मई दिवस के अवसर पर ' बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन ' द्वारा ज़ारी पर्चा :
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दुनिया के मजदूरो,एक हो! इंकलाब जिंदाबाद!
पूँजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!
सर्वहारा समाजवाद जिंदाबाद!
मई दिवस(पहली मई) के अवसर पर पूँजीवादी व्यवस्था को दफनाने के दृढ़ संकल्प को याद करें!
साथियो!
एकाधिकारी पूँजीवाद के युग में अधिकतम मुनाफे के ध्येय से चालित परजीवी पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया को अधिकाधिक बर्बादी की ओर ठेलता जा रहा है,नरक में तब्दील करता जा रहा है।कोरोना महामारी के चलते लागू लाकडाउन की अवधि में नदियों के पानी का साफ-नीला दिखना, प्रदूषण में
काफी कमी आना ,यह साबित करता है कि मुनाफे के सामने शोषक पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकार प्रकृति के नियमों व वैज्ञानिक नियमों की कोई परवाह नहीं करते ,प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते रहते हैं ।19वीं शताब्दी में ही एक मजदूर यूनियन नेता टी.जे.डनिंगने कहा था कि मुनाफे के लिए पूँजी "कोई भी अपराध करने "और "मानवता के सभी नियमों को पैरों तले रौंदने को तैयार हो जाएगी"। हमें यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि जहान की सुरक्षा में ही जान की सुरक्षा है। लेकिन, शासक पूँजीपति वर्ग को पूँजी की रक्षा व उसके विस्तार की चिंता है,न कि जहान की।
आज मजदूर वर्ग का शोषण इस कदर बढ़ता जा रहा है कि आज दुनिया के पैमाने पर 1प्रतिशत अमीरों के पास 99प्रतिशत आबादी की संपत्ति से दोगुनी संपत्ति हो गई है जबकि भारत में 1प्रतिशतअमीरों के पास 70प्रतिशत आबादी की संपत्ति के मुकाबले 4 गुनी ज्यादा संपत्ति है।ऐसी ही परिस्थिति में लूट के केंद्र के रूप में प्राइवेट अस्पताल खूब फल-फूल रहे हैं। पूँजीवादी परिस्थिति में और जनस्वास्थ्य पर कम से कम खर्च करने की सरकारी योजना के चलते जहाँ विशाल मजदूर- मेहनतकश समुदाय का मलेरिया, टी.बी. एवं डेंगू आदि पुरानी बीमारियों से ही पिंड नहीं छूट पा रहा है ,वहाँ पैदा ले रही नई -नई बीमारियों का हमला भी बढ़ता जा रहा है। मेहनतकश जनसाधारण को दिन-प्रतिदिन जिंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है।
कोरोना महामारी की रोकथाम संबंधी गंभीरता की पोल तब खुल जाती है ,जब भारत सरकार, सर्वोच्च न्यायालय और निजी अस्पतालों के मालिक मिलकर यह तय कर लेते हैं कि जाँच हेतु 45 सौ रुपए लिए ही जाएँगे। शासक वर्ग खुद भी कोरोना वायरस से प्रभावित होने की स्थिति में है, फिर भी उसकी सरकार इस महामारी से निपटने में सरकारी अस्पतालों की तुलना में अधिक बेड वाले प्राइवेट अस्पतालों को नियंत्रण में नहीं ले रही है। लंबी -चौड़ी डींगें हाँकनेवाली सरकार धन के लिए पूँजीपतियों से अनुनय-विनय करती है , उसमें यह दम नहीं है कि वह कोरोना महामारी से निपटने हेतु पूँजीपति वर्ग से जरूरी पैसा ले ले जबकि ऊपरी मात्र 63 भारतीय पूँजीपतियों के पास भारत सरकार के सालाना बजट से ज्यादा धन है ।मास्क ,सुरक्षात्मक उपकरण, जाँच किट व बेड बढ़ाने के मामले में जरूरी कार्रवाई करने के बदले देशभर में सरकार द्वारा थाली बजाने या दिया जलाने का आह्वान अपनी अक्षमता व अयोग्यता पर पर्दा डालने के धूर्ततापूर्ण प्रयास के अलावा और क्या था?
