हमें क़ानून की मांग कब करनी चाहिए?
साथी सिद्धांत के लेख के अनुसार क्रांतिकारियों को उन मुद्दों पर क़ानून की मांग नहीं करनी चाहिए जो पूँजीवाद के संकट की ओर ले जाते हैं. जिसमें वे रोज़गार के मुद्दे को आज इस सम्भावना से लैस पाते हैं.
-"रोजगार का विषय सच में एक ऐसा ही विषय है जिसे हमें कानून की लड़ाई की तरफ घसीटने से निस्संदेह बचना चाहिए।"
- "देश में राजनीतिक संकट खड़ा हो सकता है, और ऐसे हालात में अगर समुचित मुद्दा हो, तो इस संकट को हम क्रांतिकारी संकट में भी बदलते देख सकते हैं। हमारा मानना है कि रोजगार का मुद्दा एक ऐसा ही मुद्दा है।"
सबसे पहली बात, यह क्रांतिकारी संकट की लेनिनवादी समझदारी नहीं है. क्रांतिकारी संकट किसी एक मुद्दे से पैदा नहीं होता है बल्कि वह कईं सारे अंतर्विरोधों का संधिबिंदु होता है. क्रान्तिकारी संकट का हिरावल के तैयार होने से सीधा सम्बन्ध नहीं है जैसा पीडीएसएफ़ के साथियों के जवाब में दिख रहा है. यह क्रांति की बेहद बचकानी सी व्याख्या है. दूसरी बात, जो मांग सरकार नहीं दे सकती है उसकी तरफ उसे धकेलना व्यवस्था भंडाफोड़ का अधिकतम कारगर हथियार है क्योंकि यह उसे असम्भाविता की बिंदु की तरफ धकेलता है. फिलहाल के लिए अगर पीडीएसएफ़ के साथियों की बचकानी व्याख्या के खांचे को स्वीकार करते हुए उनके तर्क को बोल्शेविकों द्वारा फरवरी क्रांति के सवाल पर कानूनी लडाई के दृष्टि पर लागू करें तो हम पाते हैं कि बोल्शेविक भयंकर सुधारवादी थे! क्योंकि बोल्शेविकों ने फरवरी क्रांति में उन मुद्दों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी थी जो क्रांतिकारी संकट के प्रमुख कारक थे. इनमें दो प्रमुख मुद्दे थे मजदूरों के जनवादी अधिकार और भूमि सुधार! राष्ट्रीयता के सवाल पर पार्टी की मांग को हम इस जवाब के अगले हिस्से में रखेंगे. इन तीनों ही मुद्दों में पार्टी यह नहीं कह रही थी इन मांगों को क्रान्ति करने के बाद हासिल किया जाएगा बल्कि वह ठोस मांग सरकार के सामने रख रही थी जिसके जरिये वह सरकार को एक्स्पोस कर सके.
परन्तु साथी सिद्धांत के अनुसार बात दूसरी है, वे समझाते हैं कि बेरोज़गारी की समस्या पर क़ानून की मांग करना अवाम में भ्रम पैदा करेगा: "व्यवस्था के समर्थक और व्यवस्था के विरोधी क्या कदम उठा सकते हैं। वह रास्ता जो इस संघर्ष को फ्लेश पॉइंट बनाने से थाम सकता है: वह है कानून बना देने का रास्ता, रोजगार गारंटी कानून बना देने का और आम अवाम में यह भ्रम पैदा करने का रास्ता ताकि वह बता सके कि वह इस समस्याा के प्रति गंभीर है और कुछ करने के लिए उसमें पर्याप्त रूप से संवेदनशीलता मौजूद है।"
व अंत में वे इंद्र के वज्र से रोज़गार गारंटी कानून पर हमला करते हैं:
"यह निश्चित है कि "रोजगार गारंटी कानून" की मांग से शुरू होने वाली रोजगार गारंटी की लड़ाई का सुत्रपात शुरू से ही इस संभावना का गर्भपात करा देगा"
क़ानून की मांग को 'क्रान्ति गर्भपाती मांग' बताने वाली इस बचकानी समझदारी को जरा बोल्शेविक पार्टी की छठवीं कांग्रेस में लेनिन और बोल्शेविक पार्टी द्वारा उठाई मांगों की रौशनी में देखते हैं. ये यही माँगें थी जो फरवरी क्रान्ति के समय संघर्ष का मूल मुद्दा बन गयी थी. लेनिन के द्वारा इस कांग्रेस के समय का विवरण भी देख लेते हैं कि इस समय लेनिन के अनुसार क्या परिस्थिति थी?
"The onset of a political revival is to be noted among broad democratic circles, chiefly among the proletariat. The workers' strikes of 1910–11, the beginning of demonstrations and proletarian meetings, the start of a movement among urban bourgeois democrats (the student strikes), etc., all these are signs of the growing revolutionary feelings of the masses against the June Third regime."
"This Conference points to the extreme importance of that resolution, whose provisions relating to the historical meaning and class essence of the entire June Third regime on the one hand, and the growing revolutionary crisis on the other, have been fully borne out by the events of the past three years."
यहाँ लेनिन ने क्रांतिकारी परिस्थितों के पकने का जिक्र किया है, पी डी एस एफ के साथियों के अनुसार इस परिस्थिति में लेनिन और बोल्शेविक पार्टी द्वारा क्रांतिकारी संकट पैदा करने की सम्भावना रखने वाली मांगों पर क़ानून बनाने की लडाई नहीं लड़नी चाहिए थी.
परन्तु इस कांग्रेस में बोल्शेविक चौथी राज्य दूमा के प्रचार में जिन मुद्दों को चुनाव प्रचार में रखते हैं वे यह हैं:
"This Conference recognises the undoubted necessity for participation by the R.S.D.L. Party in the forthcoming election campaign to the Fourth State Duma, the nomination of independent candidates of our Party and the formation in the Fourth Duma of a Social-Democratic group, which as a section of the Party is subordinated to the Party as a whole.
....The main election slogans of our Party in the forthcoming elections must be:
(1) A democratic republic.
(2) The eight-hour working day.
(3) Confiscation of all landed estates.
In all our election agitation it is essential to give the clearest possible explanation of these demands, based on the experience of the Third Duma and all the activities of the government in the sphere of central as well as local administration.
All propaganda on the remaining demands of the Social-Democratic minimum programme, namely: universal franchise, freedom of association, election of judges and officials by the people, state insurance for workers, replacement of the standing army by the arming of the people, and so on, must be inseparably linked with the above-mentioned three demands."
साथ ही वे दूमा के अन्दर मौजूद दूमा धड़ा के साथियों द्वारा उठाई जाने वाली मांगों के बारे में भी लिखते हैं:
"Further more, the central slogans, which must be common to all statements made by members of the Social-Democratic group, must determine the nature of its work and concentrate all its partial demands and reforms on the main points, should be the following three slogans: (1) a democratic republic, (2) the eight-hour day, (3) confiscation of all landed estates and their transfer to the peasantry."
यहाँ लेनिन जिन सुधारों और आंशिक मांगों की बात कर रहे हैं वे दूमा धड़ा द्वारा उठाने की बात कर रहे हैं. यानी दूमा द्वारा कानून बनवाने हेतु व क्रांतिकारी प्रचार हेतु! इस कांग्रेस द्वारा पारित 'resolution' को सातवीं कांग्रेस तक लागू किया गया. फरवरी क्रांति का इतिहास बताता है कि भूमि सुधार वा मजदूरों के जनवादी अधिकारों की माँगें जनता के जारशाही के खिलाफ सड़क पर उतर पड़ने का कारण बनी. परन्तु पीड़ीएसएफ के साथियों के अनुसार तो ये माँगें खुले सिरे पर छोड़ देनी चाहिए और ऐसे नारों को लगाकर जनता को यह नहीं बताना चाहिए कि रोज़गार की मांग हम लोग किससे कर रहे हैं? बोल्शेविकों को कुछ भी 'concrete' नहीं करना था! आप सरकार के साथ टेबल पर बैठेंगे या नहीं या सीधे सत्ता की मांग करेंगे यह नहीं बताएँगे! आप यह भी नहीं बताएँगे कि यह अभियान किसके खिलाफ है? आपके पोस्ट से प्रतीत होता है शायद पूँजीवाद से ही सीधे मांग रहे हैं! ऐसे में जनता ही आपसे पूछेगी कि 'भैया' "जब स्वयं तुम्हें यह नहीं पता है कि पूर्ण रोजगार पाने का सही रास्ता रास्ता क्या है, तो हटो मुझे अपने रास्ते जाने दो।" खैर पुनः आपको नाराज़ करते हुए क्रांतिकारी जन संघर्ष पर लेनिन के इस उद्धरण से जवाब के पहले हिस्से की बात ख़त्म कर रहा हूँ जिसमें वे आपकी खुली और 'ओपन एंडेड' बातों के इतर 'concrete aim' को निर्धारित करने की बात करते हैं.
