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Friday, 18 March 2022

मुसलमान और साम्प्रदायिकता (कँवल भारती)


(यह लेख 1992 में लिखा गया था, और मेरी किताब 'जाति, धर्म और राष्ट्र' (2005) से लिया गया है. इसे मेरे आग्रह पर फेसबुक के पाठकों को उपलब्ध कराने के लिए यूनिकोड में शोध छात्रा ज्योति पासवान ने कन्वर्ट किया है. जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ. यह लेख आठ हजारसे भी ज्यादा  शब्दों में है. मैं इसे किश्तवार प्रस्तुत करूँगा, आज पहली किश्त--)
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राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद के संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी और हिन्दू संगठन के नेताओं ने जो बयान मुसलमानों के प्रति इन तीन वर्षों में दिये हैं , उससे न केवल इस दशक को हिन्दू आक्रामकता का काल खण्ड बना दिया है, अपितु भारतीय मुसलमानों की छवि को भी साम्प्रादायिक और अराष्ट्रीय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है  । यद्यपि, सामान्यत: मसलमानों के विषय में सही-गलत राय कायम करने की परम्परा या तो हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय, या फिर उस समय रही है, जब  देश में चुनावी सरगर्मियां शुरु होती हैं । किन्तु मंदिर-मस्जिद – विवाद ने मुसलसल ऐसी सोच देश में पैदा कर दी है, जिसका केंन्द्र-बिन्दु मुसलमान है । 
           मुसलमानों के बारे में आम हिन्दू दृष्टिकोण क्या है ? वह प्राय: उसी चिंतन पर आधारित है, जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, और उससे अनुप्राणित तथा संचालित हिन्दू संगठनों का है । निश्चित रुप से वह निष्पक्ष और यथार्थ परक अधययन पर आधारित नहीं है, इसलिये मुसलमानों की यह चिंता ग़लत नहीं है कि हिंदुत्व का भ्रामक चिंतन बहुसंखयक दृष्टिकोण के रुप में उनके लिये खतरनाक परिणाम पैदा कर सकता है ।
            प्रो. फ़करुद्दीन बेन्नूर ने अपने एक लेख में हिन्दू-मन की ग्रंथियों का वास्तविक वर्णन किया है, हालांकि मुस्लिम पक्ष को वह उनके प्रत्युत्तर में प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं । उन्होंने लिखा है – 
                          "मुख्य स्वर यह है कि मुसलमानों के पिछड़ेपन में इस्लाम धर्म का   स्वरुप बड़ा कारण है । इनके मतानुसार हिन्दू-मुस्लिम-संघर्ष में भी यही है । मुसलमानों की मानसिकता तथा उनके समाज की बनावट के मूल में भी इस्लाम ही है , जिसके आधार पर भारतीय मुस्लिम समाज एक स्वतंत्र ईकाई है । उर्दू भाषा के कारण यह समाज भीतर से जुड़ा हुआ है और मुल्ला-मौलवियों के नियंत्रण में है । भारतीय समाज से जुड़कर यह समाज जीता नहीं । विदेशी इस्लामी संस्कृति भारतीयता को भेदने वाली संस्कृति है । वह देश की एकात्मकता के लिये बाधा बन गई है । मुसलमान हिंसावादी होते हैं ।लकीर के फ़कीर होते हैं। उनमें धर्मांधता अधिक होती है , वे भारतीय माटी से बेइमानी करते हैं ।"
मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं के ये आम विचार उस समय सांप्रादायिक तनाव और दंगों के कारण बन जाते हैं, जब हिन्दू नेता अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिये अपने आधारहीन वक्तव्यों से उन्हें और भी उग्रतम बना देते हैं । उदाहरण के लिये ऐसे कुछ वक्तव्य यहाँ दिये जाते हैं, जो तनाव का कारण बने । पहले प्रस्तुत है, उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष श्री राजेन्द्र कुमार गुप्त का यह वक्तव्य जो उन्होंने 16 अक्टूबर 1990 को दिया –
