*(स्त्री प्रश्न पर लेनिन के साथ महान कम्युनिस्ट स्त्री संगठनकर्ता और नेत्री क्लारा ज़ेटकिन के लम्बे साक्षात्कार का अंश)*
'बहुत कम पति, यहाँ तक कि सर्वहारा भी नहीं, यह सोचते हैं कि अगर वे इस 'औरतों के काम' में हाथ बँटायें तो वे अपनी पत्नियों का कितना बोझ और चिंताएँ कम कर सकते हैं, या उन्हें पूरी तरह इनसे राहत दे सकते हैं। लेकिन नहीं, यह तो 'पति के विशेषाधिकार और गरिमा' के ख़िलाफ़ चला जायेगा। वह माँग करता है कि उसे आराम और सुविधा चाहिए। स्त्री का घरेलू जीवन एक हज़ार छोटे-छोटे कामों में अपने आपको क़ुर्बान करना होता है। उसके पति, उसके स्वामी और प्रभु, के प्राचीन अधिकार चुपचाप क़ायम रहते हैं। लेकिन वस्तुगत रूप से, उसकी दासी अपना प्रतिशोध ले लेती है। यह भी छिपे रूप में होता है। उसका पिछड़ापन और अपने पति के क्रान्तिकारी आदर्शों की समझ की उसकी कमी पति की जुझारू भावना और लड़ने के उसके हौसले को पीछे खींचती है। छुद्र कीड़ों की तरह वे धीरे-धीरे, मगर लगातार कुतर-कुतर कर उसे कमज़ोर बनाते हैं। मैं मज़दूरों के जीवन को जानता हूँ, और सिर्फ़ किताबों से नहीं जानता। स्त्री जनसमुदाय के बीच हमारे कम्युनिस्ट कार्य, और आम तौर पर हमारे राजनीतिक कार्य में पुरुषों के बीच व्यापक शैक्षिक काम करना शामिल है। हमें पार्टी से, और जनसमुदाय से, पुराने दास-स्वामी वाले दृष्टिकोण को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। यह हमारा एक राजनीतिक कार्यभार है....।
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"युध्द में चली हर गोली अंततः किसी महिला की छाती में ही लगती है।"
*--मैक्सिम गोर्की*
"जब कोई पुरुष एक स्त्री की शक्ति को नज़रअंदाज करता है, तो दरअसल वह अपने ही विवेक को मार रहा होता है।"
-- *अमृता प्रीतम*
*भारतीय राष्ट्रीय जागरण के मनीषी राधामोहन गोकुल जी की पुस्तक 'स्त्रियों की स्वाधीनता' (जो कि स्त्री प्रश्नों पर आधारित तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके 6 लेखों का संकलन है, जिसे पुस्तिका के रूप में राहुल फाउन्डेशन, लखनऊ ने प्रकाशित किया है) से कुछ उद्धरण|* 👇
1- स्त्रियों को पराधीनता की बेड़ी से जकड़ना बड़ी भूल है...| पुरुषों का कभी-कभी यह ताना देना कि स्त्री रण क्षेत्र में जाया करे, और दूसरे बड़े-बूढ़े कठिनाई के काम किया करें, ठीक नहीं है, क्योंकि स्त्रियां भी तो कह सकती हैं कि पुरुष बच्चे जन लिया करें और अन्य अनेक प्रकार के काम-जो प्रकृति ने स्त्रियों के लिए ही बनाए हैं--पुरुष कर लिया करें| यह सूखा तर्क कठुवाद था --खाली जबानदराजी है| इससे हमारे इस तर्क को तनिक भी धक्का नहीं पहुंचता है कि स्त्री-पुरुषों के सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और साम्पत्तिक अधिकार एक समान होने चाहिए
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2- स्त्री का सर्वस्व पति है| परंतु पति की संपत्ति में स्त्री का हक एक पाई भी नहीं| क्यों? इसलिए कि नारी उसका आधा अंग है? बेचारी स्त्री न तो पिता की संपत्ति में हिस्सा पा सकती है न पति या पुत्र की संपत्ति में| आजन्म केवल गुलामी करते रहना ही उसका धर्म है| वाह! अर्धांगिनी का क्या सुंदर सम्मान है।