"What is the aim of revolutionary mass struggle? The party has made no official statement, nor is the question being discussed in general. It is either taken for granted, or frankly admitted, that the aim is "socialism". Socialism is being opposed to capitalism (or imperialism). That, however, is absolutely illogical (theoretically) and void of all practical meaning. Illogical because it is too general, too nebulous. "Socialism" in general, as an aim, as the opposite of capitalism (or imperialism), is accepted now not only by the Kautsky crowd and social-chauvinists, but by many bourgeois social politicians. However, it is no longer a matter of contrasting two social systems, but of formulating the concrete aim of the concrete "revolutionary mass struggle" against a concrete evil, namely, the present high cost of living, the present war danger or the present war." (Lenin, Carricature of Marxism)
और बस संघर्ष को तेज करते जाने के खोखले नारे पर लेनिन ने यह लिखा था:
"Intensification of the struggle is an empty phrase of the subjectivists, who forget the Marxist requirement that every slogan be justified by a precise analysis of economic realities, the political situation and the political significance of the slogan. It is embarrassing to have to drive this home, but what can one do? We know the Alexinsky habit of cutting short a theoretical discussion of a theoretical question by propaganda outcries. It is a bad habit." (Lenin, Carricature of Marxism)
लौट के बुद्धू घर को आये – अतिवामपंथी बचकानेपन के मरीज पीडीएसएफ के कॉमरेडों की एक और पलटी
पीडीएसएफ के साथियों ने एक नया जवाब (लिंक - https://www.facebook.com/sidd1917/posts/2119966351353575 ) दिया है और एक बार फिर यह लोग बिंदुवार जवाब देने से बच निकले हैं क्योंकि इनको अपनी पोजीशन चेंज करनी थी और अपनी हास्यास्पद मूल पोजीशन पर जाना था। कोई व्यक्ति या संगठन गलत तर्क का समर्थन करते हुए किस हद तक अवसरवादिता पर उतर सकता है, ये पूरी बहस उसका एक उदाहरण है। बार-बार तार्किक तरीके से बिंदुवार जवाब देने की बजाय हर नयी पोस्ट में पलटी मारने के इनके रिकॉर्ड को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि अगर इनको ओलम्पिक में भेजा जाये तो ये जिम्नास्टिक का मैडल जीत लेंगे।
1. अब ये एक नयी बात बोल रहे हैं। सबसे पहले इन्होने कहा था कि रोजगार गारण्टी कानून के लिए नहीं लड़ा जा सकता, बाद में इन्होने कहा कि रोजगार गारण्टी कानून के लिए लड़ा जा सकता है पर महज कानून के लिए नहीं लड़ा जा सकता (वैसे भी सिर्फ कानून के लिए लड़ने की बात कोई कर भी नहीं कर रहा था पर इन्हें तो काल्पनिक दुश्मन पर कमजोर तीर चलाने की जल्दी थी) और अब ये कह रहे हैं कि रोजगार गारण्टी कानून के लिए नहीं लड़ा जा सकता है क्योंकि अगर इस मुद्दे पर कानून बनाने के लिए लड़ेंगे तो शासक वर्ग कानून बना देगा और उस प्रक्रिया में क्रान्तिकारी संकट की घड़ी बीत जायेगी। यानि अब इनका कहना ये है कि जिस मसले पर क्रान्तिकारी संकट पैदा हो उस मसले पर कानून बनाने के लिए नहीं लड़ना चाहिये। ये तर्क भी विचित्र तर्क है क्योंकि क्रान्तिकारी संकट का कारण कोई एक मुद्दा नहीं होता है। अगर क्रान्तिकारी संकट की लेनिन की परिभाषा पढ़ें तो वो ये है कि व्यवस्था के अर्न्तविरोधों का एक संधिबिंदु क्रान्तिकारी संकट की परिस्थिति उत्पन्न करता है। इसलिए क्रान्तिकारी संकट की इनकी सोच ही बचकानी है।
2. ये कहना भी गलत है कि जिस मुद्दे या जिन मुद्दों की वजह से क्रान्तिकारी संकट पक सकता है उन मुद्दों पर कानून मांगने से संकट हट जायेगा। एक पल को अगर इनकी समझदारी मान भी लें कि रोजगार की वजह से क्रान्तिकारी संकट पैदा होता है तो भी देश की सारी जनता सीधे समाजवादी क्रान्ति करने के लिए तो तैयार नहीं होगी। ऐसे में आप देश के युवाओं को रोजगार के सवाल पर एकजुट करेंगे। क्रान्तिकारी संकट का मतलब ही है कि अर्न्तविरोध तीखे हो गये हैं और उसमें क्रान्तिकारी हस्तक्षेप का मतलब ये है कि उसमें अर्न्तविरोधों को ओर तीखा किया जाय। क्योंकि मार्क्स के अनुसार अर्न्तविरोधों को हल करने का तरीका यही होता है कि अर्न्तविरोधों को ओर तीखा किया जाय। क्रान्तिकारी संकट में तीखा हो चुके अर्न्तविरोधों को हल करने के लिए आप क्या करेंगे? आप छात्रों-युवाओं का आन्दोलन करेंगे और सारे छात्र युवा सीधे समाजवाद के लिए तो लड़ेंगे नहीं। वो एक ठोस हक के लिए लड़ेंगे और ठोस हक के लिए आप एक ठोस आन्दोलन खड़ा करेंगे। हम फिर दुहराते हैं कि उस ठोस आन्दोलन की मांग क्या होगी? आप घुम फिरकर कुण्डलाकार गति से ओर नीचे जाते हुए अपनी पुरानी अवस्थिति पर आ गये हैं इसलिए आपसे एक बार फिर वही सवाल – आप संकट की घड़ी में ठोस आन्दोलन किसके विरुद्ध करेंगे और उस मांग क्या होगी?
