे किसी भी पेशे में लगे हुए हैं, अपनी एकता बनायें। आज हम ज्यादातर अलग-अलग मालिकों के यहाँ काम करते हैं इसलिए आज ये बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी इलाकाई यूनियनें भी बनायें। अपनी आज़ादी के लिए, अपने बच्चों के भविष्य के लिए, इन्सानों की तरह जीने के लिए और ये दिखाने के लिए कि हम हारे नहीं हैं, हमें एकजुट होने की शुरुआत करनी ही होगी।

इंक़लाबी अभिवादन के साथ,

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