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Sunday, 13 March 2022

कश्मीरी_पंडित. आर_पी_विशाल



भारत सदियों-सदियों से दो चीजों में बंटा रहा एक राजाओं की रियासत और दूसरी वर्णव्यवस्था। इसीलिये न तो कभी भारतीय सीमाओं का निश्चित दायरा तय हो सका और न ही सांस्कतिक, धार्मिक, सामाजिक एकता का भाव प्रकट किया जा सका। यही रियासत व साम्प्रदायिक भिन्नता इस देश के अखंडता की मुख्य वजहें रही जिससे समय समय पर देश की सीमाएं घटती, बढ़ती भी रही और उसी का परिणाम था देश की असंख्य समस्याएं और उसी का परिणाम है कश्मीर, कश्मीर समस्या और कश्मीरी पंडित। 

बात बहुत लंबी है जिसे कुछ शब्दों में समेटना असम्भव है फिर भी जरूरी घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हालांकि बावजूद इसके पोस्ट लंबी जाएगी आप समय निकालकर इत्मीनान से पढ़ें। जिसमें सबसे पहले बात करता हूँ कश्मीरी डोगरा शासन की। जिसकी स्थापना महाराज गुलाब सिंह ने की थी।15 जून 1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई। महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू को पंजाब में मिला लिया था। बाद में उन्होंने गुलाब सिंह को जम्मू सौंप दिया। 

1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा। अंग्रेज़ों के लिए यह अफगानिस्तान की खतरनाक सीमा पर नियंत्रण का मौका था तो जम्मू के राजा गुलाब सिंह के लिए खुद को स्वतंत्र घोषित करने का। यहीं से डोगरा राज की नींव मजबूत होती है। इसके अंतिम शासक राजा हरि सिंह 1925 से 1947 रहे। याद रखें जम्मू, कश्मीर में सदा मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी रही और राज हमेशा हिन्दू शासक रहा। इसी तरह एक और रियासत थी जूनागढ़ जहां शासक मुस्लिम था और बहुसंख्यक हिन्दू थे। 

इन रियासतों को भारत में मिलाने के लिए जनमत संग्रह का प्रावधान था। आजादी के बाद जूनागढ़ रियासत को जनमत संग्रह से भारत में विलय कर लिया गया था इसलिए जम्मू, कश्मीर के लोगों को अंदेशा था कि जम्मू कश्मीर के मामले में भी ऐसा ही किया जा सकता है और देश की सरकार को अंदेशा था कि कहीं कश्मीर हाथ से निकल न जाये। इसपर बाक़ी बातें आगे करूँगा। उससे पहले यह पूर्व की कुछ विशेष बातें समझ लें। 

1925 में हरि सिंह कश्मीर के राजा बने। राजा ने 1927 में स्टेट सबजेक्ट लॉ पारित किया जिससे कश्मीर के लोगों की स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया जाए व वहां की जमीनों में बाहरी लोगों का हस्तक्षेप खत्म हो। कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों की आबादी 4 से 4.5 प्रतिशत के लगभग थी जबकि पूरे जम्मू,कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की आबादी 3 प्रतिशत से भी कम थी। सिख 1 प्रतिशत के आसपास थे अन्य भी काफी कम थे और बाकी मुस्लिम आबादी थी लेकिन इसके उलट सरकारी नौकरियों से लेकर तमाम संस्थाओं व संसाधनों पर कश्मीरी पंडितों का एकछत्र राज या हक था। 

विषय यह था कि मुस्लिम वहां के संसधानों में नगण्य के भागीदार थे और एक न एक दिन इसकी आवाज जरूर उठनी थी तो यहीं से कश्मीर विद्रोह की चिंगारी शुरू होती है। जिस पर धीरे धीरे धार्मिक रंग भी चढ़ता गया। या कहूँ धार्मिक रंग चढ़ाया गया। 1929-30 के आसपास शेख अब्दुल्ला जैसे नौजवान बाहर से पढ़कर आते हैं और अपने युवाओं के लिए रोजगार तथा हिस्सेदार की आवाज उठाते हैं। 