3. आपकी बातों से ये तो स्पष्ट है कि आप इन दो मुद्दों को एक्सक्लुजिव मानते हैं कि अगर आप कानून के लिए लड़ेंगे तो आप पूंजीवाद के खिलाफ व्यवस्था विरोधी प्रोपेगेंडा नहीं कर सकते। कानून मांगते ही आप सुधारवादी हो जाएंगे। जब कि यह 2 चीजें एक्सक्लूसिव है ही नहीं। आप कानून मांगकर भी और कानून के लिए लड़ कर भी (जो कि लड़ाई का पहला कदम बनता है) व्यवस्था का भण्डाफोड़ कर सकते हैं। किसी भी इस तरह की ठोस मांग पर आप पहले तो कानून ही मांगते हैं। आपका लॉजिक फिर से वही आ गया है कि कानून मांगना गलत है। बस अब आप इसपर एक चीज जोड़ रहे हैं कि जो मुद्दा व्यवस्था को अंत कारी संकट की ओर ले जा सकता है उस पर कानून मांगना गलत है। बाकी मुद्दों पर आप मानते हैं कि कानून मांगा जा सकता है। कुल मिलाकर आप की पोजीशन वही है और बात अब आ गई है कि रोजगार एक ऐसा मुद्दा है जिस पर संकट पैदा हो सकता है और इस मुद्दे पर कानून मांगना सुधारवाद हो जाएगा। यह भी गलत है। मार्क्स का उद्धरण जो हमने पहले जवाब में दिया था, हम फिर दोहरा रहे हैं जिसमें उन्होंने एक बहुत ही साहित्यिक अभिव्यक्ति देते हुए कहा था कि अटलांटिक के दोनों तरफ यानी अमेरिका और यूरोप के महाद्वीप में दोनों तटों पर केंद्रीय लड़ाई यह है कि काम के आठ घंटे का हक मिलना चाहिए। इसी हक के लिए शिकागो के मजदूर आंदोलन से लेकर अलग-अलग मजदूर आंदोलन लड़ रहे थे तो क्या इसको सुधारवाद कहा जाएगा। मार्क्स ने कहा है कि इस समय पूरी दुनिया के पूंजीपति मजदूरों का अतिरिक्त श्रम काल ज्यादा चाहते हैं और यह पूंजीवादी व्यवस्था के केंद्रीय तर्क का सवाल है, यह उनके अस्तित्व का सवाल है कि अतिरिक्त श्रम काल बढ़ाओ और इससे मुनाफा बढ़ेगा। मार्क्स कहते हैं कि मजदूर वर्ग के सबसे अहम मुद्दों में से एक है और यह सालों तक अहम मुद्दा बना रहा और मजदूरों ने खून देकर यह हासिल किया। तो क्या वह आपके हिसाब से केंद्रीय मसला नहीं था और अगर वह केंद्रीय मसला था तो उस पर कानून मांगना क्या सुधारवाद नहीं है? मार्क्स ने कहा है कि वह एक संगीन मसला था और श्रम और पूंजी के अंतर्विरोध का केंद्र बिंदु बन गया है क्योंकि जो भी संकट केंद्रीय होता है वह पूंजी और श्रम के अंतर्विरोध की वजह से ही पैदा होता है
''The establishment of a normal working day is the result of centuries of struggle between capitalist and labourer. The history of this struggle shows two opposed tendencies. Compare, e.g., the English factory legislation of our time with the English labour Statutes from the 14th century to well into the middle of the 18th''
आगे मार्क्स लिखते हैं,
''The history of the regulation of the working day in certain branches of production, and the struggle still going on in others in regard to this regulation, prove conclusively that the isolated labourer, the labourer as "free" vendor of his labour-power, when capitalist production has once attained a certain stage, succumbs without any power of resistance. The creation of a normal working day is, therefore, the product of a protracted civil war, more or less dissembled, between the capitalist class and the working-class. As the contest takes place in the arena of modern industry, it first breaks out in the home of that industry – England. The English factory workers were the champions, not only of the English, but of the modern working-class generally, as their theorists were the first to throw down the gauntlet to the theory of capital. Hence, the philosopher of the Factory, Ure, denounces as an ineffable disgrace to the English working-class that they inscribed "the slavery of the Factory Acts" on the banner which they bore against capital, manfully striving for "perfect freedom of labour."(ठीक उसी प्रकार जैसे आज मोदी श्रम कानूनों में बदलाव को ''श्रम करने की स्वतन्त्रता'' के लिए आवश्यक बता रहा है) France limps slowly behind England. The February revolution was necessary to bring into the world the 12 hours' law, which is much more deficient than its English original. For all that, the French revolutionary method has its special advantages. It once for all commands the same limit to the working day in all shops and factories without distinction, whilst English legislation reluctantly yields to the pressure of circumstances, now on this point, now on that, and is getting lost in a hopelessly bewildering tangle of contradictory enactments. On the other hand, the French law proclaims as a principle that which in England was only won in the name of children, minors, and women, and has been only recently for the first time claimed as a general right. In the United States of North America, every independent movement of the workers was paralysed so long as slavery disfigured a part of the Republic. Labour cannot emancipate itself in the white skin where in the black it is branded. But out of the death of slavery a new life at once arose. The first fruit of the Civil War was the eight hours' agitation, that ran with the sevenleagued boots of the locomotive from the Atlantic to the Pacific, from New England to California. The General Congress of labour at Baltimore (August 16th, 1866) declared: "The first and great necessity of the present, to free the labour of this country from capitalistic slavery, is the passing of a law by which eight hours shall be the normal working day in all States of the American Union. We are resolved to put forth all our strength until this glorious result is attained." At the same time, the Congress of the International Working Men's Association at Geneva, on the proposition of the London General Council, resolved that "the limitation of the working day is a preliminary condition without which all further attempts at improvement and emancipation must prove abortive... the Congress proposes eight hours as the legal limit of the working day." (This was formulated by Marx himself) Thus the movement of the working-class on both sides of the Atlantic, that had grown instinctively out of the conditions of production themselves...It must be acknowledged that our labourer comes out of the process of production other than he entered. In the market he stood as owner of the commodity "labour-power" face to face with other owners of commodities, dealer against dealer. The contract by which he sold to the capitalist his labour-power proved, so to say, in black and white that he disposed of himself freely. The bargain concluded, it is discovered that he was no "free agent," that the time for which he is free to sell his labour-power is the time for which he is forced to sell it, that in fact the vampire will not lose its hold on him "so long as there is a muscle, a nerve, a drop of blood to be exploited."
आगे मार्क्स हर भ्रम का निवारण करते हुए लिखते हैं:
''For "protection" against "the serpent of their agonies," the labourers must put their heads together, and, as a class, compel the passing of a law, an all-powerful social barrier that shall prevent the very workers from selling by voluntary contract with capital, themselves and their families into slavery and death. In place of the pompous catalogue of the "inalienable rights of man" comes the modest Magna Carta of a legally limited working day, which shall make clear "when the time which the worker sells is ended, and when his own begins." Quantum mutatus ab illo! [What a great change from that time! – Virgil]'' (All quotes from Chapter - X, Working Day, 'Capital' Volume-I)
