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Thursday, 31 March 2022

स्वतंत्र भारत की ‘स्वर-साम्राज्ञी’ लता मंगेशकर !

समकालीन जनमत के ताज़ा अंक में लता मंगेशकर को याद करते हुए यह लेख।

स्वतंत्र भारत की 'स्वर-साम्राज्ञी' लता मंगेशकर !
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आधुनिक भारत की सत्ता-संरचना के भीतर उभरते सांस्कृतिक विकास के दौर में हम यह महसूसते रहे कि लता मंगेशकर जैसी शख़्सियत जिस दिन इस धरती से अलविदा कहेगी वह जाने कैसा दिन होगा!
भारतीय समाज के लिए कल्पनातीत!! फिर भी वह दिन आ गया लेकिन 2022 के दौर में जब भारतीय लोकतंत्र के संकरे रास्ते को और ज़्यादा संकुचित और कट्टर करने की पुरज़ोर साज़िशें की जा रही हैं, ऐसे में लता मंगेशकर के निधन की घटना भी उसका साधन बन गई।उनके निधन पर प्रतिक्रिया देने वाला समाज अनेक धड़ों में बंट गया।कला-संगीत के क्षेत्र की इतनी बड़ी घटना को एक समूह ने प्रतिक्रियावादी राष्ट्रीयता का रंग दे दिया, दूसरे समूह पर हर तथ्य से परे भाववादी कला का सम्मोहन तारी रहा और तीसरे समूह ने लता जी की कला से ज़्यादा उनकी राजनीतिक वैचारिकी का विश्लेषण किया।
अर्ध-औपनिवेशिक भारत की नई आज़ादी से उभरी लता मंगेशकर की आवाज़! जो इसी संदर्भ में भारतीय स्त्री की आवाज़ थी- उससे बने मध्यवर्ग और आम जन-मानस ने इस विकट समय में लता मंगेशकर जैसे कला-व्यक्तित्व को इस तरह अलविदा कहा। 

दरअसल सिनेमा एक सांस्कृतिक माध्यम है और उसके प्रत्येक रूप के सरोकार राजनीतिक हैं। 
संस्कृति कोई वायवीय चीज़ नहीं, गतिमय है लेकिन कई बार अपने अनेक कला-रूपों में वह abstract या एक तरह के अमूर्तन भाव के भीतर अपना प्रभाव छोडती है।इस तरह आधिपत्य की राजनीति में कला-रूपों की संस्कृति भी अमूर्तन रचती है।'कल्चरल स्पेस' में विभिन्न वर्ग के बिम्ब, ध्वनि, प्रतीक और दृश्य आपस में संघर्ष करते हैं और अलग-अलग ढंग से प्रभु वर्ग को रूपायित करते हैं।  

बहुत समय तक तो सिनेमा को कला-रूप न मानकर रंजन के तौर पर लिया गया इसीलिए सिनेमाई स्पेस के भीतर चल रहे राजनीतिक-सांस्कृतिक सौंदर्यशास्त्र के समाज पर असर को गंभीरता से नहीं लिया गया।फ़िल्म आलोचक वासुदेवन मानते हैं कि सचेत रूप से 1945 के बाद हिन्दी सिनेमा हिन्दू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से बुरी तरह ग्रसित हो रहा था हिन्दू अलगाव और दर्शकों की उपेक्षा के भय ने फ़िल्म व्यवसाय को ऐसी फिल्में बनाने को विवश किया जिसमे समरस हिन्दू राष्ट्र की एक ऐसी छवि उभरे जिसमे धीरे-धीरे सारी पहचानें विलोपित होती जाएँ।इस तरह संगीत और विशेषतः गायिकी और ज़्यादा अमूर्तन रचती है इसलिए गायिकी का मूल्यांकन सम्मोहक और कठिन हो जाता है।मुक्तिबोध अपनी एक कविता में कहते हैं कला कितनी भी आकर्षक, सम्मोहक, तरल, लोकप्रिय और स्निग्ध हो; अंततः वह जन और कठोर सामाजिक सरोकारों  से ही मूल्यांकित होगी।यह ध्यान रखना ही होगा कि कला रूप किस वर्ग से उद्भासित होकर किसे विकसित करता है और उसके आस्वादक दरअसल समाज का कौन सा हिस्सा है।

'क्या सत्य आज 
जीवन के, जन-जीवन के कर्तव्यों सिवाय! 
ये पुरुष, स्त्रियाँ, मोहनकारी संगीत-सर्व
है इन्द्र्जाल, है सभी तिलिस्म, यदपि स्निग्ध'