आवाज हक हकूक थी तो जनता द्वारा उनको बड़ा समर्थन हासिल होता रहा और वह राजनीति का चेहरा बन जाते हैं। 1932 में ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ़्रेस की स्थापना की थी लेकिन जम्मू और कश्मीर के सभी लोगों को साथ लेकर चलने की इच्छा और अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के अनुरूप शेख़ अब्दुल्ला ने 1939 में पार्टी का नाम बदल कर ऑल जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ़्रेस रख दिया। 

दुसरी तरफ कश्मीरी पंडितों की आबादी भले ही देश में भी और कश्मीर में भी बेहद नगण्य थी लेकिन उनका रुतबा दिल्ली तक था। वर्चस्व और एकाधिकार का दबदबा भी था। अब आज़ादी की लड़ाई, साम्प्रदायिक दंगे, अंग्रेजों की कूटनीति, जिन्ना का पाकिस्तान प्रेम और रियासतों का अलगाव सब साथ साथ चलता रहता है। शेख अब्दुल्ला अबतक बेहद धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और मुस्लिम लीग के खुले विरोधी व्यक्ति थे। लेकिन वह राजा की नीति के भी विरोधी थे।

वर्ष 1946 में इस पार्टी ने महाराजा और उनकी नीतियों तथा शासन के ख़िलाफ़ बड़ा जन अभियान चलाया। आजादी के बाद राजा हरि सिंह जब कश्मीर छोड़कर भागे तब उन्होंने मजबूरन भारत सरकार से विलय की संधि कर ली। जेल से निकलकर 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। शेख़ अब्दुल्ला ने प्रधानमंत्री बनते ही महिलाओं की शिक्षा और भूमिहीनों से किये गए अपने वायदे पर काम करना शुरू करने लगे।

1951 में चुनाव हुए तो नेशनल कॉन्फ़्रेस ने भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा (जो बाद में राज्य की विधानसभा बनी) की सभी 75 सीटों पर जीत हासिल की. शेख अब्दुल्ला उस समय जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। भूमि सुधार कानून के तहत उन्होंने बड़े बड़े जमींदारों से भूमि लेकर भूमिहीन, खेतिहर मजदूरों को जमीनें आवंटित हुई। 

"कश्मीर और कश्मीर पंडित" तथा "कश्मीरनामा" के लेखक अशोक कुमार पांडे ने लिखा है कि इस भूमि सुधार से सबसे अधिक लाभ वहां के दलितों को मिला जिसका आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध है लेकिन आरक्षण की भांति इसे पहले कश्मीरी पंडित विरोधी बताया उसके बाद हिन्दू विरोधी क्योंकि इससे कश्मीरी पंडितों को अपनी ताकत खिसकने का डर लगने लग गया था और यहीं से श्यामाप्रसाद मुखर्जी तथा जनसंघ इत्यादि धारा 370 के साथ साथ कई अन्य विरोध में मुखर होने लगे। 

चूंकि इस बंदोबस्त में फेहरिस्त में सभी धर्मों के लोग थे लेकिन कश्मीरी पंडित अधिक थे क्योंकि सबकुछ उनके पास विशेषाधिकार के तहत था इसलिए कश्मीरी पंडितों ने इसे हिंदुओं के ख़िलाफ़ कानून बताया। उधर जब शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता की बात ज़ोरशोर से उठानी शुरु की तो उनकी सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया और अगस्त 1953 में नेहरू सरकार द्वारा उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. इसके बाद वे 11 वर्ष तक नज़रबंद रहे।