               "अब हिन्दुस्तान में हिन्दू तिरस्कार की ज़िन्दगी नहीं जियेगा ।....जब तक सूरज चांद रहेगा , हिन्दू राष्ट्र जीवित रहेगा । भारत में रहना होगा , वन्दे मातरम् कहना होगा । जब राम मंदिर का निर्माण हो जायेगा, तो हम सब यह समझेंगे कि हमने एक गुलामी के निशान को उखाड़ कर फेंक दिया ।"
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ, अवध प्रांत के कार्यवाह ब्रजमोहन के शब्द भी विचारणीय हैं – 
              "हिन्दू शक्ति एक प्रबल ज्वार की तरह उठ खड़ी हुई है । हर राम-मंदिर विरोधी शक्ति इस ज्वार में तिनके की तरह ढह जायेगी ।"
विश्व हिन्दू परिषद के महामंत्री अशोक सिंहल की चेतावनी पर भी ध्यान दीजिए – 
                "राम जन्म भूमि के लिये हमारा यह आंदोलन भारत को हिन्दू राष्ट्र के रुप में स्थापित करने का प्रयास है । हमें आज जिस रावण का संहार करना है, उसके लिये हमें पहले समाज में व्याप्त बलि, जयचंद्र जैसे देशद्रोही को समाप्त करना है । ... 1920 में कांग्रेस द्वारा नेतृत्व संभालने के बाद से ही मुस्लिम समाज ने अलगाववाद की राह पकड़ी और पाकिस्तान के रुप में मुस्लिम सल्तनत बनी । आज उसी को केंद्र बनाकर आतंकवादियों ने देश में हर तरफ हिंसा या भय का माहौल बना रखा है । हमें छत्रपति शिवाजी से प्रेरणा लेनी चाहिए, जिन्होंने सर्वप्रथम मुस्लिम प्रभुसत्ता का विध्वंस किया है।" 
भाजपा के राष्ट्रीय नेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी का बयान भी गौर फरमायें, जो उन्होंने 24 सितम्बर 1990 को लखनऊ में दिया था- 
                " हिन्दू इस देश में अब उपेक्षित होकर नहीं रहेगा । क्या सबको समान व्यवहार की मांग करना साम्प्रादायिकता है ? शादी-विवाह पर देश में समान कानून क्यों नहीं है ? परिवार नियोजन सबके लिये क्यों नहीं है ?" 
  भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मधोक के शब्द तो सचमुच विशेष महत्व रखते हैं – 
          " इस देश में जो राम को नहीं मानता ,वह राष्ट्रवादी नहीं है ।" 
  अत: इससे पहले कि मुस्लिम सांप्रदायिकता पर विचार किया जाय, यह देखना जरुरी है कि मुसलमानों के बारे में हिन्दू धारणा सही है या ग़लत । हिन्दू धारणा से जो प्रश्न तैयार होते हैं, वे इस प्रकार हैं- 
1. मुसलमान भारतीय समाज से नहीं जुड़े हैं? क्या यह सच है ? 
2. मुसलमान धर्मांध हैं और मुल्लाओं के नियंत्रण में रहते हैं । क्या यह सच है ? 
3. क्या इस्लाम और मुसलमानों ने हिन्दू धर्म या भारतीयता को नष्ट किया ? 
4. क्या मुसलमान देश की एकता में बाधा है ? 
5. क्या मुसलमान अपराधी और हिंसावादी हैं ? और
6. क्या यह सच है कि मुसलमान देशद्रोही हैं ? 
7. हम पहले प्रश्न को लेते हैं । क्या वास्तव में मुसलमान भारतीय समाज से जुड़े नहीं हैं? कुछ मतभेदों को छोड़कर हिन्दू और मुसलमानों के बीच ऐसी अनेक समानताएँ हैं, जो उन्हें एक राष्ट्र में संगठित करती हैं और एक-दूसरे से जोड़ती हैं । इस सांस्कृतिक एकता का विशद वर्णन डा. आम्बेडकर ने अपने ग्रंथ 'पाकिस्तान' में किया है । पर, पहले हम प्रेमचंद के शब्द उद्धृत करेंगे, जो उन्होंने 'सांप्रदायिकता और संस्कृति' लेख में 1934 में व्यक्त किये थे । पहनावे को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है – 
