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Friday, 29 April 2022

पहली मई

पहली मई को मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा त्यौहार 'अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस' पूरे जोशो-खरोश से मनाते हुए- पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष तेज़ करो! – संपादकीय 

पहली मई को दुनिया के मज़दूरों का सबसे बड़ा दिन, सबसे बड़ा त्यौहार अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस आ रहा है। हर वर्ष की तरह इस बार भी पूरी दुनिया में मज़दूर जलसों, जुलूसों, रैलियाँ, हड़तालों द्वारा मज़दूर दिवस के शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि देंगे, मज़दूरों-मेहनतकशों के पूँजीवादी-साम्राज्यवादी लूट-दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हुए अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करेंगे।

अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस सारी दुनिया के मज़दूरों को देश, राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, रंग, नस्ल आदि भेद मिटाने और सभी देशों के मज़दूरों की एकता कायम करने का आह्वान करता है। यह दिन मज़दूरों को बताता है कि पूँजीवादी लूट-शोषण के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष के अलावा मज़दूरों के पास बेहतर जि़ंदगी जीने का और कोई रास्ता नहीं है। मज़दूरों को कभी भी कोई अधिकार बिना संघर्ष के नहीं मिला है। जब तक पूँजीवाद रहेगा, मज़दूर-मेहनतकश बर्बाद रहेगा। इस दिन का इतिहास इस बात का गवाह भी है कि पूँजीवादी लूटेरे हुक्मरान चाहे जितना ज़ोर लगा लें, दमन, ज़ोर-जुल्म-अत्याचार का चाहे जितना भी क़हर बरपा कर लें, वे लूट-दमन के ख़िलाफ़ मज़दूरों की आवाज़ हमेशा के लिए दबा कर नहीं रख सकते।

मौजूदा समय में जब दुनिया-भर में मज़दूरों-मेहनतकशों का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण बेहद तीखा हो चुका है। मज़दूर एकता के न होने से क़ुर्बानियों भरे संघर्षों की बदौलत हासिल किए गए अधिकार हुक्मरानों द्वारा एक-एक करके छीने जाते रहे हैं। भारत में हालाँकि सभी पार्टियों की सरकारों ने मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों के निर्मम शोषण के लिए पूरा ज़ोर लगाया है, लेकिन फासीवादी संगठन आर.एस.एस. की राजनीतिक शाखा भाजपा के सत्ता में आने से शोषण कई गुणा बढ़ गया है। ऐसे समय में मज़दूर वर्ग के लिए अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रांतिकारी विरासत का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है। यह ज़रूरी है कि हम मई दिवस की क्रांतिकारी विरासत को आत्मसात करते हुए, विशाल मज़दूर आबादी तक पहुँचाएँ, संगठित करें, पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए आगे बढ़ें।

अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस का महान इतिहास

पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर शुरू से ही भयानक शोषण का शिकार रहे हैं। 19वीं सदी में काम के घंटों की कोई सीमा नहीं थी। ऐसे समय में अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने आठ घंटे काम की दिहाड़ी के लिए मज़दूरों को संगठित किया। अमरीका की मज़दूर यूनियनों द्वारा लंबी तैयारी के बाद पहली मई 1886 को कई शहरों में मज़दूरों की एक बड़ी हड़ताल हुई। उन्होंने मालिकों और सरकार के सामने माँग रखी कि एक दिहाड़ी में काम का समय आठ घंटे हो। उनका नारा था – "आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन!" शिकागो शहर में तो सारे कारख़ाने ठप्प कर दिए गए। डरा-धमकाकर, लालच देकर हड़ताल तोड़ने की कोशिश हुई, लेकिन मज़दूर नहीं झुके। पुलिस ने पूँजीपतियों के इशारे पर मज़दूर जलसे पर गोली चलाई।