आज़ादी की लड़ाई जब अपने अंतिम चरम पर थी तब अंग्रेजों को भी देश छोड़कर जाना अपना अपमान लगा और उन्होंने फूट डालो, राज करो की नीति शुरू की हुई थी। द्विराष्ट्र की धारणा भले ही जिन्ना और सावरकर की थी लेकिन इसमें सफलता अंग्रेजों को मिली। अंग्रेजों द्वारा बोया गया साम्प्रदायिकता का बीज अब आज़ादी के बाद दिखना शुरू हुआ। एक तरफ जहां शीर्ष भारतीय नेताओं का मकसद अधिक से अधिक लोग व भूभाग भारत से जोड़ने का था वहीं साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा देश को ज्यादा से ज्यादा तोड़ने का प्रयास था।

वर्ष 1949 में लगभग कुछ लोगों ने अयोध्या के विवादित स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी और पूजा शुरू कर दी, इस घटना के बाद मुसलमानों ने वहां नमाज पढ़ना बंद कर दिया और सरकार ने विवादित स्थल पर ताला लगवा दिया। वर्ष 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद अदालत में भगवान राम की पूजा अर्चना के लिए विशेष इजाजत मांगी थी। उसी साल महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदुओं की पूजा जारी रखने के लिए एक अलग मुकदमा दायर किया। बाद में निर्मोही अखाड़े ने भूमि का मालिकाना हक़ उनके  पक्ष में करने को लेकर मुकदद्मा दायर किया। इसकी परिणति यह हुई कि 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड भी मालिकाना हक़ की इस लड़ाई में कूद गया। 

इसका सीधा सीधा सम्बन्ध व असर पूरे देश में पड़ने लगा और अदालती दावों प्रतिदावों का प्रतिफल आने से पहले ही यह मामला चुनावी सियासत का शिकार हो गया। विश्व हिन्दू परिषद् ने 1984 में इसे लेकर आंदोलन छेड़ दिया। ऐसे में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 404 सीटोंअकूत बहुमत लेकर सत्तासीन हुए राजीव गांधी को लगा कि कहीं यह मामला उनके खिलाफ न हो जाये इसलिए उन्होंने भी इस मन्दिर मामले में हाथ डाल दिया। राजीव गांधी अबतक राजनीति के बेहद अपरिपक्व खिलाड़ी थे। कहा जाता है कि उस वक्त राजीव गांधी की जीत के लिए आरएसएस ने भी बड़ी भूमिका निभाई। हालांकि कुछ इसे अपवाद मानते हैं।

वर्ष 1985 में राजीव गांधी ने विवादित स्थल का ताला खुलवा दिया। तब उन्हें सत्ता संभाले एक साल भी नहीं बीता था। एक फरवरी 1986 को फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिंदओं को पूजा की इजाजत दे दी। इस घटना के बाद नाराज मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया। चुनाव आते-आते राजीव गांधी ने विवादित स्थल के पास राम मंदिर का शिलान्यास भी करवा दिया, लेकिन अचानक यह मुद्दा उनके हाथ से बीजेपी ने लपक लिया। बीजेपी ने विश्व हिन्दू  परिषद् के आंदोलन को समर्थन देते हुए इसे विशुद्ध रूप से सियासी मुद्दा बना दिया। 

जम्मू कश्मीर में अधिकतर राज्यपाल शासन ही रहा। शेख अब्दुल्ला भी अब भारत विरोधी बर्ताव व बयानबाजी करने लग गये। इंदिरा गांधी से भी रिश्ते उथल पुथल भरे रहे। शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद वहां फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। संविधान का भाग 7 खत्म करना, प्रिवी पर्स खारिज करना उस वक्त धारा 370 खत्म करने से भी बड़े फैसले थे क्योंकि धारा 370 अस्थाई थी जबकि भाग 7 और प्रिवी पर्स स्थायी अधिकार थे इसका सम्बन्ध कश्मीर के साथ साथ पूरे भारत से भी था। 