24 मार्च की 8बजे रात में लॉक डाउन की अचानक घोषणा ने ही बता दिया कि सरकार को मजदूरों -मेहनतकशों की परेशानी से कोई लेना-देना नहीं। शहरों में कैद भूखे मजदूर जब मुंबई ,सूरत आदि शहरों की सड़कों पर निकलकर" काम दो या भोजन दो नहीं तो घर जाने दो" की मांग करने लगे तब पुलिस द्वारा बर्बर ढंग से पीटे गए। लाकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा मजदूरों से कान पकड़कर उठक -बैठक करवाने या मुर्गा बनाकर अपमानित करने के मामले भी चल रहे हैं । कोरोना-संकट की परिस्थिति में दुनिया के किसी भी देश में भारतीय पुलिस जैसा कुकृत्य व जनविरोधी चरित्र देखने को नहीं मिला। हाँ,यह भी सही है कि पूंजीपति और उनके राजनीतिज्ञ व उनके लगुए-भगुए पार्टी, शादी -समारोह एवं धार्मिक समारोह आदि कार्यक्रमों में भाग लेकर लॉक डाउन का उल्लंघन करते रहे लेकिन पुलिस उनके सामने पूँछ हिलाती रही।इस बीच लाकडाउन के नियमों को तोड़कर प्रभावशाली लोगों को बसों से लाने -ले जाने की व्यवस्था तो हुई लेकिन मजदूरों के लिए नहीं । पैदल और साइकिल से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर घरों को लौट रहे मजदूरों में से तो कुछ रास्ते में ही मर गए और बहुत सारे पुलिस दमन के भी शिकार हुए ।सरकारी राहत शिविरों में छह-छह घंटे लाइन में लगने पर भी भोजन मिलने की गारंटी नहीं । 'द हिंदू' अखबार के अनुसार पहले लाकडाउन की अवधि में तो "प्रवासी मजदूरों" में सिर्फ 4प्रतिशत को ही सरकारी राशन मिल पाया था। सरकारी नियंत्रण कक्ष व राज्य मशीनरी तो फोन नंबर बाँटने, समस्याओं के कागजी समाधान करने व आँकड़ेबाजी के खेल में मशगूल हैं। केंद्र व प्रांतीय सरकारों के पास तो मजदूरों के सही आँकड़े तक नहीं हैं लेकिन वे कुछ मजदूरों के खातों में 500रुपए या 1000 रुपए डाल कर अपनी -अपनी पीठें थपथपा रही हैं। सवाल तो हर मजदूर परिवार के जीवन यापन का है। पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारी मदद कुछ ऐसे ही है जैसे कि बीच सड़क पर कोई अपराधी किसी मजदूर से उसकी दिनभर की मजदूरी लूट ले और सहानुभूति जताते हुए चाय पीने हेतु कुछ पैसे दे दे ।इस लॉक डाउन अवधि ने जहाँ मजदूरों को परेशानियों के शिकंजे में कस दिया है ,वहाँ उसने मजदूरों के पिछड़े हिस्से को भी शोषण पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीपति वर्ग और सरकार के संबंध की असलियत को भी समझने का रास्ता दिखाया है।इन्हीं परिस्थितियों में सरकार की अक्षमता पर पर्दा डालने हेतु प्रतिक्रियावादी- जनविरोधी" गोदी मीडिया "ने कोरोना महामारी के फैलाव के कारण के रूप में कभी चीन तो कभी 'तबलीगी जमात'( एक इस्लामी धार्मिक संप्रदाय )को जिम्मेदार ठहराना शुरू किया। इसप्रकार इन बिके चैनलों ने आम जनता के बीच धार्मिक विद्वेष फैलाकर, उन्हें आपस में ही लड़ाने की यानी मेहनतकश जनसाधारण के खिलाफ लड़ाई छेड़ने का अपराध किया।