आपका यह सोचना गलत है कि कानून मानना और उसके लिए क्रांतिकारी लड़ाई लड़ना एक्सक्लूसिव है और दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं अब तक का वर्ग संघर्षों का इतिहास बताता है कि केंद्रीय संकट के मसलों पर जब भी मजदूर वर्ग ने लड़ाइयां लड़ी है तब लेजिस्लेशन यानी कानून की लड़ाई एक महत्वपूर्ण अंग रही है। हम आपसे उल्टा बोलते हैं कि रोजगार की गारंटी के कानून की मांग करना पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को कहीं ज्यादा तेज करेगा क्योंकि हम जानते हैं कि पूंजीवादी समाज में सब को रोजगार देना संभव नहीं है और ऐसे में अगर आप ऐसा लेजिस्लेशन मांग रहे हैं तो पहले तो सरकार इसको देने से ही कतराएगी। दुनिया में भी बहुत कम देश किंसियन वेलफेयर के दौर में थे जो रोजगार गारंटी कानून देते थे। जिसमें यह था कि अगर किसी के पास रोजगार नहीं है तो सरकार उसे राशनिंग देती थी या बेरोजगारी भत्ता देती थी। आज दुनिया के किसी भी देश में अगर अपवाद छोड़ दिया जाए तो रोजगार गारंटी का कोई कानून नहीं है। रोजगार गारंटी का कानून सरकार बना देगी इसको आप जितना सहज मानते हैं इतना सहज है ही नहीं। जनबल और वर्ग संघर्ष के तीखे होने पर उसे बनवाया तो जा ही सकता है लेकिन आप मानते हैं कि बनने के साथ ही जनता घर बैठ जाएगी। यह जनता को बहुत बेवकूफ और अपने आप को बहुत सयाना मानने की प्रवृत्ति है कि जनता को कानून मिलते ही सारी जनता बेवकूफ बन जाएगी। जनता बोल देगी कि अब तो हमें सरकार ने कानून दे दिया अब हम क्या कर सकते हैं। यह कैसी नादानी की बात है। जनता इतने कानूनों के अपने अनुभव से जानती है कि कानून के बनने से लड़ाई खत्म नहीं होती है लेकिन लड़ाई के पहले चरण में आपको कानून तो मांगना ही पड़ेगा। लेजिस्लेशन रोजगार के लिए लड़ाई और इस व्यवस्था के भंडाफोड़ को अवरुद्ध नहीं करता है, कहीं उसे सुधारवादी गड्डे में नहीं ले जाता बल्कि व्यवस्था के संकट को और ज्यादा तीखा करता है और जनता की राजनीतिक चेतना का ओर ज्यादा स्तरोन्नयन करता है।
4. अब आप सीधे सीधे हम लोगों को खुलकर सुधारवादी कह रहे हैं। यह अच्छी बात है लेकिन सुधारवाद की जो परिभाषा अब तक इस बहस में उठी है लेनिन के मुंह से और अन्य महान शिक्षकों के मुंह से उस परिभाषा के अनुसार हम कैसे सुधारवादी हैं यह तो समझ नहीं आ रहा है ना आप लिख रहे हैं। आपने सुधारवाद की नई-नई परिभाषा रची है कि संकट के केंद्र बिंदु वाले मुद्दे पर कानून बनाना सुधारवाद है। आपको इसका क्लेम करना चाहिए कि आपने मार्क्सवाद में नया इजाफा किया है।
5. एक जगह आप सवाल उठाते हैं कि अगर रोजगार गारंटी कानून बन गया और आप उसको लागू करने की लड़ाई लड़ेंगे तब तक क्रांतिकारी घड़ी बीत जाएगी। इस क्रांतिकारी घड़ी के निर्धारण के लिए आपने कौनसी धूपघड़ी बनाई है जिससे आप पता लगा रहा है। क्रांतिकारी घड़ी कोई ऑटोमेटिक चीज नहीं होती है। क्रांतिकारी संकट में वस्तुगत परिस्थितियों और आत्मगत परिस्थितियों दोनों का योगदान होता है। इसलिए यह भी सोचने वाली बात है कि क्रांतिकारी घड़ी आ जाएगी, जिसका जिक्र आप बार-बार कर रहे हैं तो कौन सी तर्क पद्धति से निर्धारण कर रहे हैं? आप इस बहस में बुरी तरह फंस गए हैं इसलिए आपको किसी तरह यह बात लानी है कि रोजगार के मुद्दे पर क्रांतिकारी संकट आने वाला है! अगर ये भी मान लें तो क्या जिन मुद्दों से क्रांतिकारी संकट पैदा होता है उन मुद्दों पर मार्क्सवादियों ने कभी कानून की मांग नहीं की? साथी सनी ने अपनी एक हालिया पोस्ट (लिंक - https://www.facebook.com/sunnydisha/posts/10211685587802597 ) में लेनिन के उद्धरण दिये हैं जिसमें उन्होंने दिखाया है कि रूसी पार्टी उन मुद्दों पर भी लेजिस्लेशन के लिए लड़ रही थी थी जिनसे संकट बढ़ता है। आपने सुधारवाद की ये जो मजाकिया परिभाषा गढ़ी है उसके हिसाब से रूसी पार्टी भी सुधारवादी हो गई।
इन दोनों मुद्दों को एक्सक्लूसिव मानना यानी कि "कानून बन गया तो काम खत्म और यह सुधारवाद है" ये आप अपने पुराने लॉजिक पर वापस चले गए हैं। आप हमसे पूछते हैं कि कानून बन गया तब क्या। जब सरकार के साथ टेबल पर वार्ता होगी और सरकार मान जाएगी कानून बनाने के लिए तो हम बिल्कुल कहेंगे कि कानून बनाइए और तब हम इसके लिए लड़ेंगे कि उस कानून के प्रावधान ऐसे हों जिस में चोर दरवाजे ना उत्पन्न हो। उसके साथ हम इस चीज के लिए भी लड़ेंगे कि लागू करने की मशीनरी efficient होनी चाहिए। इसके बाद हम इसके लिए भी लड़ेंगे कि जो मशीनरी खड़ी होती है वह कानून को लागू करवाए। सिर्फ हमारे समझाने से ही जनता यह नहीं समझती है बल्कि जनता अपने वर्गीय अनुभव से समझती है कि कानून बनाने से लड़ाई खत्म नहीं होती और जनता यह भी समझती है कि कानूनों की लड़ाई लड़े बिना क्रांतिकारी लड़ाई भी आगे नहीं बढ़ती है। लेकिन आपके लिए ये एक्सक्लूसिव है।
6. आपके अनुसार जब सरकार मान जाए, टेबल पर आ जाए तो आपके अनुसार आप क्या सरकार से समाजवाद मांगेंगे?
पूंजीवादी व्यवस्था को संभाव्यता के संतृप्त बिंदु पर पहुंचाने के लिए, उसके अंतर्विरोधों को तीखा करने के लिए हम सरकार के सारे वादों के साथ अतिअभिज्ञान करते हैं। जिस चीज का सरकार वायदा करती है उसको तो हमें कसकर पकड़ लेना चाहिए। वास्तव में कानून बनाने से पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध सुलझेंगे नहीं। आपका यह मानना कि नौजवानों व मजदूरों के पक्ष में ऐसा रोजगार गारण्टी कानून बनाने से अंतर्विरोध सुषुप्त हो जाएंगे, भोथरे हो जायेंगे। बात उल्टी होगी। इससे अंतर्विरोध तीखे होंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे 8 घंटे की कानून की वजह से अंतर्विरोध तीखे हुए और मार्क्स ने दिखलाया कि कैसे तीखे हुए और क्यों तीखे हुए। आपका यह कहना कि तीखे हो सकते हैं लेकिन क्रांतिकारी घड़ी निकल जाएगी तो साथी अपनी घड़ी बदल लीजिए। आपकी घड़ी का डायल पैड खराब है। आप पटना में बैठकर जो क्रांतिकारी घड़ी निर्धारित कर रहे हैं, क्रांतिकारी घड़ी ऐसे नहीं मिल सकती। इसको लेकर थर थर कांपना बंद कर दीजिए कि अब तो कानून बन गया और अब तो क्रांतिकारी घड़ी निकल जाएगी। उसके लिए इतना परेशान मत होइए। कानून बनने की प्रक्रिया, कानून को लागू करने की प्रक्रिया और कानून के लागू होने की सूरत में व्यवस्था के भंडाफोड़ की प्रक्रिया से ही क्रांतिकारी संकट की घड़ी आएगी। ऐसे तमाम मुद्दों पर सरकार से पहले कानूनी अधिकार के लिए लड़ना होगा और जब कानूनी अधिकार मिल जाए तो उसे लागू करवाने के लिए लड़ना हो और इस प्रक्रिया में उसकी असफलता के जरिए और जनता के सामने इसको ठोस वर्गीय अनुभवों से स्पष्ट करना कि हम जो प्रोपेगंडा कर रहे हैं वह सही था, कि हम जिस समाजवादी व्यवस्था की बात कर रहे हैं वह सही है। आपकी Facebook पोस्ट से जनता नहीं समझ जाएगी। इसलिए कानून बनवाना, कानून बनाने के बाद लागू करवाना और लागू न होने की सूरत में पूंजीवादी वैधता की सीमाओं को स्पष्ट करना, इसी प्रक्रिया में क्रांतिकारी घड़ी को करीब लाया जा सकता है। चे ग्वेरा ने कहा था कि क्रांति कोई सेब नहीं होती है जो पक कर आपके हाथ में गिर जाएगी, उसको गिराना पड़ता है।
7. आप बोल रहे हैं कि रोजगार के मुद्दे के लिए लड़ना सही है पर उसके लिए कानून नहीं मांगना चाहिए तो इसका अर्थ यह है कि रोजगार के मुद्दे पर एक ऐसा आंदोलन हो जो सीधे समाजवाद की मांग करता हो। क्योंकि फिर आप क्या मांग रहे हैं और किस से मांग रहे हैं? आपके अनुसार यह एक संकट का मुद्दा है और इस मुद्दे पर एक ऐसा आन्दोलन करना चाहिए जो सीधे समाजवाद की मांग करता हो। यह ख्याली पुलाव पकाना है, मंसूबावाद है और शेखचिल्ली वाद है। इस तरह के मंसूबावाद शेखचिल्लीवाद और अल्ट्रा लेफ्ट फ्रेजमोंगरिंग से आज तक आंदोलनों को नुकसान ही हुआ है।
8. एक जगह खीज में आकर आप लिख रहे हैं कि कुछ लोग क्रांति की कल्पना भी ठोस रूप में नहीं कर पाते हैं और उसके लिए भी शायद कानून मांगते हैं। सब जानते हैं कि क्रांति आसमान से नहीं टपकती और फिर अपने कानूनों को नहीं बनाती है, क्रांति तक पहुंचने की प्रक्रिया में आपको सारे मध्यवर्ती सुधारों के लिए व सुधारों के कानूनों के लिए लड़ना पड़ेगा। आप मानकर चल रहे हैं कि सीधे क्रांति आ जाएगी, किसी मध्यवर्ती मांग के लिए लड़ना जरूरी नहीं है, उसके कानून के लिए लड़ना जरूरी नहीं है। आप जैसे शेखचिल्लीवादी सिर्फ क्रांति की कल्पना कर पाते हैं और इसकी कल्पना ही नहीं कर पाते हैं कि क्रांति तक पहुंचने के लिए ऐसी लड़ाइयां अनिवार्य और अपरिहार्य हैं और यही पर आपका वामपंथी बेवकूफाना नजरिया एकदम प्रकट हो जाता है।
9. आपकी तरह के मंसूबावादियों की एक और आदत होती है कि वह सेलेक्टिव बात करते हैं, अपनी सहूलियत से तथ्यों और तर्कों का चयन करते हैं और सेलेक्टिव तरीके से चयन करके कुछ भी दिखाते हैं। साथी एमके आजाद का आपने पोस्ट डाला है लेकिन उस पर एक पूरी बहस हुई थी उसका कोई जिक्र नहीं किया और उसको आपने गायब कर दिया।
10. अंत में कह सकते है कि आपकी पूरी सोच ही अधकचरा मूर्खतापूर्ण भयंकर सोच है और इस तरह की अति वामपंथी सोच से आंदोलन का नुकसान ही हुआ है।
पीडीएसएफ के साथियों कहना क्या चाहते हो?
हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आपकी पूरी पोस्टों में आप क्या बात कहना चाहते हैं? लगातार वही बात याद आती है जो सत्या ने अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि आपकी बात ऐसी है जैसे "snake is chasing its own tail", क्योंकि लगातार आप अपनी गलती को स्वीकार करने की जगह कुतर्कों का जाल बुन रहे हैं. एक कुतर्क को बचाने के लिए आपको नए कुतर्क गढ़ने पड़ रहे हैं. (snake is chasing its own tail की इमेजरी से 1901 में केकुले ने बेंजीन (an organic compound) की संरचना बताई थी परन्तु पीडीएसएफ के साथी बस एक उलझा हुआ जंजाल खोज पाए हैं!). अब हम पीडीएसएफ के साथियों की पोस्ट को सबके बीच रखेंगे जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे किस तरह लगातार पैंतरापलट करते रहे हैं. इनकी अवस्थिति में यह विपरीत तत्वों की एकता नहीं बल्कि उलझे व स्व-विरोधी तर्कों का जंजाल है. इस भूलभूलैया को हम 3 co-ordinates (इससे ज्यादा भी देखा जाना मुमकिन है पर फिलहाल!) से उनकी अलग-अलग अवस्थितियाँ देखें तो इस जंजाल की उलझन की गहरायी को समझ सकते हैं:
1. प्रथम co-ordinate
प्रथम अवस्थिति
"हमारे बीच मौजूद दो अलग-अलग धाराओं (इसे ठीक-ठीक सुधारवादी धारा और क्रांतिकारी धारा कहना जल्दीबाजी होगी, बहस के क्रम को आगे बढ़ाने से ही पता चलेगा कि कौन क्या है) के बीच कुछ हद तक तीक्ष्ण बहस का रूप अखितयार कर चुका है।"
द्वितीय अवस्थिति
"सुधारवादियों के सठियाये दिमाग में यह कभी नहीं आ सकता है कि रोजगार गांरटी के लिए संघर्ष का कोई और ठोस परिणाम भी निकल सकता है!! वह किसी रोजगार कार्यालय के दुनियादारीपरस्त क्लर्क की तरह बात करता है और दावा करता है कि उससे ज्यादा समझदार आखिर कौन है।"
तृतीय अवस्थिति
"साथी Ak Bright, हम एक जनरल बहस चला रहे हैं बेरोज़गारी और 'सुधार के लिए व सुधारवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष' जैसे मुद्दे पर। इसका किसी भी संगठन से कोई लेना देना नहीं है। हम अपने इन पोस्ट्स से किसी संगठन को जवाब नहीं दे रहे हैं।"
2. द्वितीय co-ordinate
प्रथम अवस्थिति
-"कानून बन जाने से यह परिस्थिति बदल नहीं जाती है बल्कि इसके विपरीत कानून बनने के बाद भी रोजगार नहीं मिलने से और भी अधिक निराशा फैलती है" (खुशबू उपाध्याय)
- "अगर गारंटी कानूनों के लिए लड़ाई लेने को हम क्रांतिकारी कदम मान लें तो यह गलत होगा"(आकांशा प्रिय)
द्वितीय अवस्थिति:
"पहली बात यह कि इसमे कहीं नहीं कहा गया है कि रोजगार गारंटी के लिए कानून मांगना सुधारवाद है।"
"साथी अजय के ऊपर के कमेन्ट से यह तो स्पष्ट है कि इन्होने यह कतई नहीं कहा है कि कानून बनाने के लिए लड़ना गलत है या सुधारवादी कदम है। हाँ, यह जरूर कहा है कि "महज़" कानून बनाने के लिए लड़ना सुधारवादी है।"
"और अभी तक हमने उनके द्वारा चलाये जा रहे "भगत सिंह रोजगार गारंटी कानून" की आलोचना करने का फिलहाल न तो कोई फैसला लिया है और न ही कोई ऐसा इरादा व्यक्त किया है।"
तृतीय अवस्थिति
"यह भी सही है कि सुधारों के लिए लड़ना हमारे मास वर्क का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन यहाँ हम यह जोड़ना जरूरी मानते हैं कि सुधारों के लिए संघर्ष और सुधारवाद तथा सुधारवादियों के खिलाफ संघर्ष एक दूसरे में गूंथे हुए हैं, इस तरह की हम उन्हें अलग-अलग करके नहीं देख सकते हैं।"
चतुर्थ अवस्थिति
-"रोजगार का विषय सच में एक ऐसा ही विषय है जिसे हमें कानून की लड़ाई की तरफ घसीटने से निस्संदेह बचना चाहिए।"
-सरकार के पास "दूसरा रास्ता यह है कि वह युवाओं और बेरोजगारों को झांसा दे। धोखा दे। लेकिन किस तरह? उसके पास फिलहाल एक जांचा-परखा रास्ता है। वह है कानून बना देने का रास्ता, रोजगार गारंटी कानून बना देने का और आम अवाम में यह भ्रम पैदा करने का रास्ता ताकि वह बता सके कि वह इस समस्याा के प्रति गंभीर है और कुछ करने के लिए उसमें पर्याप्त रूप से संवेदनशीलता मौजूद है।"
-"यहाँ हम अगर थोड़ा गौर करें तो पायेंगे कि रोजगार का मुद्दा ऐसा है जिस पर क्रांतिकारी विस्फोट पैदा करने की क्षमता है।..... "रोजगार गारंटी कानून" की मांग से शुरू होने वाली रोजगार गारंटी की लड़ाई का सुत्रपात शुरू से ही इस संभावना का गर्भपात करा देगा"
3. तृतीय co-ordinate
प्रथम अवस्थिति
"और भी ठोस जवाब जैसा आप चाहते हैं वो भी दूंगी"
"आपके पोस्ट के सारे सवाल का बिंदुवार जवाब ही दूंगी। बिंदुवार सवाल लिखने में आपको काफी समय लगा है। इसका बिंदुवार जवाब लिखने के लिए भी थोड़ा समय लगेगा। साथ ही इस बहस का मैं और मेरा संगठन दोनों स्वागत करते हैं।"
दूसरी अवस्थिति
"आज की ठोस परिस्थितियों के मद्देनजर सुधार और सुधारवाद को लेकर अपनी समझ को अद्यतन बनाते हुए, हमे अपनी सम्पूर्ण समझ रखने की जरूरत है। लेकिन वह कहीं से भी एनबीएस को जवाब के रूप में नहीं होगा। उनके आरोप और जवाब हमारे द्वारा respond किए जाने लायक ही नहीं हैं। और अभी तक हमने उनके द्वारा चलाये जा रहे "भगत सिंह रोजगार गारंटी कानून" की आलोचना करने का फिलहाल न तो कोई फैसला लिया है और न ही कोई ऐसा इरादा व्यक्त किया है।"
तीसरी अवस्थिति
सुधारों की सीमा बताये बिना, क्रांतिकारी बदलाव की जरूरतों पर समुचित जोर दिये बिना, पूँजीवाद को पलटने की अपरिहार्यता पर समुचित रूप से बल दिये बिना महज सुधारों के लड़ना अवश्य ही सुधारवाद में जा फंसना है और जाने या अनजाने सुधारवाद की दलदल में मुंह के बल गिर जाने का रास्ता है।
चतुर्थ अवस्थिति
"सुधारवादियों के सठियाये दिमाग में यह कभी नहीं आ सकता है कि रोजगार गांरटी के लिए संघर्ष का कोई और ठोस परिणाम भी निकल सकता है!! वह किसी रोजगार कार्यालय के दुनियादारीपरस्त क्लर्क की तरह बात करता है और दावा करता है कि उससे ज्यादा समझदार आखिर कौन है।"
"साथी Ak Bright, हम एक जनरल बहस चला रहे हैं बेरोज़गारी और 'सुधार के लिए व सुधारवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष' जैसे मुद्दे पर। इसका किसी भी संगठन से कोई लेना देना नहीं है। हम अपने इन पोस्ट्स से किसी संगठन को जवाब नहीं दे रहे हैं।"
-पीड़ीएसएफ के साथियों की बहस से बचने का प्रयास: पहला co-ordinate
सबसे पहली अवस्थिति में साथी खुशबू कहती हैं कि अभी वे इस बहस में बिगुल के साथियों को सुधारवादी नहीं कह रही हैं और दूसरी अवस्थिति में यह कहने तक आ गयी हैं कि हम सुधारवादी हैं पर इसे खुल कर नहीं बोल पा रही हैं. व इस उपाधि के साथ वे कईं विशेषणों का इस्तेमाल करती हैं. "सुधारवादियों के सठियाये दिमाग में यह कभी नहीं आ सकता है कि रोजगार गांरटी के लिए संघर्ष का कोई और ठोस परिणाम भी निकल सकता है!! वह किसी रोजगार कार्यालय के दुनियादारीपरस्त क्लर्क की तरह बात करता है और दावा करता है कि उससे ज्यादा समझदार आखिर कौन है।" खैर इस बात को कहने के बाद वे यह भी कहते हैं कि "इसका किसी भी संगठन से कोई लेना देना नहीं है। हम अपने इन पोस्ट्स से किसी संगठन को जवाब नहीं दे रहे हैं।" अब वे खुद तय कर लें और बताएं कि वे कहना क्या चाहती हैं? क्या यह लगातार अपनी अवस्थिति बदलना नहीं है? अवस्थिति बदलने के लिए आप इसलिए मजबूर हो रहे हैं क्योंकि आपके पास जवाब नहीं है परन्तु अपनी गलती स्वीकार नहीं कर सकते हैं इसलिए एक तरफ आप हमसे बहस चलाती हैं और फिर जब जवाब देने की बारी आती है तो कहते हैं कि यह तो 'general' बहस है! क्योंकि आप इस 'general' की आड़ लेकर बसनेगा अभियान पर हमला भी करना चाहते हैं पर बहस के मुद्दों पर जवाब न होने को छुपाना चाहते हैं.