शेख अब्दुल्ला के पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में जनमत संग्रह की बात को व्यर्थ बता दिया जिससे उनका रुख भारत के प्रति झुकाव समझा जाने लगा और वह राजीव गांधी के साथ गठजोड़ में आ गये लेकिन विवादित जगह पर पूजा करने को लेकर साम्प्रदायिक कलह जगह जगह बढ़ गई और इसी बीच वर्ष 1986 में फारुख अब्दुल्ला के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने फारुख अब्दुल्ला से कुर्सी छीन ली। उसके बाद उन्होंने एक मन्दिर की जगह मस्जिद बनाने का फरमान दिया जिसका जमकर विरोध हुआ और साम्प्रदायिक हिंसा शुरू हो गई। 

दूसरी ओर राम मंदिर का मुद्दा अब हिन्दू, मुस्लिम के नाक की लड़ाई बन गई। वर्ष 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुए बीजेपी के अधिवेशन में  बाकायदा राम मंदिर निर्माण का संकल्प लिया गया। 1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ, कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा और वामपंथी दलों ने मिलकर कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने की नीयत से राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन देने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। 

तब भाजपा के पास 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद। इस तरह राष्ट्रीय मोर्चे को 284 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया और जनता दल के विश्वनाथ प्रताप सिंह जो पहले कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और अब कांग्रेस के सबसे बड़े बागी हुए थे भाजपा और वामपंथी दलों की मदद से प्रधानमंत्री बने और पीडीपी के सईद मुफ़्ती गृहमंत्री।1990 आते आते कश्मीर में साम्प्रदायिक हालात लगातार बिगड़ते जा रहे थे। आये दिन किसी न किसी दंगे, हत्याकांड और वारदात की घटना आम बात हो गई। कट्टरपंथियों के लिये हिंदूवादी नेता और इंटेलिजेंस के लोग खास निशाने पर थे। 

8 दिसंबर, 1989 को पूर्व गृह मंत्री मुफ्ती सईद की बेटी व महबूब मुफ़्ती की बहन रूबिया सईद का अपहरण कर लिया गया था। अपहरण के बाद कश्मीर से लेकर दिल्ली तक राजनीति गलियारे में खलबली मच गई थी। खलबली इसलिए मची क्योंकि अपहरण करने वालों की मांग पांच आंतकवादियों की रिहाई की थी। जिसमें हामिद शेख, मोहम्मद अल्ताफ बट, शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल था। फारुख अब्दुल्ला और मुफ़्ती सईद आतंकियों की रिहाई के ख़िलाफ़ थे 

ऐसी ही घटना 24 दिसंबर 1999, दिन शुक्रवार. काठमांडू से दिल्ली के लिए उड़े आईसी 814 विमान को हथियारबंद आतंकवादियों ने हाइजैक कर लिया. इंडियन एयरलाइंस के इस विमान में 176 यात्री और 15 क्रू मेंबर्स सवार थे. इस प्लेन हाईजैक के बदले यात्रियों की जान बचाने के लिए अटल सरकार ने तीन आतंकियों मसूद अजहर, उमर शेख और अहमद जरगर को छोड़ा था। आतंकी वारदातें तो असंख्य हुई जिनका जिक्र असम्भव है। 

बात वापस कश्मीर की। कश्मीर में एकदिन 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें। अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा। चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा।  इसके बाद कट्टरपंथी लोगों की तादाद अचानक बढ़ गई और वे लगातार हत्यायें औऱ रेप करने लगे। कहते कि पंडितो, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ।

बहरहाल! जनवरी 1990 में, जब कट्टरपंथियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था, तब भाजपा द्वारा समर्थित केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी और जम्मू और कश्मीर में राज्यपाल शासन था। उस वक़्त जम्मू कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन थे। जो बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे।"  कहा जाता है कि "जगमोहन सिंह अटल बिहारी वाजपेयी के राजनैतिक सचिव भी रह चुके थे। जगमोहन सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी की सिफारिश पर ही राज्यपाल बनाया गया था।"

