बदलाव, संगठन और मुक्ति...............
मई दिवस के अवसर पर
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भारत का मजदूर जो चीज सबसे पहले चाहता है वह है बदलाव। उसकी बेचैन आत्मा जिस चीज को ढूंढ रही है वह बदलाव है। थकी-उबी जिंदगी में बदलाव की कोई छोटी सी उम्मीद की किरण उसको दिखाई देती है तो वह उसके पीछे होने में गुरेज नहीं करता है। लेकिन अक्सर ऐसे बदलाव उसके लिए छल साबित होते हैं। बदलाव की बात करने वाले किस्म-किस्म के छलिया निकलते हैं। लेकिन फिर भी बदलाव का आकर्षण कम नहीं होता। जिंदगी चीख-चीखकर मांग कर रही होती हैं कि बदलाव चाहिए।
शुरू-शुरू में उसकी जी-तोड़ मेहनत, एक काम को छोड़ना दूसरे को पकड़ना, एक जगह से दूसरे जगह भागना, भटकना, व्यक्तिगत मेहनत-संघर्ष सब अपने निजी जीवन में बदलाव के लिए होते हैं। लेकिन बदलाव होता नहीं। यथार्थ को स्वीकार कर वह कुछ हद तक एक सुप्त बीज सा कुछ बन जाता है एक सोया हुआ जीव। जिसके अंदर आग, ऊर्जा तो बहुत है परंतु उसके ऊपर एक अजीव सा ठंडापन है। रूखाई है। क्षमता बहुत है परंतु उसका कोई इस्तेमाल नहीं। आग अंदर ही सुलग रही है प्रकट नहीं हो रही है। बदलाव जीवन में तभी आ सकता है जब जीवन की समस्याओं के कारणों को समझा जाय। यह एक बेहद कठिन प्रक्रिया है। बेहद कठिन रास्ता है जिस पर चलकर मजदूर अपने जीवन, समाज, देश-दुनिया की समस्याओं के कारणों को समझ सकता है। शायद ही कोई बांका-बिरला होगा जो अपनी समस्याओं के वैज्ञानिक कारणों को समझ सके। और उससे बढ़कर समस्याओं के समाधान का सही रास्ता ढूंढ सके।
मजदूर वर्ग की समस्याओं के कारणों को समझने और उनके समाधान का रास्ता वर्तमान पूंजीवादी समाज को पूरे तौर पर समझने की मांग करता है। वह मांग करता है कि जाना जाय कि पूंजीवादी व्यवस्था कैसे काम करती है। कैसे मजदूर का शोषण होता है और कैसे पूंजीपति इसके दम पर अकूत सम्पति हासिल करता है। कैसे दुनिया में हर स्तर पर गैर-बराबरी है? कैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, रूस जैसे देश दूसरें देशों पर अपनी मर्जी थोपते हैं? और कैसे भारत का प्रधानमंत्री अमेरिका के राष्ट्रपति से प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाता है?
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