कई स्त्री-पुरुष मज़दूर और बच्चे मारे गए। मज़दूरों का सफ़ेद झंडा ख़ून से लाल हो गया। इसके ख़िलाफ़ अगले दिन शिकागो की हे-मार्केट में मज़दूर सभा हुई। इसे विफल करने के लिए पुलिस के एजंटों ने सभा में बम फेंका, जिसमें कई मज़दूर और कुछ पुलिस वाले मारे गए। दोष आठ मज़दूर नेताओं पर लगा दिया गया। अल्बर्ट पार्संस, आगस्त स्पाइस, जॉर्ज एंजेल, एडॉल्फ़ फि़शर, सैमुअल फ़ील्डेन, माइकेल श्वाब, लुइस लिंग्ग और आस्कर नीबे पर झूठा मुक़द्दमा चला। मुक़द्दमे के लंबे नाटक के बाद अदालत ने 7 मज़दूर नेताओं को सज़ा-ए-मौत और एक को पंद्रह साल क़ैद बामशक़्क़त की सज़ा सुनाई। पार्संस, फ़िशर, स्पाइस और एंजेल को फाँसी दे दी गई। लुइस लिंग्ग को जेल में ही शहीद कर दिया गया। बाद में जब जन दबाव के कारण पुलिस की साज़िश का पर्दाफ़ाश हो गया तो जेल में बंद बाक़ी तीन मज़दूर नेताओं को बरी करना पड़ा। मालिकों ने सोचा था कि मज़दूरों का ख़ून बहाकर, मज़दूर नेताओं को फाँसी पर चढ़ाकर और जेलों में ठूँसकर मज़दूरों की आवाज़ दबा देंगे, लेकिन उनके मंसूबे पूरे न हो सके। शहीदों को अंतिम विदाई देने छ: लाख से अधिक मज़दूर और आम लोग पहुँचे। आगे चलकर पूरी दुनिया में मज़दूर संघर्ष और तीखा हुआ। सरकारों को आठ घंटे काम की दिहाड़ी का क़ानून बनाना पड़ा। दुनिया के विभिन्न देशों के मज़दूरों के क्रांतिकारी संगठन 'पहली इंटरनेश्नल ने 1890 से हर वर्ष पहली मई को दुनिया-भर में अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। तब से दुनिया में मज़दूर हर वर्ष 1 मई को हाथों में क्रांति का लाल झंडा लिए मई दिवस के शहीदों को याद करते हैं और आगे के संघर्ष के लिए प्रेरणा लेते हैं।

भारत में, अंग्रेज़ी गु़लामी के समय 1862 में पहली बार हावड़ा के रेल मज़दूरों ने आठ घंटे की काम की दिहाड़ी की माँग रखी। बंबे के कपड़ा मज़दूरों ने काम के घंटे घटाए जाने के लिए 1902-03 में ज़बरदस्त हड़तालों द्वारा अंग्रेज़ और भारतीय पूँजीपतियों को ज़बरदस्त टक्कर दी थी। यह संघर्ष बढ़ता ही गया। आंदोलन के दम पर ही आठ घंटे काम की दिहाड़ी, न्यूनतम वेतन, यूनियन बनाने के अलावा विभिन्न क्षेत्रों के मज़दूरों के लिए बहुत से संवैधानिक श्रम अधिकार प्राप्त किए। लेकिन मज़दूरों की एकता बिखरने से धीरे-धीरे ये अधिकार छिनते गए हैं। अधिकतर कारख़ानों और अन्य काम की जगहों पर तो ये श्रम अधिकारों से संबंधित क़ानून पहले ही लागू नहीं होते थे, लेकिन अब तो केंद्र की मोदी सरकार ने दर्जनों पुराने श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके चार नए श्रम क़ानून (कोड) बना दिए हैं। ऐसा करते हुए मोदी सरकार ने मज़दूरों के बहुत से अधिकारों को छीन लिया है, मज़दूरों को और अधिक पूँजीपतियों की गु़लामी के गढ्ढे में धकेलने का काम किया है।

अपने महान इतिहास से सीखकर हमें न सिर्फ़ छीने जा रहे तमाम अधिकारों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी है, बल्कि दूसरे मेहनतकशों को साथ लेते हुए, उनका नेतृत्व करते हुए मज़दूर वर्ग को शोषण पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना है और मज़ूदरों के राज वाले समाजवादी समाज का निर्माण करना है, जहाँ उत्पादन के साधनों पर मज़दूरों-मेहनतकशों का क़ब्ज़ा होगा।

विश्व मज़दूर आंदोलन का यह अहम सबक़ है कि मज़दूर वर्ग की देश स्तर पर संगठित क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बिना क्रांति संभव नहीं। एक ऐसी पार्टी जो एक ओर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों पर अडिग हो और दूसरी ओर कठमुल्लावाद का शिकार भी ना हो। क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी खुलेआम सदस्यता बाँटने वाली ढीली-ढाली पार्टी नहीं हो सकती। यह एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं पर आधारित लौह अनुशासन वाली, जनसंघर्षों में तपी बोल्शेविक पार्टी जैसी पार्टी ही हो सकती है, जिसकी कोर पेशेवर क्रांतिकारी हों। विश्व मज़दूर आंदोलन का एक अहम सबक़ यह भी है कि क्रांति कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता की एक हथियारबंद बग़ावत के ज़रिए ही संभव हो सकती है। यह लाज़िमी है कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने जन्म से ही गुप्त और ग़ैर-क़ानूनी ढाँचा क़ायम करे और इसे और निखारती जाए। पार्टी को गुप्त और खुले, ग़ैर-क़ानूनी और क़ानून ढाँचे का सुमेल करना पड़ेगा। वर्ग सचेत मज़ूदरों को ऐसी क्रांतिकारी पार्टी बनाने की कोशिशों को तेज़ करना होगा। अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रांतिकारी परंपरा को सही मायनों में इसी तरह आगे बढ़ाया जा सकता है।

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित

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