मांसाहार, अजान, लाउडस्पीकर, राम के नरम-गरम स्वरूप, साझी विरासत जैसी बातों पर कितना ही तर्क किया जाये कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि ये कोई वास्तविक मुद्दे नहीं है जिन पर तार्किक जवाब देकर फासिस्ट हमलों को रोका जा सकता है। ये तो कॉर्पोरेट पूंजी की राजसत्ता की ताकत, धनबल व प्रचार शक्ति के साथ मुस्लिमों व अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति धधकती नफरत से भरे गुंडादलों की समानांतर शक्ति का विलय है जो इस काम को इरादतन कर रहे हैं और इनका मकसद अल्पसंख्यक समुदायों के साथ साथ हर उस समूह को आतंकित व चुप कर देना है जो उनके इरादों में अडचन बनता है।
CAA व कृषि कानूनों विरोधी आंदोलनों को मिली हमदर्दी तथा निजीकरण-लेबर कोड पर बढते मजदूर असंतोष ने इन फासिस्ट ताकतों को चेताया है, और अब ये पूरे योजनाबद्ध तरीके से पूरे देश में माहौल को जहरीला बनाने व अपना आतंक कायम करने में जुट गए हैं ताकि भविष्य में भयावह रूप लेते किसी आर्थिक संकट के विस्फोट की स्थिति में अपने लिए खतरा बन सकने वाले ऐसे किसी जनआंदोलन की संभावना तक को जड में ही खत्म कर दें।
इसका प्रतिरोध भी मात्र जनवादी तर्कों से नहीं, प्रशासन- कानून-अदालत में ज्ञापनों-याचनाओं से नहीं, सिर्फ नैतिकता-सदाशयता की अपीलों से नहीं, इनके विरोधी सभी अधिकतम संभव समूहों की फौलादी एकजुटता व शक्ति के साथ सामने डटने से ही हो सकता है। इस अत्यंत मुश्किल, आज की स्थिति में लगभग असंभव प्रतीत होते काम को कर दिखाना होगा। इसका विकल्प हमारे समाज के लिए लंबी घनी अंधकारमय रात है।
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