फारूख अब्दुल्ला ने उस वक्त केंद्र से कहा कि आप हमारी मर्जी के खिलाफ गवर्नर भेज दे रहे हैं। अगर आपने ऐसा किया तो मैं इस्तीफा दूंगा। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने उस वक्त वीपी सिंह पर दबाव डाला और जगमोहन को भेजा। फारुख अब्दुल्ला इस्तीफा देकर इंग्लैंड चले गये और कश्मीर में तांडव हो गया। कहा जाता है कि राज्यपाल जगमोहन ने बजाय कार्यवाही करने के कश्मीरी पंडितों से कहा कि तुम घाटी छोड़ दो। कुछ समय बाद तुम्हे वापस बुलाया जायेगा।

अब्दुल्ला के इस्तीफे के बाद प्रदेश में राज्यपाल शासन लग गया। जगमोहन को हटाने बाद राज्यपाल गिरीश चन्द्र सक्सेना ने भी केंद्र सरकार से सेना भेजने की संस्तुति भेजी लेकिन तब तक लाखों कट्टरपंथी कश्मीरी मुसलमान सड़कों पर आ गये, उन्होंने शांत मुसलमानों को भी धमकाना शुरू कर दिया और कश्मीरी पंडितों डराना भी शुरू किया। बेनजीर भुट्टो ने पाकिस्तान से रेडियो के माध्यम से भड़काना शुरू कर दिया।

24 जनवरी सन 1990 को तत्कालीन राज्यपाल ने कश्मीर बिगड़ते हालात देखकर फिर से केंद्र सरकार को रिमाइंडर भेजा लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब नहीं आया उसके बाद राज्यपाल ने विपक्ष के नेता राजीव गाँधी को एक पत्र लिखा जिसमें कश्मीर की बढ़ती समस्याओं का जिक्र था, उस पत्र के जवाब में भी कुछ नहीं आया। 

2 फरवरी सन 1990 को राज्यपाल ने साफ साफ शब्दों में लिखा - "अगर केंद्र ने अब कोई कदम ना उठाये तो हम कश्मीर गवाँ देंगे." इस पत्र को सारे राज्यों के मुख्यमंत्री, भारत के प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता राजीव गांधी के साथ साथ बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी भेजा गया, पत्र मिलते ही बीजेपी का खेमा चौकन्ना हो गया और हज़ारों कार्यकर्ता प्रधानमंत्री कार्यालय पहुँच कर आमरण अनशन पर बैठ गये, राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री से दरख्वास्त की जल्द से जल्द इस मुद्दे पर कोई कार्यवाही की जाये.

 6 फरवरी सन 1990 को केंद्रीय सुरक्षा बल के दो दस्ते अशांत घाटी में जा पहुँचे लेकिन उद्रवियों ने उनके ऊपर पत्थर और हथियारों से हमला कर दिया. सीआरपीएफ ने कश्मीर के पूरे हालात की समीक्षा करते हुए एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भेज दी. तत्कालीन प्रधानमंत्री एवम् गृहमंत्री चन्द्रशेखर ने इस रिपोर्ट पर गौर करते हुए राष्ट्रपति को भेजते हुए अफ्स्पा लगाने का निवेदन किया. तत्कालीन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन ने तुरन्त कार्रवाई करते हुए AFSPA लगाने का निर्देश दे दिया।

25 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ मंदिर से आयोध्या तक रथ यात्रा शुरू कर दी। इस रथयात्रा के कारण कई जगहों पर विवाद/दंगे हुए। बिहार में लालू प्रसाद ने आडवाणी की रथयात्रा रोक दी और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसकी गाज वीपी सिंह की सरकार पर गिरी। बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह पूर्व प्रधानमंत्री हो गए। इसी बीच उत्तर प्रदेश में बीजेपी की कल्याण सिंह सरकार बनी जिसने विवादी भूमि को अपने कब्जे में ले लिया। 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवंबर 1990 तक उनका कार्यकाल रहा इसके बाद 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991 तक के लिए जनता पार्टी के अध्यक्ष रह चुके चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने जिन्होंने बाद में अपनी अलग पार्टी बना ली थी।