-पीड़ीएसएफ के साथियों की मूर्खता: दूसरा co-ordinate
दुसरे co-ordinate से देखने पर उनकी उलझन और ज्यादा स्पष्ट होती है: पहले वे कहती हैं कि क़ानून की माग माँगना सुधारवाद है. दूसरी अवस्थिति में वे कहती हैं कि उन्होंने ऐसा कहीं भी नहीं कहा था कि कानून की मांग सुधारवाद है! तीसरी अवस्थिति में वे सुधार और सुधारवाद के लेनिनवादी सिद्धांत का प्रतिपादन करने लगते हैं. चौथी अवस्थिति में वे फिर से रोज़गार गारंटी कानून को सुधारवादी मांग कहती हैं. न सिर्फ सुधारवाद बल्कि इस किस्म का सुधारवाद जो क्रांति का गर्भपात करवाने की सम्भावना रखता है! अब इस पर और क्या कहा जाए, बस यही कि आप आम सिद्धांत प्रतिपादन करने में भी उलझे हुए हैं. सुधारवाद पर इस किस्म की समझदारी इनकी मूर्खता को दिखा देता है.
-पीड़ीएसएफ के साथियों की अवसरवादिता: तीसरा co-ordinate
तीसरे हिस्से से देखने पर उनकी इस उलझन के पीछे छिपी अवसरवादिता स्पष्ट होती है. पहले वे कहती हैं कि वे इस बहस का ठोस जवाब देंगी. न सिर्फ ठोस जवाब बल्कि वे बिन्दुवार जवाब देंगी. परन्तु दूसरी अवस्थिति में वे जवाब देने से भागने लगती हैं और कहती हैं कि हमारे सवाल जवाब दिए जाने लायक नहीं है. साथियों सीधे बोलिए कि आपके पास जवाब नहीं है. इसके बाद वे आम सिद्धांत प्रतिपादन शुरू कर देते हैं और उसकी आड़ में हमारी अवस्थिति पर हमला करने का प्रयास करते हैं. हमारे द्वारा उनके हर मुद्दे का जवाब दिए जाने पर वे इतना मजबूर होते हैं कि रोज़गार गारंटी कानून को सुधारवादी मांग कहें पर यह कहकर भी वे हमपर हमला नहीं करना चाहते हैं और यह वे आम बहस चलाते हुए करना चाहते हैं. पर यह आम बहस क्या होती है? हर पक्ष का एक प्रतिपक्ष होता है. आपने इस बहस में हमें बिन्दुवार जवाब देने का वायदा किया परन्तु जब आपने यह पाया कि आप अपनी अवस्थिति को defend और हमारी अवस्थिति पर attack कर पाने में अक्षम हैं तो आपने आम बहस चलानी शुरू कर दी. इसे ही अवसरवादिता और भगौड़ापन कहते हैं!
तीन पत्र - तीन अवस्थितियाँ! पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
हम पीडीएसएफ के साथियों के तीन पत्रों में कानून की मांग पर आई तीन अलग-अलग अवस्थितियों को यहाँ रख रहे हैं. हम पाठकों पर यह निर्णय छोड़ देते हैं कि वे तय करें कि क्या इसे अवस्थिति बदलना नहीं कहेंगे? हम साथियों से बस इस बात की मांग कर रहे हैं कि हमारे जवाब का बिन्दुवार जवाब दिया जाए जिससे बहस ढंग से आगे बढ़ सके. इस बहस की शुरुआत पीडीएसएफ के साथियों ने रोज़गार गारंटी और रोज़गार गारंटी कानून को एक दूसरे के बनाम रखने वाली पोस्ट से हुई और पीडीएसएफ के साथियों ने इन दोनों मांगों में रोज़गार गारंटी की मांग को क्रांतिकारी कहा. इस पोस्ट पर चली बहस में पीडीएसएफ के साथियों ने रोज़गार गारंटी कानून के बारे में यह कहा:
-"कानून बन जाने से यह परिस्थिति बदल नहीं जाती है बल्कि इसके विपरीत कानून बनने के बाद भी रोजगार नहीं मिलने से और भी अधिक निराशा फैलती है" (खुशबू उपाध्याय)
- "अगर गारंटी कानूनों के लिए लड़ाई लेने को हम क्रांतिकारी कदम मान लें तो यह गलत होगा"(आकांक्षा प्रिय)
इस पर हमारे द्वारा दिए गए बिन्दुवार जवाब पर उन्होंने हमें इस बहस में बिन्दुवार जवाब देने का वायदा किया. परन्तु इस बहस को आगे बढाते हुए उनके तीन पत्र आये जिनमें उनकी अवस्थितियाँ बदलती रही हैं.
पहले पत्र में अवस्थिति:
"पहली बात यह कि इसमे कहीं नहीं कहा गया है कि रोजगार गारंटी के लिए कानून मांगना सुधारवाद है।"
"साथी अजय के ऊपर के कमेन्ट से यह तो स्पष्ट है कि इन्होने यह कतई नहीं कहा है कि कानून बनाने के लिए लड़ना गलत है या सुधारवादी कदम है। हाँ, यह जरूर कहा है कि "महज" कानून बनाने के लिए लड़ना सुधारवादी है."
"और अभी तक हमने उनके द्वारा चलाये जा रहे "भगत सिंह रोजगार गारंटी कानून" की आलोचना करने का फिलहाल न तो कोई फैसला लिया है और न ही कोई ऐसा इरादा व्यक्त किया है।"
इस पत्र में उनकी अवस्थिति से कुल मिलाकर यह साफ़ है कि उनके अनुसार वे रोज़गार गारंटी के लिए कानून बनाये जाने की मांग को सुधारवाद नहीं मानते हैं.
