जब चुगे दाना चिड़िया, दूर तक कोई जाल न हो
इंसानी देह के ऊपर, भेड़िये की खाल न हो।
सच तो सच होता है,उससे क्या सवाल करें हम
धर्म की आड़ में कोई, ईश्वर का दलाल न हो।
भय,भूख और गरीबी,है चरम पर आज छाई
और कहते हो की तुम ईश्वर पर सवाल न हो?
मिले न्याय सभी को बराबर,अन्यायी को मिले सजा
संविधान के साये में कोई, बेबस और लाचार न हो।
विषमता की लग्गी हट जाये, इतनी मिट्टी पट जाये
मिले सहज सभी को फल,कंधे से ऊपर डाल न हो।
गर हमसे भूलें भी हो, जलें तो केवल चूल्हे हों
सबके हों सौगात भरे, किसी की खाली थाल न हो।
मिले अधिकार,हक- हुकुम, हो उनकी हिस्सेदारी भी
सहानुभूति के चाकू से अब, स्त्री कोई हलाल न हो।
गरीबों की पगड़ी गेंद न हो, इज्ज़त पर कहीं सेंध न हो
न्याय रखैल बन जाये, इतना भी कोई मालामाल न हो
गल जाये खड्ग,भाल-ढाल सब, प्रेम की दहकती भट्टी में
किसी पीठ के पीछे यारों, जाति का फेका भाल न हो।
वंचनाओं का दंश झेले, मगरमच्छ उससे खेले
रह पानी पर पी न सके, उस मछली वाला हाल न हो।
उठो जगो, संगठित बनो, संघर्षों के आदी बनों
क्रान्तिकाल के इस बेला में, कछुए वाली चाल न हो।
सपना उनका स्वर्ग से सुन्दर, मानवता का पाठ पढ़े हम
मिल आपस में साथ रहें और दिलों में कोई मलाल न हो।
इंसानी देह के ऊपर, भेड़िये की खाल न हो.....
~बच्चा लाल 'उन्मेष'
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