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Tuesday, 15 March 2022

कश्मीर फाइल्स

कश्मीर फाइल्स के अलावा भी ऐसी बहुत सी फाइल्स हैं जिस पर फिल्मों का बनना जरूरी है ....

 *गुजरात फाइल्स,* 
 *गोधरा फाइल्स* , 
 *पुलवामा फाइल्स,* 
 *दिल्ली दंगा फाइल्स,* 
 *जज लोया फाइल्स* 
 *नोटबंदी फाइल्स* 
 *राफेल फाइल्स* 
*ईवीएम फाइल्स*

आप लोग भी कुछ जोड़ो इसमें 

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कश्मीरी पंडितों के साथ जो दर्दनाक घटा, और उसके बहाने आज देश में नफ़रत बोने का जो काम किया जा रहा है, उस आलोक में  Dilip Khan  की यह संतुलित और तथ्यात्मक पोस्ट आपको पढ़नी चाहिए ! 
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किसी हत्याकांड को मुख्य रूप से चार तरीक़ों से देखा जाता है. पहला, उसका स्केल क्या था. दूसरा, उसका मैसेज क्या था. तीसरा, वह कितना सांगठनिक था और चौथा प्रशासन का उस पर क्या रवैया रहा. 

ट्रोलनुमा निर्देशक की फ़िल्म पर मैं चर्चा नहीं करूंगा. वह मैंने देखी नहीं है. लेकिन, कश्मीर को लेकर जो उबाल यहां आया है, उसे इन चारों पैरामीटर के लिहाज़ से देखते हैं.

• भौगोलिक स्केल व्यापक था. अलग-अलग जगहों पर हमले हुए, लेकिन जैसा कि कई लोग लिख रहे हैं कि 10 हज़ार या बीस हज़ार कश्मीरी पंडित मारे गए, वह हर डेटासेट के हिसाब से झूठ है. राज्यसभा में दी गई सरकारी जानकारी के मुताबिक़ 1989 से लेकर 2010 तक वहां 219 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई. 

• राज्य की पुलिस रिपोर्ट में 174 मामले दर्ज हैं. 30 मामलों को चुनौती दी गई, 142 मामलों में कोई सुराग़ हाथ नहीं लगा. एक मामले में सज़ा हुई.

• कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के मुताबिक़ 357 लोगों की हत्या हुई. 

• केंद्र सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक़ 1990 से कश्मीर घाटी से 44,167 परिवारों का पलायन हुआ, जिनमें 38,782 हिंदू परिवार थे. 

लेकिन, उस दौरान क्या सिविलियन मुस्लिमों की जानें नहीं गईं? सिविलियन का मतलब यहां सीमा पार आतंकवादी और स्थानीय उग्रवादियों को माइनस कर देने से है. 

1990 के गांवकदल जनसंहार में ही सुरक्षाबलों ने 200 से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों को गोली मार दी थी. 1993 में ऐसे कई जनसंहार हुए. लाल चौक, कुपवाड़ा और सोपोर हत्याकांड मिलाकर यह आंकड़ा 400 पार पहुंच जाता है. 

केंद्र सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक़ 1990 से लेकर 2011 तक कश्मीर में 13,226 सिविलियन मारे गए. इनमें किस समुदाय के लोग ज़्यादा रहे होंगे? 

क्या कश्मीर के सारे मुसलमान उस समय कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ थे? 

एक फ़र्क़ था. वहां कई मुस्लिम परिवार अपने पड़ोसी पंडितों की जान नहीं बचा पाए और गुजरात में कई मुसलमान अपने पड़ोसियों से अपनी जान नहीं बचा पाए. यह फ़र्क़ है.  

• इस देश में सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले सैकड़ों हत्याकांड हुए हैं. बिहार में 1996-97 के तीन जनसंहारों में ही 100 से ज़्यादा दलित मारे गए थे. 2002 में गुजरात में आधिकारिक तौर पर 790 मुस्लिम, अनाधिकारिक तौर पर 2000 के ज़्यादा. अहमदाबाद के एक मोहल्ला नरोदा पाटिया में ही 97 लोग. 

यह तुलना सिर्फ़ स्केल के लिए है. 

कश्मीर की हिंसा संगठित हिंसा थी, लेकिन उसमें बहुत पेंच है. उस पेंच को समझने के लिए, दुनिया भर के स्कॉलर आज तक रिसर्च कर रहे हैं. वह जियो-पॉलिटिकल मामला है. 

सवाल तो यह रहेगा ही कि सरकार ने क्या किया? केंद्र और राज्य सरकार अगर चाह ले, तो क्या हिंसा को नहीं रोक सकती? 