एक कविता 'ओ मेरे जीवन के साथी' में कला-रूप के संदर्भ में कविता के लिए मुक्तिबोध लिखते हैं-
'मधुर अरुण भ्रम, मधुर अरुणतम
कवि कहता 'सच्ची है मेरी गहन भावना'
भोले पाठक, तुम सशंक हो
उसकी कविता-श्रवण पूर्व ही कवि का अध्ययन करो तुम।
हृदय के क्षितिज-दीर्घ प्रत्यंचा पर हैं अड़े सुतीक्ष्ण बाण से 
बस कवि पर विश्वास मत करो ,
चाहे जितना अच्छा कल्पक 
चाहे जितना ऊँचा चिंतक 
ऊँचा चिंतक वह होता है 
जिसमे मधुर कुहासे की सुंदरता है।
क्योंकि हमारा यह मध्यवर्गीय महाकवि
उसे हमारे मध्यवर्गीय पाठक 
तेरी हो बस अधिक अधिकतम बिगड़ा हुआ रूप है उत्तम 
उसकी नसें अधिक ज़ोरों से कंपती रहतीं
पूनो की चाँदनी मधुर में शिशिर रात में 
दीर्घ कुहासे का सफ़ेद ज्यों जाल तना रहता है'।

महाराष्ट्र के थियेटर करने के साथ-साथ शास्त्रीय गायक दीनानाथ मंगेशकर की बेटी लता मंगेशकर में बहुत कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत की रीति-नीति जैसा रियाज़ी धीरज और सुर-ओ-साज़ की परिपक्वता थी।अनेक महान कलाकारों ने लता जी की कम वय में गायिकी प्रतिभा पर संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं।
लता जी से पहले गहन भारी आवाज़ वाली गायिकाओं ने हिन्दी सिनेमा की एक मज़बूत ज़मीन तैयार कर रखी थी जिनमें शमशाद बेग़म, नूरजहाँ, ज़ोहराबाई अंबालेवाली और बाद में गीता रॉय (दत्त) प्रमुख थीं।पचास के दशक में नूरजहाँ पाकिस्तान चली गईं और एक युग का समापन हुआ।
दरअसल लता मंगेशकर से पहले भारी आवाज़ों की लोकप्रिय गायिकाएँ सामंती शास्त्रीय परम्पराओं की यात्रा से गुज़र कर आई हुई कलाकार थीं।उनकी आवाज़ के भारीपन में जो लोच थी वह पुरानी ख़्याल गायिकी के आकर्षक प्रेम और उलाहनों की लोच थी-आवाज़ में एक अदाकारी के साथ (हालांकि उन दिनों ग्रामोफ़ोन की पुरानी तकनीक के कारण भी आवाज़ मे यह अंतर मिलता है।)पहले पहल जब सिनेमा की दुनिया में मल्लिका ए तरन्नुम नूरजहां का दबदबा था तब लता मंगेशकर को भी उसी तरह की भारी और अदा भरी आवाज़ मे गाना पड़ता था।
लेकिन नए भारतीय मध्यवर्ग ने एक समय के बाद लता मंगेशकर की उस महीन आवाज़ को स्वीकार किया जिसे बड़े-बड़े पुराने उस्ताद अस्वीकृत कर चुके थे।यह उभरता हुआ वही मध्यवर्गीय भारत था जो सामंती परिवेश की छटपटाहट से निकला था लेकिन उनके अवशेषों को भीतर समोए हुए भी था।उसके भीतर आधुनिक आभिजात  नैतिकता का सौंदर्यबोध था साथ उसी से लगा-लिपटा पुराना सामंतवाद भी।लता मंगेशकर की आवाज़ इस नए वर्ग के लिए सबसे मुफ़ीद आवाज़ थी।
भारतीय समाज के पोर-पोर में गीत-संगीत बसा है इसलिए वह अमूर्त मानकर आनंद की चीज़ मान लिया जाता है।हिन्दी फिल्मी गीतों का प्रभाव तो राजनीतिक-सामाजिक जनजीवन पर व्यापक रूप से पड़ा है।घर-घरानों मे बंटा हुआ कठिन शास्त्रीय संगीत उच्च वर्ग के आस्वाद और अभिरुचि कि चीज़ थी तो एक ओर लोक-गीत था, जिसे अक्सर अश्लील और फूहड़ कहकर दोयम और मोटा क़रार दिया जाता था।ऐसे में फ़िल्मी गीतों ने भारतीय जनमानस में एक नई अभिरुचि का विकास किया।लता मंगेशकर की गायिकी और गीतों को लेकर उनके चयन स्वतंत्र भारत कलात्मक अभिरुचि को समृद्ध किया।वे चाहतीं तो शुद्ध शास्त्रीय संगीत की ओर भी रुख़ कर सकती थीं लेकिन शुद्ध शास्त्रीय रियाज़ी होने के बावजूद वे फ़िल्मी गाने ही गाती रहीं।इस तरह उन्होने पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की कठिनता और सुगम संगीत कि सपाटता के बीच नए किस्म के गंभीर गीत गाए जिसका असर आम जनमानस के हृदय से कभी नहीं जाएगा।उनकी गायिकी में भारतीय मध्यवर्गीय स्त्री के मानसिक उतार-चढ़ाव, प्रेम-पीड़ा, सुख-दुख, एकनिष्ठता-नैतिकता, अलगाव-आत्मग्रस्तता, टूटन-त्रासदी, सहनशीलता, आह्लाद और संकोच की मुक्कमल छवि आकार लेती है।उनकी आवाज़ इस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए उनकी आवाज़ भारतीय समाज की सबसे क़रीबी और अपनी आवाज़ है। 