8.               " सीमा प्रांत के हिन्दू और मुसलमान आपके सामने खड़े कर दिये जायें, तो कोई तमीज नहीं । हिन्दू स्त्री-पुरुष भी मुसलमानों की सी तलवार पहनते हैं । हिन्दू स्त्रियाँ मुसलमान स्त्रियों की तरह कुर्ता और ओढ़नी पहनती और ओढ़ती हैं । हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बांधता है ।अकसर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं । बंगाल में जाइए, वहाँ हिन्दू-मुसलमान दोनों के पुरुष धोती और कुर्ता पहनते हैं । तहमद की प्रथा अभी हाल में चली, जब से साम्प्रदियकता ने जोर पकड़ा है ।"     
9.                डा. आम्बेडकर हिन्दू और मुसलमानों को एक ही नस्ल स्वीकार करते हैं ।  उनके अनुसार, पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहार, बंगाल, मद्रास और बम्बई के हिन्दू और मुसलमान एक ही परिवार के हैं । मद्रासी मुसलमान और मद्रासी ब्राह्मण के बीच तो इतनी अधिक सजातीयता है कि मद्रासी ब्राह्मण और पंजाबी ब्राह्मण के बीच भी उतनी नहीं है ।"
10.         भाषा की दृष्टि से भी मुसलमान भारतीय समाज से अलग नहीं हैं । डा. आम्बेडकर लिखते हैं –
11.                  " मुसलमानों की अपनी कोई निजी भाषा नहीं है, जो उन्हें हिन्दुओं से भाषायी वर्ग के रुप में पृथक करती हो । इसके विपरीत, दोनों के बीच पूर्ण भाषायी एकता है । पंजाब में हिन्दू और मुसलमान दोनों पंजाबी बोलते हैं । सिंध में दोनों सिंधी बोलते हैं । बंगाल में दोनों बंगाली बोलते हैं । गुजरात में दोनों गुजराती बोलते हैं । महाराष्ट्र में दोनों मराठी बोलते हैं । प्रत्येक प्रांत में दोनों प्रांत की भाषा ही बोलते हैं । यह केवल नगरों में है कि मुसलमान उर्दू बोलते हैं तथा हिन्दू प्रांतीय भाषा । किन्तु, नगरेत्तर इलाकों में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सम्पूर्ण भाषायी एकता है ।"
12.         डा. आम्बेडकर ने दोनों समुदायों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में कुछ अन्य विशेषताएं भी रेखांकित की है। उनके अनुसार, अनेक मुस्लिम वर्गों का सामाजिक जीवन हिन्दू प्रथाओं से परिपूर्ण है । उदाहरण के लिये, पंजाब के अवान, जो सभी मुस्लिम हैं, हिन्दू नाम रखते हैं और अपनी वंशावलियां ब्राह्मणी रीति से रखते हैं । 'चौधरी' एक हिन्दू उपनाम है, किन्तु संयुक्त प्रांत और उत्तर भारत के मुसलमानों में यह उपनाम प्रचलित है । विवाह के मामलों में, कुछ मुस्लिम वर्ग तो सिर्फ नाम के ही मुसलमान हैं । वे या तो पूरी तरह हिन्दू रीति अपनाते हैं या पहले हिन्दू रीति से विवाह कर लेते हैं और बाद में काजी बुलाकर उसे इस्लामी रुप भी दे देते हैं । कुछ मुस्लिम वर्गों में तो विवाह, संरक्षण और उत्तराधिकार के मामले में हिन्दू कानून ही लागू होता है । शरीयत-एक्ट पास होने से पहले पंजाब और उत्तर-पश्चिम-सीमा-प्रांत्य में हिन्दू विधि ही लागू थी ।"
13.          सामाजिक  क्षेत्र में जातिप्रथा मुस्लिम समाज में भी उसी प्रकार है, जिस तरह कि वह हिन्दू समाज में है । धार्मिक क्षेत्र में बहुत से मुस्लिम पीरों के हिन्दू शिष्य हैं और बहुत से हिन्दू योगियों के मुस्लिम शिष्य हैं । पंजाब के जिरोट में दो संतों की समाधियां –जमाली सुलतान और दयाल भवन एक ही जगह हैं, जिन्हें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मानते हैं ।
14.           हिन्दू और मुसलमानों के बीच यह सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक एकता क्या इसलिये नहीं है कि मुसलमान भारतीय समाज से शताब्दियों से जुड़े हैं ?