दूसरे पत्र में दूसरी अवस्थिति:
"सुधारों की सीमा बताये बिना, क्रांतिकारी बदलाव की जरूरतों पर समुचित जोर दिये बिना, पूँजीवाद को पलटने की अपरिहार्यता पर समुचित रूप से बल दिये बिना महज सुधारों के लड़ना अवश्य ही सुधारवाद में जा फंसना है और जाने या अनजाने सुधारवाद की दलदल में मुंह के बल गिर जाने का रास्ता है।"
यहाँ वे इस बहस के रेखांकित मुद्दे यानी रोज़गार गारंटी कानून की मांग को सुधारवादी कहने से बच निकलते हैं और सामान्य-सामान्य बात कहकर सुधार और सुधारवाद पर लेनिन की अवस्थिति रखते हैं. यहाँ रोज़गार गारंटी कानून और रोज़गार गारंटी की मांग के ऊपर बहस से उन्होंने ख़ुद को मानो ऊपर उठा लिया है.
तीसरी अवस्थिति:
-"यहाँ हम अगर थोड़ा गौर करें तो पायेंगे कि रोजगार का मुद्दा ऐसा है जिस पर क्रांतिकारी विस्फोट पैदा करने की क्षमता है।..... "रोजगार गारंटी कानून" की मांग से शुरू होने वाली रोजगार गारंटी की लड़ाई का सुत्रपात शुरू से ही इस संभावना का गर्भपात करा देगा" (सिद्धांत)
यहाँ क्रांतिकारी परिस्थिति और सुधारवाद के बारे में एक नयी समझदारी पेश की गयी है जिसके अनुसार वे माँगें जिनमें क्रांतिकारी विस्फोट पैदा करने की क्षमता है उनके लिए क़ानून की मांग उठाना सुधारवाद है. यह पहली और दूसरी अवस्थिति से बदली हुयी अवस्थिति है.
अब इन तीन पत्रों की तीनों अवस्थितियों के बारे में ख़ुद पाठक तय करें कि इनमें किस प्रकार लगातार पीडीएसएफ के साथियों ने पलायनवाद का परिचय दिया है. इन तीनों पत्रों में जो एक समानता है वह है बिन्दुवार और नुक्तेवार जवाब न देना. अंत में वे तीसरे पत्र के कमेन्ट सेक्शन में साथी Ak Bright के कमेन्ट के जवाब में कहते हैं कि
"साथी Ak Bright, हम एक जनरल बहस चला रहे हैं बेरोज़गारी और 'सुधार के लिए व सुधारवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष' जैसे मुद्दे पर। इसका किसी भी संगठन से कोई लेना देना नहीं है। हम अपने इन पोस्ट्स से किसी संगठन को जवाब नहीं दे रहे हैं।"
अब ज़रा उनकी पहली पोस्ट के कमेन्ट सेक्शन में लिखे कमेन्ट से इसे मिलाकर देखें:
"और भी ठोस जवाब जैसा आप चाहते हैं वो भी दूंगी"
"आपके पोस्ट के सारे सवाल का बिंदुवार जवाब ही दूंगी। बिंदुवार सवाल लिखने में आपको काफी समय लगा है। इसका बिंदुवार जवाब लिखने के लिए भी थोड़ा समय लगेगा। साथ ही इस बहस का मैं और मेरा संगठन दोनों स्वागत करते हैं।"
इस अवस्थिति से मुहँ मोड़ने के लिए उन्होंने इस पैंतरे का इस्तेमाल किया है:
"हम अपने पहले वाले भाग में ही यह बता चुके थे कि हम पर जो आरोप लगाए गए हैं वे हमारे द्वारा respond किये जाने लायक नहीं हैं। और इस मायने में हम अपने ऊपर लगे किसी भी आरोप का कोई प्रत्यक्ष जवाब भी नहीं दे रहे हैं।"
और इस पैंतरे से वे अपनी अवस्थिति से पलट गए हैं. "बहस के स्वागत से" "respond किये जाने लायक नहीं है" तक पहुँचने का कारण उनके द्वारा अपनी गलती को स्वीकार न करने की प्रवृत्ति है. उनके द्वारा इतनी अवस्थितियों को बदलने के बाद हम पीडीएसएफ के साथियों से यही पूछना चाहते हैं कि पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? कृपया स्पष्ट करें.
यहाँ हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस पोस्ट को लिखने का आशय बहस को फिर से सही मुद्दों पर लाना है व इस प्रश्न पर सही मार्क्सवादी समझदारी को इंगित करना है.
पीडीएसएफ वा पीडीवाईएफ के साथी 'ठीक' से मार्क्स द्वारा लिखित पूँजी खंड-1 के दसवें अध्याय को पढ़ें, हम सहमत हैं!
साथी सिद्धांत का यह प्रस्ताव बेहद अच्छा है कि पीडीएसएफ और पीडीवाईएफ के साथियों को पूँजी खंड-1 के दसवें अध्याय को ठीक से पढ़ लेना चाहिए. क्योंकि जिस हिस्से को हमने अपने जवाब में उद्दृत किया है यानी पूँजी खंड-1 में काम के घंटे आठ करने हेतु मांग उठाने वाली मार्क्स द्वारा कही गयी बात का हिस्सा, दरअसल उन्होंने प्रथम इंटरनेशनल के जिनेवा कन्वेंशन के प्रस्ताव से उद्धृत किया था. जानते ही होंगें कि 'प्रथम इंटरनेशनल' मजदूरों का एक संगठन था जिसने मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिज़्म के लिए ठोस संघर्ष के मुद्दों पर प्रस्ताव रखे. यह हिस्सा पूँजी के वैज्ञानिक विश्लेषण का हिस्सा होने के साथ ही 'concrete operative' मांग मजदूरों के सामने पेश करता है. दसवें अध्याय से हमने अपने जवाब में यह मांग इसलिए ही उद्दृत की है क्योंकि इसमें मार्क्स इसे ठोस संघर्ष का मुद्दा बताते हैं. इस अध्याय को पीडीएसएफ के साथियों के द्वारा ज़रूर ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इस अध्याय में ही बताया गया है कि आठ घंटे काम की मांग केवल एक आर्थिक मांग नहीं है बल्कि मुख्यतः राजनीतिक मांग है. इसी तरह रोज़गार गारंटी क़ानून की मांग सिर्फ एक आर्थिक मांग नहीं है बल्कि एक राजनीतिक मांग है. मार्क्स ने दिखाया है कि आठ घंटे के कार्यदिवस का क़ानून बन जाने के बावजूद इसे कार्यान्वित करवाने वाली क़ानून की मशीनरी ऐसी है कि उसका लागू होना संभव नहीं है. मार्क्स स्पष्ट करते हैं कि इसका ढांचागत कारण यह है कि जब पूँजीवाद 'formal subsumption of labour' से 'real subsumption of labour' के दौर में प्रवेश कर जाता है यानी जब सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने की प्रवृत्ति प्रमुख बन जाती है तब भी दोनों प्रवृत्तियाँ यानी निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने की व सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने की प्रवृत्ति, काम करती है. आठ घंटे का क़ानून बन जाने के बाद भी इसके लागू हो जाने को लेकर मार्क्स 'sceptic' थे और इसके बारे में scientific scepticism के बाद भी मार्क्स इसे एतिहासिक संघर्ष मानते थे क्योंकि मार्क्स इसे प्रमुखतः राजनीतिक लड़ाई मानते थे. इस लड़ाई के जरिये मज़दूर केवल अपने भत्ते के लिए नहीं बल्कि अपने पूरे जीवन को श्रम काल में तब्दील किये जाने के खिलाफ लड़ता है, मानवीय जीवन के लिए लड़ता है.