महान कलाकार कुमार गन्धर्व ने लता मंगेशकर पर एकाग्र अपने प्रसिद्ध लेख का शीर्षक ही  'अभिजात कलावती'  रखा है। वे स्पष्ट लिखते हैं-"लता के गाने की एक और विशेषता है उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहां भी एक अच्छी गायिका थीं, इसमे संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दिखता था।लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है"।
यहाँ नूरजहां की 'मादक उत्तान' के बरक्स लता की आवाज़ 'निर्मल और कोमल' है।
दरअसल नूरजहां एक युग हैं और लता उसी के बाद दूसरा युग।नूरजहां और लता मंगेशकर भारतीय उपमहाद्वीप के सिनेमा लोक की क्रमशः 'मल्लिका ए तरन्नुम' और 'स्वर-साम्राज्ञी' रही हैं।नूरजहां का जीवन संघर्षपूर्ण, बेहद ऊबड़-खाबड़, विखंडित और विवादास्पद रहा है।उनके क़रीबी रहे खालिद हुसैन अपने लेख 'नूरजहां में  लिखते हैं कि-'इमोशनल तौर पर उनकी ज़िंदगी बिखरी ही रही!'उसी लेख में एक बातचीत मे वे कहती हैं कि-
"मुझे भावना के स्तर पर ख़ुद को किसी न किसी मर्द से जोड़े रखना लाज़िमी है..नहीं तो मैं गा नहीं सकूँगी; नहीं तो मेरा संगीत मुझसे दूर चला जाएगा"।
[सिनेमा के सौ बरस (संपा-मृत्युंजय)-लेख-'नूरजहां'-खालिद हुसैन, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 389.
मूल: पाकिस्तानी साप्ताहिक: 'फ्राइडे टाइम्स' से।अनु-मनोज शर्मा]
ख़ालिद साहब यह भी लिखते हैं कि- "नूरजहां काफ़ी दक़ियानूसी थीं। औरतों में उनकी राय पुरानी, परंपरावादी या फिर निंदा उलाहनों से भरी रहती थी।यह हैरान करने वाली बात इसलिए है कि ऐसी मान्यता एक ऐसी औरत की रही जो अपनी मर्ज़ी कि ज़िंदगी जीने की आदी रही"।
सबके बावजूद नूरजहां ने संगीत को सच्ची बंदगी कहा और पाकिस्तान में इस्लाम की मुखालफत के आरोप में उन पर फ़तवा जारी हुआ था। 

दूसरी ओर लता मंगेशकर का जीवन बहुत संघर्षपूर्ण, सादगी भरा, घर-परिवार और छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारियों को लिए हुए अकेला जीवन रहा है। नेहरुवियन मॉडल से निर्मित भारतीय समाज लता मंगेशकर की प्रतिभा के साथ उनकी त्यागपूर्ण कठोर जीवन शैली के प्रति भी अधिक नत-मस्तक रहा।

महाराष्ट्र नवजागरण का केंद्र रहा है।आज़ादी से पहले और बाद तक के सामाजिक आंदोलनों के बावजूद यह कैसे हुआ कि अमूमन हमारे कलाकार ऐसे मुद्दों पर कोई पक्ष नहीं लेते और हम उनकी कला को अमूर्त मानकर उनके पक्ष-विपक्ष का कोई अर्थ भी नहीं लेते जबकि अपने सांस्कृतिक कर्म में कला पूरी तरह से राजनीतिक और सामाजिक होती है।

स्पष्टतः लता मंगेशकर सावरकर जैसे कट्टर हिंदुत्ववादी विचारक के समर्थन मे लिखती हैं और कभी भी सांप्रदायिकता के खिलाफ़ नहीं बोलतीं।यही कारण है कि वे प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पक्षधर की तरह प्रस्तुत की गईं। 
निस्संदेह लता मंगेशकर का मूल्यांकन उनकी गायिकी के मद्देनजर ही होगा लेकिन है लेकिन कोई भी व्यक्ति या कला समाज के मातहत ही होती है अतः एक नागरिक के तौर पर यह भी देखा जाएगा कि उनकी कला समाज के किस पक्ष को गतिशील करती है।
हालांकि बाद के दिनों में वे सांप्रदायिक विभाजन से बहुत दुखी थीं। एक साक्षात्कार में उन्होने विभाजनकारी तत्वों पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया और संगीत कि दुनिया के लिए यह चिंता और प्रश्न छोड़ गईं कि सिने-संगीत में कुछ तो बड़ा फाँक है जिसके कारण मौलिकता मुखर नहीं हो रही है।पुराने गीतों को ही भिन्न-भिन्न ढंग से फ़्यूजन की तरह लोग इस्तेमाल कर रहे हैं और आज भी अपने दुख-सुख की कोमलता की पहचान  उन्हें पुराने गीतों में मिल रही है।

◆ वंदना चौबे


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