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3- खरीदी हुई दासी चाहे अपने क्रेता के सहवास से इंकार कर दे| परंतु विवाहिता को इस बात का अधिकार नहीं|... स्त्री यदि अपने पति से दया, प्रेम, अन्न, वस्त्र आदि किसी चीज की आशा कर सकती है, तो केवल अपनी अनन्य सेवा के बदले में| इसके सिवा उसका और कोई हक नहीं| घर की संपत्ति को पति चाहे जैसे उड़ा दे, नष्ट भ्रष्ट कर डाले, उसे अधिकार है, परंतु उसकी अर्धांगिनी एक कौड़ी भी खर्च करने का अधिकार नहीं रखती|
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4- यह कहना कि लड़के अपने माता पिता की आज्ञाएँ माना करें, पत्नियां पतियों की सब आज्ञा का पालन किया करें और दास अपने स्वामियों की इच्छा के अनुकूल ही सब काम करें, यही उनका धर्म है और इसीलिए भी बनाए गए हैं| वास्तव में इस तरह का तर्क बड़ा ही बेहूदा मालूम होता है|
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5- गंदापन मनुष्यों की अपेक्षा स्त्रियों में कम होता है| क्योंकि श्रृंगार का प्रेम जितना नारियों में स्वाभाविक होता है, उतना पुरुषों में नहीं होता| फिर स्त्रियां क्यों गंदी मानी जाती हैं, यह समझ में नहीं आता है| यदि उनके मासिक धर्म आदि के ख्याल से अपवित्र कहा जाए तो सरासर अन्याय है, क्योंकि वह प्राकृतिक है और सृष्टि हेतु है, इसलिए वह घृणा की वस्तु नहीं है|
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6- ऐसे बहुत थोड़े उदाहरण मिलेंगे जिनमें स्त्रियों ने आगे बढ़कर पुरुषों को दुराचार में प्रवृत्त किया है| प्रायः यही देखा जाता है कि पुरुष ही स्त्रियों को कुमार्गगामिनी बनाया करते हैं| क्या स्त्रियों की पाशविक कामना की तृप्ति के लिए कहीं पुरुषों का बाजार भी है, जहां स्त्रियां स्वच्छंदता से जा सकती हैं? परंतु पुरुषों की कामासक्ति के लिए स्त्रियों का बाजार सर्वत्र देखा जाता है| क्या पुरुषों का नैतिक पतन सिद्ध करने के लिए यह एक ही उदाहरण काफी नहीं है?
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7- कहते हैं स्त्रियाँ मूढ़ और अज्ञानी होती हैं| ठीक, अगर शूद्रों और स्त्रियों को पढ़ाना-लिखाना बंद करके पोथी लिखने वाले उन पर अज्ञानता का दोष लगावें तो अपराधी कौन? पंडित लोग| ...हम उन्हें घरों में बंद करके अबला बनाते हैं| ...स्त्रियों में जो त्रुटियां देखी जाती हैं, ये नैसर्गिक या स्वाभाविक नहीं, किंतु बनावटी हैं, और इन सबके जिम्मेदार पुरुष हैं, न कि स्त्रियां|
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8- भारत के पतन का प्रधान कारण लड़कियों को दान कर देने, दे डालने और बेच देने की चीज समझना है| जो वस्तु पशु या जड़ पदार्थों की तरह बेची या दे डाली जा सकती है, उसकी प्रतिष्ठा नहीं रह सकती| कितने ही कुलीनों में बहुत-सा धन लेकर वर, कन्या का पाणिग्रहण ग्रहण करता है, इसलिए भी स्वार्थी धनलोलुप कुलीन पुरुषों में स्त्रियों की कदर नहीं होती| वह बहुधा चाहते हैं कि स्त्री मर जाय, तो फिर नई स्त्री और हराम का धन हाथ आवे| इन दोनों बातों में स्त्री जाति का घोर अपमान होता है| स्त्रियों को जान लेना चाहिए कि उनका पहला काम इन दोनों प्रथाओं को मिटाना है| यदि पिता धन लेकर या दहेज देने का इकरार करके विवाह करते हैं, तो स्त्रियों को ऐसे विवाह को संपन्न ना होने देना चाहिए| विवाह कैसा भी हो, वर और कन्या की अनुमति का प्रावधान होना जरूरी है| इसके लिए महिलाओं की ओर आंदोलन होना चाहिए|
