नारी मुक्ति पर फे. एंगेल्स
"…मेरा विश्वास है कि स्त्रियों और पुरुषों के बीच वास्तविक समानता केवल तभी स्थापित हो सकती है जब पूँजी द्वारा किये जाने वाले दोनों के शोषण को मिटा दिया जाय और गृहस्थी के घरेलू काम-काज को एक सार्वजनिक उद्योग बना दिया जाये।"
फ्रेडरिक एंगेल्स (5 जुलाई, 1885 के आसपास गर्टूड जिलामें-शाक के नाम लिखे गये एक पत्र का अंश)
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जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब माँगेंगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी।
*रोजा लग्जमबर्ग*
अंतर्राष्ट्रीय मेहनतकश स्त्री दिवस पर
उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की भट्ठी में
तप रहा लाल लोहा
जिस पर लिखा था
एक अनाम दहकता विद्रोह ।
उस के चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें
नहीं थीं किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उभल आयी सीसे की लहरें ।
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
बल्कि थीं
एक तख़्ती की तरह सपार्ट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
स्पष्ट तौर पर लिखी हुई थीं ।
उसके बाल नहीं थे मुलाइम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिन से नहीं बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक स्वप्न
लेकिन उन में मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए ।
उसके मैले कुचेले ब्लाउज़ में से
न ही झाँकतीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पक्के हुए अनार
बल्कि थीं वे अमृत धाराएं
जिनको पी कर बनते हैं क्रांतिवीर ।
उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मेकानिकी
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक आधार बख़्शने वाले ।
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के
दो गोल टुकड़े
जैसे कोई अफ़्रीकी ग़ुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग आया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
उसकी लोहित-आँखों में
अपनी ज्वालामुखी-आँखें डाल कर .
( " बर्फ़ और आग " कविता संग्रह से)
Nida Nawaz
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