साथियो ,लॉक डाउन के चलते उद्योग धंधे वआर्थिक गतिविधियाँ बंद हैं और अर्थव्यवस्था संकट में है। हर संकट में पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों के माध्यम से अपनी क्षतिपूर्ति मजदूर वर्ग की सुविधाओं व मजदूरी में कटौती करके करना चाहता है। हम देख रहे हैं कि केंद्र सरकार ने अगले एक साल तक कर्मचारियों को महँगाई भत्ता देने से इंकार कर दिया है और पेंशन योजना में भी अपनी घोषणा से पीछे हट गई है। इतना ही नहीं, पूँजीपतियों के संगठन ने सरकार से काम की अवधि को 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे करने की माँग करते हुए इस संबंध में अध्यादेश लाने की माँग कर डाली है ।हमें भूलना नहीं चाहिए कि 8 घंटे की कार्य अवधि को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए मजदूर वर्ग के न जाने कितने योद्धाओं को अपनी शहादत देनी पड़ी । अगर हम पूँजीपति वर्ग व उसकी रक्षक सरकार के खिलाफ संघर्ष करने हेतु एकजुट नहीं हुए तो गुलामी का फंदा और मजबूत होने वाला है ।हमेशा याद रखने की बात है कि जबतक यह पूँजीवादी व्यवस्था है , मजदूरी -प्रथा है, तबतक मजदूर वर्ग को पूँजी की गुलामी से मुक्ति नहीं मिलने वाली और आजीविका की अनिश्चितता व परेशानियाँ बढ़ती ही जाने वाली है । इस व्यवस्था में सारी असमाधेय समस्याओं की जड़ में मूल अंतर्विरोध यह है कि उत्पादन, समूह द्वारा, समाज द्वारा होता है लेकिन उस पर मालिकाना अलग-अलग व्यक्तियों का यानी पूँजीपतियों का होता है ।इस अंतर्विरोध का सीधा हल है कि सामाजिक उत्पादन का मालिक भी समाज हो यानी समाजवादी व्यवस्था कायम होऔर समाजवाद लाने ऐतिहासिक कार्यभार मजदूर वर्ग के कंधे पर ही है ।आज वक्त की माँग है कि शहर ,प्रदेश, देश और दुनिया के स्तर पर छोटे-बड़े मजदूर - संगठनों के प्रतिनिधियों की नेतृत्वकारी कमिटी बने जो कार्रवाई की एकता सुनिश्चित कर सके। आइए, मजदूर दिवस पर रोजमर्रे के मामलों और मुक्ति के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने का दृढ़ संकल्प लें।
सरकार से हम माँग करते हैं : (1)आजीविका से वंचित तमाम मजदूर परिवारों के जीवन यापन की व्यवस्था करो!
(2)राज्य अपने खर्चे पर मजदूरों को उनके इच्छित जगहों पर सुरक्षित पहुँचाए!
(3) कोरोना संकटकाल में मजदूरों से दुर्व्यवहार करने वाले मकान मालिकों एवं पुलिस अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई करो!
(4)पूँजीपतियों द्वारा 12 घंटे की कार्यावधि की माँग को खारिज करो!
(5)भारत में मजदूरों के अद्यतन आंकड़े जारी करो!
(6)मजदूर परिवारों के लिए नि:शुल्क शिक्षा , चिकित्सा व आवास की व्यवस्था करो!
(7) सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में तत्काल सुधार करो एवं प्रखंड स्तर के अस्पतालों में भी आईसीयू व वेंटिलेटर का इंतजाम करो!
(8) कार्यस्थल पर सैनिटाइजर एवं मास्क की व्यवस्था करो!
(9) बिना अंशदान लिए 60वर्ष के तमाम मजदूरों के लिए पेंशन की न्यूनतम राशि दस हजार घोषित करो!
मई दिवस जिंदाबाद!
बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन
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