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9- क्या हिंदू, क्या मुसलमान, जिनके यहां देखोगे स्त्रियां भिखारनियों की तरह अपने पतियों और पुत्रों के सामने टके-टके के लिए हाथ फैलाती नजर आयेंगी| जहां किसी माता, स्त्री, बहन ने चार पैसे मांगे कि पुरुष का पहला प्रश्न होता है कि 'कल मैंने एक आना दिया था उसका क्या हुआ?' दूसरा प्रश्न यह होता है कि-- 'तुम पैसे का क्या करोगी? कौन काम है जिसके लिए तुम्हें पैसे की जरूरत पड़ी?' बेचारी माता और पत्नी भय से कांप उठती है| उनमें यह शक्ति कहा कि पूछ बैठे कि तुम्हारे खाने पहनने और फुटकर खर्च में कितना उठता है? कितना पैसा है? सब का हिसाब तो बताओ! ऐसी कायर भिखमंगी माता की गोद में पले बच्चे कैसे होंगे, यह पाठकों के समझने की बात है|
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10- मैं पूछता हूं कि क्या यह संभव है कि जिसे हम प्यार ना करें, जिसे हम हेय, नीच और दासी समझें, वह हमें प्यार करेगी और शुद्ध हृदय से प्यार करेगी? ... जब पशु-पक्षी भी पराधीनता को अपने वश पड़ते नहीं सहन कर सकते तो हम कैसे आशा कर सकते हैं, मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधीन रहकर सुखी रहेगा? स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं, वे कब इस बात को देखकर सुख मान सकती हैं कि उनके खाने के दाने-दाने पर, उनके वस्त्रों के तार-तार पर पुरुषों की मुहर हो और पुरुष चाहे जो खाएं-उडाएं, कोई पूछने वाला न हो|
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11- जिस प्रकार धनवान निर्धन को, सबल निर्बल को, शासक शासित को, स्वामी सेवक को पीसने में ही अपने महत्व का भान करता है, उसी प्रकार पुरुष स्त्रियों को सताने और दबाने में अपनी वीरता का अभ्युदय देखते हैं| सड़कों की नाली साफ करने वाला, मिलो में मजदूरी करने वाला भी दिनभर लाते खाने के बाद जब घर आता है, तो अपनी पत्नी पर वैसी ही हुकूमत करता है, जैसे राज्य कर्मचारी जनता पर करते हैं| इसीलिए कहना पड़ता है कि स्त्रियां दासों की भी दास हैं|
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12- पुस्तके प्रायः पुरुषों द्वारा लिखी जाती हैं इसलिए स्त्रियाँ उनको मानने को बाध्य नहीं हो सकतीं| जो धर्म शास्त्रों की, वेद, बाइबल, कुरान आदि की लिखने वाली स्त्रियां होतीं तो आज उनके भाव, भाषा, आदेश, उपदेश में बड़ा अंतर होता| इन पुस्तकों में तो स्त्रियों की अवज्ञा, प्रतिष्ठा इनकार, अनादर भरा पड़ा है| स्त्रियां पुरुषों के भोग की सामग्री बताई गई हैं| इन पुस्तकों के वाक्यों से सिद्ध होता है कि ईश्वरीय ज्ञान के दावेदार महाशयगण कुछ नहीं जानते थे| उन्हें मनुष्यों के स्वत्वों और दायित्वों का कुछ भी पता ना था| वे स्वातन्त्र्य के शत्रु और पशु-बल के पोषक थे| उनके सिद्धांतों ने मनुष्यों में ज्ञान की कमी और पशुता की वृद्धि की|
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- *संकलन-सहकार रेडियो टीम*
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