डॉ. भीमराव आंबेडकर लोकतंत्र के 'बुर्जुवा लोकतंत्र' में बदल जाने का ख़तरा जानते थे!संपत्ति सम्बंध के आधार पर विकसित समाज की संरचना जानते थे इसीलिए उन्होंने 1950 के इस भाषण में आगाह कर दिया था कि 'जब हमने लोकतांत्रिक संविधान को अंगीकार किया तो यह एक अंतर्विरोधी क़दम है..'
आज दलितवादियों, अंबेडकरवादियों और धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों जो क्रमशः सुविधाजनक जाति उन्मूलन और सपाट-क्यूट लोकतंत्र का झंडा सबसे पहले लेकर चलते हैं; सभी को आंबेडकर को अपने खाँचे से निकाल कर ध्यान से समझना चाहिए।
"हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। हमें यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए कि सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता।
भारत का समाज एक सोपानिक असमानता की भित्ति पर खड़ा है जिसमें कुछ लोगों को ऊंचा समझा जाता है और दूसरों को हीन मान लिया जाता है।
आर्थिक दृष्टि से यह एक ऐसा समाज है जिसमें कुछ लोगों के पास तो बेपनाह संपत्ति है जबकि बाकी लोग बेतहाशा गरीबी का जीवन गुजारते हैं। 26 जनवरी 1950 को जब हमने एक लोकतांत्रिक संविधान का अंगीकार किया तो यह एक अंतर्विरोधी कदम था.. इससे राजनीति में तो समानता स्थापित हो जाएगी परंतु आर्थिक जीवन में गैर बराबरी बरकरार ही रहेगी। राजनीति में तो हम एक वोट-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देते रहेंगे लेकिन सामाजिक-आर्थिक संरचना की बाध्यता के कारण हम इन क्षेत्रों में व्यक्ति की गरिमा के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।
आखिर अंतर्विरोध हो से भरे इस जीवन को हम तब कब तक खींचेंगे?अपने सामाजिक आर्थिक जीवन में हम कब तक समानता से कन्नी काटते रहेंगे?
अगर हम लंबे समय तक यही रवैया अपनाते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र निस्संदेह खतरे में पड़ जाएगा।"
-डॉ. भीमराव आंबेडकर
(संविधान सभा (25 नवंबर 1949) में अंबेडकर का भाषण, कांस्टीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स खंड 12 : 979)
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