धारा 370 के बाद केंद्र सरकार ने वहां साल भर लगभग कर्फ़्यू लगाकर रखा, ताकि दुनिया को यह मैसेज न जाए कि कश्मीर में इसका विरोध हो रहा है. 

1990 में क्या हुआ? सच है कि मस्जिदों से ऐलान हुए. सच है कि टारगेटेड हमले हुए. लेकिन, सरकार ने क्या किया? सरकार ने पलायन का माहौल बनाया. 

कश्मीरी पंडितों को फ़टाफ़ट घाटी छोड़ने को मनाया-डराया. सरकार का काम था- सुरक्षा देना. किसकी सरकार थी? किसने सुरक्षा नहीं दी? सब दर्ज है. 

कश्मीरी पंडित पढ़े-लिखे हैं. ज़्यादातर अमीर हैं. ज़्यादातर ठीक-ठाक ओहदों और पेशों में हैं. उनकी पीड़ा ऐमप्लिफ़ाई होती है. बाक़ी लोग इसे हिंदू-मुस्लिम बाइनरी में देखते हैं. इस बहाने कश्मीरी और बाक़ी मुसलमानों को गरियाते हैं. 

बाक़ी दंगों में जान बचाकर पलायन करने वाले ज़्यादातर समुदाय ग़ुमनाम हैं. 

कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए हज़ारों करोड़ रुपए का पैकेज केंद्र सरकार ने जारी किया है. बीते 5 साल में ही PMDP के तहत 1080 करोड़ रुपए रोज़गार और 920 करोड़ घर के लिए. बाक़ी, कहीं-कहीं तो मुआवज़ा भी नहीं दिया गया. यह तुलना भी सिर्फ़ स्केल के लिए की गई है.

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एक तथ्य 

देशबन्धु में संपादकीय आज.

द कश्मीर फ़ाइल्स का पूरा सच

कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर बनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है और उम्मीद से ज्यादा कमाई कर रही है। गौरतलब है कि 90 के दशक में जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई थी और बड़ी संख्या में उन्हें अपने घर और ज़मीन से बेदखल होना पड़ा था। इसके पीछे बहुत से राजनैतिक, सामाजिक कारण थे, लेकिन इस मसले की जड़ पर ध्यान देने की जगह इसे सीधे सांप्रदायिक मसला बना दिया गया। इस फ़िल्म में भी समस्या के हर पहलू को परखने की जगह इसे एकतरफा नजरिए से बनाया गया है। शायद फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक की मंशा भी यही हो। वैसे भी फ़िल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की राजनैतिक विचारधारा किसी से छिपी नहीं है। अर्बन नक्सल शब्द भी उन्हीं की देन है।

बहरहाल, कश्मीर हमेशा से भारतीय राजनीति का एक संवेदनशील विषय रहा है। और इस विषय को समझने के लिए व्यापक नज़रिए की ज़रूरत है। इसे काला या सफ़ेद यानी या तो इस पार या उस पार वाले व्यवहार से समझा नहीं जा सकता। यह फिल्म गुजरात और मप्र सहित कई राज्यों में टैक्स फ़्री भी की गई है। इस का प्रचार भी नामी-गिरामी लोग कर रहे हैं और ये बता रहे हैं कि अगर आप भारतीय हैं तो यह फ़िल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए।हालांकि अपनी राष्ट्रीयता और देशप्रेम साबित करने के लिए जनता किसी फिल्म की मोहताज नहीं है।

द कश्मीर फ़ाइल्स 1990 के दौर के उस भयावह समय पर केन्द्रित है, जब आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कीं और उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया गया। हज़ारों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हो गए। 'द कश्मीर फाइल्स' का मुख्य पात्र कृष्णा पंडित नाम का लड़का है, जो दिल्ली में ईएनयू नाम के मशहूर कॉलेज में पढ़ता है। कृष्णा छात्र राजनीति में भी सक्रिय है। कृष्णा के दादा पुष्कर नाथ को 1990 में कश्मीर छोड़ना पड़ा था। वो खुद आतंकियों के अत्याचार के भुक्तभोगी हैं। उनका सपना है कि वो एक बार वापस अपने घर जा सकें। हालात ऐसे बनते हैं कि कृष्णा खुद कश्मीर जाकर देखता है कि वहां क्या चल रहा है। 

इस दौरान उसके अतीत के राज उसके सामने खुलते हैं, जो कश्मीर और उसके अपने जीवन को लेकर उसका नज़रिया बदल देते हैं। फ़िल्म में आतंकवाद के दृश्यों को काफी विस्तार से फिल्माया गया है, जिस वजह से उसका असर दर्शकों पर गहरा पड़ता है। इस फिल्म में अनुपम खेर, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी और मिथुन चक्रवर्ती मुख्य भूमिकाओं में हैं। सभी मंजे हुए कलाकार हैं, इसलिए उनकी अदाकारी में कोई कमी नहीं है। लेकिन बेहतर होता अगर फिल्म में सभी पहलुओं को बराबरी से उठाया जाता।