आतंक का वह बेहद खौफनाक मंजर था। महिलाओं, बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट इन सारी घटनाओं में सबसे आगे था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 60 हजार परिवार कश्मीर छोड़कर भाग गये। हालांकि उसी समय 50 हजार मुसलमान भी घाटी छोड़कर जम्मू आये क्योंकि कट्टरपंथी उनको हिंसा के लिए मजबूर करते थे। वे मुस्लिम भी पंडितों की भांति आजतक वापस नहीं जा सके और 800 कश्मीरी पंडित ऐसे थे जिन्होंने कभी भी घाटी नहीं छोड़ी। 

जिन कश्मीरी पंडितों ने जम्मू,कश्मीर छोड़ा उन्हें आस-पास के राज्यों में जगह मिली।19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था। अनुमानित 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे। हालांकि आंकड़ों के मुताबिक अभी लगभग 20 हजार पंडित कश्मीर में रहते हैं। यह मंजर बेहद दुखदायी और पीड़ादायक था। हालांकि यह विस्थापन या अत्याचार पहला या आखिरी नहीं था लेकिन क्रूरतापूर्ण जाहिलपन की तुलनाऐं व्यर्थ है। धारा 370 का हटाया जाना एक अच्छा फैसला है लेकिन इससे कश्मीरी पंडितों को कोई लाभ नहीं है क्योंकि कश्मीरी पंडितों को वह तमाम अधिकार एक नागरिक होने के नाते पहले से ही थे जो वहां के मुस्लिमों को भी है। स्थाई समाधान उनकी उसी जगह पर स्थापना होना है। 

कश्मीरी पंडितों को अभीतक वापस अपना अधिकार तो नहीं मिला जिसका अफसोस उन्हें जीवन भर रहेगा लेकिन यह जरूर है कि उन्हें बढ़िया जगहों पर बसाया गया और उनके लिए स्कूलों और नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है। किसी भी विस्थापितों में कश्मीरी पंडितों को सबसे अधिक मुआवजा प्राप्त है। समय समय पर उनके लिए विशेष प्रबंध और पैकेज भी जारी किए गए हैं। अंतिम पैकेज नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2015 में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 2 हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी। हालांकि यह सुविधाएं और पैकेज मुख्य विषय यानि पुनर्स्थापना से अलग ही रहे हैं।

इन घटनाओं के लिए तमाम सरकारें और तमाम वर्ग, समाज जिम्मेदार है। कट्टरपंथी ताकतें और ज्यादा जिम्मेदार है। संसाधनों को न बांटना भी गलत है और संसाधनों पर कब्जे की नीयत रखना भी गलत है। जिसदिन कश्मीरी पंडितों ने घर छोड़ा उस वक्त बीजेपी समर्थित सरकार ही केंद्र में थी और राज्य में भी राज्यपाल उन्ही के द्वारा भेजे गए थे। इसलिये उनके द्वारा इसे इस गलत तरीके से प्रचारित करना लोगों की आधी, अधूरी जानकारी है। बाकी उसके बाद अस्थिर सरकारें, फिर 5 साल कांग्रेस और 5 साल बीजेपी सत्ता में रही। फिर 10 कांग्रेस और फिर 10 साल के लिए बीजेपी है लेकिन समस्या का समाधान अभी तक सम्भव न हुआ। 

कुलमिलाकर देखें तो तब से अबतक 15 वर्षों तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही और 15 वर्षों के लगभग भाजपा तथा उनकी समर्थित सरकार रही इसलिये किसी एक को जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। घटना कोई छोटी हो या बढ़ी उनको नकारना भी गलत होगा। इसी तरह धार्मिक दृष्टिकोण को भी देखना होगा क्योंकि राजा हरि सिंह के समय से सभी लोग शांत थे लेकिन हिस्सेदारी की लड़ाई आज अलगाव की चपेट में आ गई इससे हमें सीखना होगा। अंत में सभी को न्याय मिले, सभी समानता मिले, सभी में एकता तभी सम्भव है अन्यथा वर्ग संघर्ष कभी खत्म नहीं होगा।


 #आर_पी_विशाल

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