15.           क्या मुसलमान धर्मांध हैं , लकीर के फकीर हैं और मुल्ला-मौलवियों के नियंत्रण में हैं ? यह एक बेहुदा आरोप है और इस सत्य का इनकार भी कि कोई भी धर्म आस्था के बिना जीवित नहीं रहता । हिन्दू समाज के बारे में कहा जा सकता है कि उसमें विवेक की स्वतंत्रता है, प्रगतिवादी दृष्टिकोण है । किन्तु यह कुछ आधुनिक शिक्षित जनों की विविशता है, जिसमें धर्म के असुंदर एवं अशिव पक्ष को छिपाने की परिस्थिति जन्य भावना निहित है । यदि हजारों कुठाराघातों के बाद भी हिन्दू धर्म अपनी समग्र मौलिकता में जीवित है, और जगदगुरुओं, आचार्यों, योगियों, बाबा, महात्माओं की पूजा, उनके शब्दों पर ब्रह्मवाक्य जैसी श्रद्धा, ब्राह्मण के प्रति जन्मना उच्चता का भाव, दलितों के प्रति जन्मना नीचता का बोध, तीज-त्यौहार और लोकाचार की रूढ़ियों में आस्था हिन्दू समाज में जीवंत है, तो यह इसलिये है कि वेद-शास्त्रों और रामायण, पुराण आदि ने जो मर्यादाएं और संहिता स्थापित की है, उस पर हिन्दुओं की कट्टर आस्था है । कोई भी हिन्दू वेदशास्त्रों की मर्यादा के बाहर जाना नहीं चाहेगा और धर्माचार्यों को पथ भ्रष्टक कहना स्वीकार नहीं करेगा । 
16.              हम यह नहीं कहते कि मुसलमानों में धर्मांधता नहीं है, परन्तु धर्मांधता का आरोप किसी विशेष समुदाय पर नहीं लगाया जा सकता । 1987 में डा. आम्बेडकर की पुस्तक "रिडिल्स इन हिन्दूइज्म" के विरुद्ध महाराष्ट्र में हिन्दुओं का आंदोलन और पुस्तक का जलाया जाना, जैन मुनि आचार्य तुलसी की पुस्तक 'सीता की परीक्षा'  के खिलाफ हिन्दुओं का विद्रोह, 'सरिता' में प्रकाशित  सखा बोरड़  के लेख 'कितना महंगा धर्म' के खिलाफ जैन समाज का गुस्सा जो न्यायालय तक गया,  'सरिता' में ही प्रकाशित अरविंद कुमार की कविता 'राम का अंतर्द्वंद्व' के खिलाफ हिन्दू  धर्माधिकारियों की आपत्ति  और कानूनी  कार्यवाही – ये सब धर्मांधता के ही रुप हैं । 
17.                 शाहबानो प्रकरण पर मुसलमानों को धर्मांध कहा जाता है, पर, बहुत से मुसलमानों  द्वारा शाहबानो के पक्ष में विचार रखने के बावजूद यदि आम मुस्लिम नजरिया  शरीयत का पालन आवश्यक समझता  है,  तो यह उसी रुप में देखा जाना चाहिए , जिस रूप में हिन्दू  धर्माचार्यों ने दिवराला मे रूपकुंवर के सती –कर्म को धर्म की मर्यादा का पालन कहा था । 1980 में भारत के बौद्धों ने लक्ष्मी नारायण मिश्र के नाटक 'काल विजय' को प्रतिबंधित  कराने के लिये आंदोलन किये थे । इस आंदोलन का औचित्य यह था कि 'काल विजय' में गौतम बुद्ध और यशोधरा के चरित्रों पर अश्लील दोषारोपण किया गया था । इसी प्रकार , सलमान  रुश्दी के उपन्यास ' सेटेनिक  वर्सेस' के खिलाफ मुसलमानों का रोष भी इसलिये धर्मांधता नहीं कहा जा सकता कि उस उपन्यास में इस्लाम की तार्किक आलोचना नहीं , अपितु पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब के प्रति अभद्रता प्रकट की गयी है । मुसलमान अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता के विरोधी नहीं हैं, अपितु मुसलमानों ने ही दयानन्द स्वामी के 'सत्यार्थ प्रकाश' और हिन्दू महासभा के कुरआन –विरोधी पत्रक का उत्तर गालियों से नहीं साहित्य से ही दिया है । किन्तु, अभिव्यक्ति का फूहड़ प्रदर्शन विचार नहीं, पीड़ा देता है, जिसे सहन नहीं किया जा सकता । ब्रिटिश  भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में जिन पुस्तकों  - ' सीता का छिनाल' और 'रंगीला रसूल'  ने अहम भूमिका निभायी थी, उनका आधार भी अभिव्यक्ति का फूहड़ प्रदर्शन ही था । 
भारत के मुसलमान भारी संख्या में अशिक्षा का शिकार है । इस्लाम की सही जानकारी भी उनको नहीं है । ऐसी स्थिति में, उनका मजारों तथा ज़ियारतों में श्रद्धा एवं मुल्ला-मौलवियों पर अंध-विश्वास उनके अज्ञान का ही कारण है । किन्तु, किसी भी रूप में अंधविश्वास को इस्लाम का समर्थन प्राप्त नहीं है। मजारों, मौलवियों और गंडे-ताबीजों पर इन अशिक्षित मुसलमानों के विश्वास में सदियों से भारतीय समाज से जुड़े हिन्दू लोकाचार के प्रभाव को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता ।
(क्रमशः ---)

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