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर एक और दाग था, जिसे जल्द से जल्द मिटाया जाना था। लेकिन एक बार फिर लोगों की जान को राजनैतिक फ़ायदे के लिए भुनाया गया। 90 से लेकर 2022 तक देश में कई सरकारें आईं और गईं। देश में कांग्रेस का भी शासन रहा और भाजपा का भी। मगर ये समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई और अब इसे पूरी तरह सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई है। बताया जाता है कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म और दर्द की कहानी को पर्दे पर दिखाने के लिए विवेक अग्निहोत्री ने ख़ूब शोध किया। पीड़ितों के बारे में जानकारी जुटाई। लेकिन यह मेहनत कहीं न कहीं इकतरफा ही रही, क्योंकि इसमें तथ्यों को कसौटी पर नहीं परखा गया। 

हाल ही में भारतीय वायु सेना के शहीद 'रवि खन्ना' की पत्नी निर्मला ने 'द कश्मीर फाइल्स' के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की थी। स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना की पत्नी ने अदालत से अपील की है कि फिल्म में उनके पति को दर्शाने वाले दृश्यों को हटाया जाए। उन्होंने दावा किया कि फिल्म में दिखाए गए तथ्य उनके पति के साथ हुई घटनाओं के विपरीत हैं। गौरतलब है कि स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना 25 जनवरी, 1990 को श्रीनगर में शहीद हुए चार वायुसेना कर्मियों में से एक थे। इस याचिका पर अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश दीपक सेठी ने आदेश दिया है कि 'रवि खन्ना की पत्नी द्वारा बताए गए तथ्यों को देखते हुए, फिल्म में से शहीद स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना से संबंधित कार्यों को दर्शाने वाले दृश्य दिखाने पर रोक लगाई जाए।' अदालत का ये आदेश बताता है कि विवेक अग्निहोत्री ने पूरा सच बयां नहीं किया है।

बहरहाल, फिल्म में दिखलाई कहानी पूरा सच नहीं है, क्योंकि इतिहास आधे-अधूरे तथ्यों के साथ पढ़ा नहीं जा सकता। यह याद रखना होगा कि कश्मीर में जिस वक्त नरसंहार और पलायन की घटनाएं हुईं, उस वक्त  केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जो भाजपा के समर्थन से बनी थी। वीपी सिंह सरकार दिसंबर 1989 में सत्ता में आई। पंडितों का पलायन उसके ठीक एक महीने बाद से शुरू हो गया। साल 1990 से लेकर 2007 के बीच के 17 सालों में आतंकवादी हमलों में 399 पंडितों की हत्या की गई। इसी दौरान आतंकवादियों ने 15 हजार मुसलमानों की हत्या कर दी। 

और सबसे बड़ी बात ये कि 90 से पहले देश में अधिकांश समय  कांग्रेस का ही शासन रहा। इस दौरान कभी ऐसी नौबत नहीं आई कि कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़े, लेकिन राम मंदिर के लिए रथयात्रा निकाल कर सत्ता में आने की भाजपा के कोशिशों के बीच यह दुखद अध्याय भी जम्मू-कश्मीर में जुड़ ही गया। आख़िरी बात ये कि इस फिल्म को आपदा की तरह देखना चाहिए, और इस आपदा में अवसर देखने वालों को करारा जवाब जनता को देना चाहिए।

-Surjan palash

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*ये हैं विवेक अग्निहोत्री जिन्होंने ने द कश्मीर फाइल फिल्म बनाई है। लेकिन इन्होंने इस फिल्म को पूरा क्यों नही बनाया जैसे कि* 
*👉🏻(१) उस समय देश में सरकार किसकी थी?*
*👉🏻(२) उस सरकार को किस राजनीतिक पार्टी का समर्थन था ?*
*👉🏻(३) उस समय देश के प्रधान मंत्री कौन थे?*
*👉🏻(४)राष्ट्रपति कौन थे?*
*👉🏻(५)कश्मीर के राज्यपाल कौन थे?*
*इन सारी सच्चाई को क्यों छुपाया गया?*
*क्या ये किसी राजनीतिक पार्टी के समर्थन में फिल्म बनाई गई है या किसी राजनीतिक पार्टी को बदनाम करने के लिए बनाई गई है? इसका जवाब विवेक अग्निहोत्री को जरूर देना चाहिए।*
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