🔴मई दिवस : मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी संघर्ष
Www.enagrik.com (1-15May 2020)
मई दिवस पूरी दुनिया में 1 मई को मनाया जाता है। यह दिन मजदूर वर्ग के 8 घंटे काम के दिन के संघर्ष के रूप में जाना जाता है। '8 घंटे काम, 8 घंटे आराम और 8 घंटे मनोरजंन' के नारे के तहत 1 मई 1886 में शिकागो शहर के मजदूरों की शानदार हड़ताल और 4 मई को शिकागो शहर में हे मार्केट की घटना के बाद मजदूरों के नेता पार्सन्स, फिशर, एंजेल्स और स्पाइस को फांसी देने की पूंजीपति वर्ग और उसकी संस्थाओं की हठधर्मिता ने 1 मई को पूंजी व श्रम के बीच वर्ग संघर्ष में एक मील का पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया। और 1889 से 1 मई को वैश्विक स्तर पर मजदूरों के 8 घंटे काम के संघर्ष के रूप में मनाया जाने लगा।
मानव समाज के वर्ग संघर्ष के इतिहास में जब पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की शुरूआत हुयी तब उसने मजदूरों के शोषण करने के नये-नये कीर्तिमान रचे। उसने केवल पुरुष मजदूरों के ही नहीं बल्कि महिलाओं व छोटे-छोटे बच्चों के शरीर से भी खून की आखिरी बूंद को अपने मुनाफे में ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूंजीपतियों द्वारा कल-कारखानों व खदानों में मजदूरों से काम कराने और मुनाफा कमाने के तरीकों ने दास मालिकों को भी पीछे छोड़ दिया था।
पूंजीपतियों द्वारा 18-18 घंटे तक काम कराने के खिलाफ मजदूर वर्ग का प्रतिरोध भी हुआ साथ ही इंग्लैण्ड में संसद में मौजूद कुछ उदार हृदय के सांसदों ने काम के इन अत्यधिक घंटों के खिलाफ आवाज भी उठायी, साथ ही कुछ फैक्टरी इंस्पेक्टरों ने भी संसद के समक्ष अपनी रिपोर्टों में मजदूरों से अत्यधिक काम लेने की बुराईयों का जिक्र किया। लेकिन शुरू में यह केवल बच्चों व महिलाओं तक ही सीमित था। बच्चों व महिलाओं के लिए काम के दिन के घण्टे कम करने के कानून भी बने। महिलाओं को लड़के-लड़कियों के समान समझा गया। 7 जून 1844 को अतिरिक्त फैक्टरी अधिनियम के तहत 18 वर्ष के ज्यादा उम्र की महिलाओं को संरक्षण मिला और उनके लिए 12 घण्टे काम का दिन तय हुआ। 8 से 13 वर्ष के बच्चों के बारे में 1844 का अधिनियम कहता है कि वे साढ़े सात घण्टे काम करेंगे।
लेकिन पूंजीपतियों ने काम के घण्टे कम करने के इन अधिनियमों को कभी भी नहीं स्वीकार किया और उनको तोड़ा। साथ ही उन्होंने दबाव के तरीके भी अपनाये ताकि सरकार को मजबूर किया जा सके कि वे इन कानूनों को रद्द करें। जब 1846 में कपास संकट पैदा हुआ तो उन्होंने मजदूरी में 10 प्रतिशत तक की कमी कर दी और 1 जुलाई 1847 को काम के घंटे 11 करने पर मजदूरी में 8.33 प्रतिशत की कटौती कर दी। 1 मई 1848 को काम के घण्टे 10 करने पर उन्होंने मजदूरी में 16.66 प्रतिशत की कटौती करने की धमकी दी। फलस्वरूप 8 फरवरी 1850 को यह कानून रद्द कर दिया गया। कानून के रद्द होने के फलस्वरूप मजदूरों का प्रतिरोध बढ़ गया। उसके बाद 5 अगस्त 1850 को अतिरिक्त फैक्टरी अधिनियम बना जिसके अनुसार लड़के-लड़कियों व महिलाओं के लिए सप्ताह में पहले पांच दिन काम के घण्टे 10 से साढ़े दस और शनिवार को साढ़े सात घंटे तय किये गये।
पूंजीपतियों ने काम के कम घंटे के नियम को तोड़ने के लिए पाली प्रणाली का भी सहारा लिया। जैसे एक मजदूर सुबह की पाली में एक पूंजीपति के यहां काम करता था और रात की पाली में दूसरी जगह या फिर एक ही पूंजीपति की दो अलग-अलग फैक्टरियों में अलग-अलग समय पर काम कराकर बच्चों, महिलाओं व पुरुष मजदूरों के मामले में उसने कानून को ठेंगा दिखाया। उसने मजदूरों से काम के घंटे कम करने के खिलाफ पत्र संसद में भिजवाये लेकिन उनकी इस मेहनत पर मजदूरों ने यह कहकर पानी फेर दिया कि ये पत्र उनसे जबर्दस्ती लिखवाये गये हैं और वे काम के कम घंटे के लिए कम मजदूरी में भी काम करने को तैयार हैं।
कुल मिलाकर पूंजीपति ने हर सम्भव तरीके से कानून द्वारा मजदूरों के लिए सामान्य दिन के घण्टे कम करने का विरोध किया और उनको कानूनी और गैरकानूनी दोनों रूपों में ही तोड़ा। पूंजीपतियों मजदूरों की श्रम शक्ति को 30 साल के बजाय 10 साल में ही चूसकर अपनी तिजोरियां भरना चाहते थे और उनकी इस हवस ने मजदूरों को बहुत कम उम्र में ही मरने के लिए बाध्य कर दिया। और खास उद्योगों में होने वाली खास बीमारी ने तो बच्चों-महिलाओं व पुरुष मजदूरों की जिंदगी को भयानक कष्ट दिये।
काम के घंटे कम करने का संघर्ष पूंजी और श्रम के बीच वर्ग संघर्ष का एक रूप है। इस संघर्ष में हे मार्केट के शहीदों से लेकर अनगिनत लोगों ने अपनी जान कुर्बान कर दी। शहादत का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।
आज कोरोना के बहाने पूंजी द्वारा श्रम पर हमले को बढ़ाया जा रहा है। भारत में ही 5 राज्यों में काम के घण्टे बढ़ा कर 12 कर दिये गये हैं। ऐेसे वक्त में मई दिवस को याद करना और अपने संघर्षों को तेज करना मजदूर वर्ग के लिए जरूरी हो गया है।
Labels: मजदूर हालात
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