निश्चित ही उज़रत प्रणाली को ख़त्म किये बिना यह संभव नहीं और इसे ध्वस्त करना ही कम्युनिज़्म का प्रोजेक्ट है परन्तु जब तक उज़रत प्रणाली समाप्त नहीं होती है तब तक मज़दूर आठ घंटे के क़ानून के लिए भी लड़ेगा, रोज़गार गारंटी के क़ानून के लिए भी लड़ेगा और कार्यस्थल पर सुरक्षा के क़ानून के लिए भी लड़ेगा. मज़दूर वेतन को बढ़ाने और वेतन भुगतान के लिए व अन्य कानूनों को बनाने के लिए भी लड़ेगा और इस प्रक्रिया में ही यह समझेगा कि पूँजीवाद में क्या संभव है क्या नहीं. आम मज़दूर यह बात पीड़ीएसएफ के पर्चे के जरिये नहीं जानेगा. पर्चे या राजनीतिक साहित्य के जरिये जो आबादी कम्युनिज़्म के प्रोजेक्ट में शामिल होगी वह मज़दूर वर्ग का उन्नत हिस्सा होता है और मज़दूर वर्ग का उन्नत हिस्सा अकेले क्रान्ति नहीं करता है. मार्क्सवाद का पुराना 'dictum' है 'masses make history' यानी जन समुदाय ही इतिहास बनाता है. लेनिन ने हिरावालपंथ की प्रवृति पर चोट करते हुए लिखा है कि सर्वहारा वर्ग अकेले क्रान्ति नहीं करता है और मित्र वर्गों को साथ लेकर ही क्रान्ति करता है. इस कारण सर्वहारा वर्ग अपने मित्र वर्ग की मांगों को साथ लेकर भी संघर्ष करता है. रोज़गार गारंटी कानून वर्गीय मांग होते हुए भी आम जनता की मांग बनती है. वैसे ही जिसप्रकार महंगाई के खिलाफ संघर्ष वर्गीय मांग होते हुए आम जनता की भी मांग है. महंगाई और बेरोज़गारी की सबसे बुरी मार मज़दूर वर्ग पर पड़ती है इस कारण ही यह वर्गीय मांग है. यह आम मांग इसलिए है क्योंकि केवल मज़दूर वर्ग ही नहीं अर्ध सर्वहारा और निम्न मध्य वर्ग पर भी इनकी मार पड़ती है. इसलिए हम पीडीएसएफ के साथियों से कहेंगे कि वे ठीक से पूँजी खंड-1 के दसवें अध्याय का अध्ययन करें व यह समझने का प्रयास करें कि क्यों मार्क्स आठ घंटे के काम की मांग को उठाने की हिमायत करते हैं, क्यों इसे एक राजनीतिक मांग मानते हैं तथा क्यों वे काव्यात्मक शैली में लिखते हैं कि अटलांटिक के दोनों ओर (अमरीका और यूरोप में) यह माँग ही मजदूरों की केन्द्रीय माँग है. साथ ही हम पी डीएसएफ के साथियों से यह मांग भी करेंगे कि उन बहुतेरे तोड़- मरोड़ करने वालों में शामिल न हो "जिन्हें मार्क्स के उद्धरणों को अपने लिए 'प्रूफ' के तौर पर उपयोग करने की हड़बड़ी रहती है, और जहाँ-तहाँ तथा कहीं से मार्क्स के किन्हीं कथनों को उनके पूरे संदर्भ को समझे बिना उद्धरित करते रहते हैं". इसलिए पूँजी खंड-1 के दसवें अध्याय को संदर्भ में रखकर समझें व मार्क्स द्वारा प्रथम इंटरनेशनल के प्रस्ताव को "खोज और छानबीन (investigation) ....निष्कर्ष तक पहुँचने के पहले की तैयारी" के रूप में पेश न करें. यदि आप पढेंगे कि संपादक ने इस उद्धरण पर क्या टिप्पणी लगायी है तो आप जानेंगे कि इस प्रस्ताव को ख़ुद मार्क्स ने ड्राफ्ट किया था. इस ड्राफ्ट को वे महज एक वैज्ञानिक के रूप में नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी वैज्ञानिक एक्टिविस्ट के रूप में लिख रहे थे. इसलिए हम साथी सिद्धांत के इस प्रस्ताव का स्वागत करते हैं कि पीडीएसएफ वा पीडीवाईएफ के साथी ठीक से मार्क्स द्वारा लिखित पूँजी खंड-1 के दसवें अध्याय को पढ़ें, वह भी सन्दर्भों के साथ. हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.
सिद्धान्त राज का नया खुलासाः 'पूँजी' को किस प्रकार पढ़ें कि उसके ठोस निष्कर्षों से बचा जा सके
पीडीएसएफ के साथियों को सलाह - दस स्टूलों पर एक साथ बैठने के चक्कर में उनके बीच में धड़ाधड़ गिरते रहने की दर्दनाक विभीषिका से अपने आपको बचा ले।
सिद्धान्त राज ने सिद्धान्त-प्रतिपादन की नयी ऊंचाइयों को छूते हुए कुछ नये खुलासे किये हैं। ( लिंक - https://www.facebook.com/sidd1917/posts/2120993514584192 ) पहले हम दिखायेंगे कि ये ''खुलासे'' भी पहले की ही तरह, बल्कि उससे भी ज्यादा मूर्खतापूर्ण हैं। बाद में हम यह दिखलायेंगे कि न सिर्फ 'पूँजी' में बल्कि मज़दूर वर्ग के संगठन प्रथम इण्टरनेशनल के दस्तावेज़ों, प्रस्तावों, कार्यक्रम में भी कानून की मांग और ऐसे मुद्दों पर कानून की मांग पर क्या नज़रिया रखा गया है, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों को तीखा बनाते हुए संकट पैदा करने की क्षमता रखते हैं।
पहला खुलासा, करते हुए सिद्धान्त राज ने बताया है कि 'पूँजी' को कैसे पढ़ें। उनका निशाना हमारे द्वारा 'पूँजी' से आठ घण्टे के कार्यदिवस के कानून की मार्क्स द्वारा मांग करने से संबंधित उद्धरण है। सिद्धान्त राज ने कोई कारण नहीं बताया है कि 'पूँजी' में मार्क्स द्वारा ऐसे कानून की मांग को क्यों नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने बस सामान्य तौर पर कह दिया है कि 'पूँजी' से इस तरह से उद्धरण देना ''बदमाशी'' है! ऐसे उद्धरणों से कुछ सिद्ध नहीं होता! पहली बात तो यह है कि 'पूँजी' से हमने जो उद्धरण पेश किये थे, वह जिस अध्याय से है, वह अध्याय वास्तव में मज़दूर आन्दोलन के ठोस प्रश्नों पर सबसे प्रत्यक्ष तौर पर बात करता है। आप यह कह कर इस अध्याय के निष्कर्षों से भाग नहीं सकते हैं कि यह तो मार्क्स की विशद वैज्ञानिक व्याख्या का एक अंग था, इसका कोई ऑपरेटिव पार्ट नहीं निकलता है। कैसे नहीं निकलता है! क्यों नहीं निकलता है! इसका कोई ठोस कारण बताने की बजाय, सिद्धान्त राज कट लिये हैं! बेहतर होता कि मार्क्स के उन उद्धरणों की वे वैकल्पिक व्याख्या करते और बताते कि कैसे मार्क्स 'पूँजी' के इस हिस्से में वह नहीं कह रहे हैं, जो वह कह रहे हैं! दूसरी बात यह है कि पूँजी में हमने जिस हिस्से को उद्धृत किया है, उसमें से एक तो पहले इण्टरनेशनल में पारित प्रस्ताव था! वह महज़ कोई ''बौद्धिक वैज्ञानिक संधान और उसके सावधान निष्कर्ष'' नहीं है, जिसे पहले, सिद्धान्त राज के अनुसार, ''विकूटीकृत'' करके समझना पड़ेगा! इसलिए मार्क्स को वास्तव में सिद्धान्त राज अपने काल्पनिक ''विकूटीकरण'' और ''व्याख्या'' में घसीट रहे हैं। यह एक मार्क्सवादी के लिए एक चार सौ बीसी जैसा जुर्म माना जायेगा। हमारी सलाह यही होगी कि अपने कुतर्कों के बचाव में इस श्रेणी तक न गिर जाएं तो बेहतर होगा। यहां पर वही कहा जा सकता है जो कि एंड्रू क्लाइमेन ने मार्क्स का विकृतिकरण करने वाले लोगों के बारे में कहा हैः सिद्धान्त राज जैसे ''लोगों ने मार्क्स को तरह-तरह से बदलने की कोशिश की है, जबकि सवाल मार्क्स की व्याख्या करने का है...सही तरीके से!''
इसके बाद सिद्धान्त राज ने बिना कोई ठोस तर्क दिये यह दावा किया है कि हम अध्ययन कमज़ोर होने के कारण मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन के उद्धरण पेश कर रहे हैं! बेहतर होता कि वह दिखलाते कि: (1) जो उद्धरण पेश किये गये हैं वे प्रस्तुत संदर्भ में ग़लत कैसे हैं; (2) सिद्धान्त राज के अनुसार उनका वैकल्पिक अर्थ क्या है, मतलब उन्हें सिद्धान्त राज की ''प्रसिद्ध विकूटीकरण पद्धति'' से किसे प्रकार समझा जाय! लेकिन ऐसा कुछ भी ठोस करने की बजाय, ठोस सवालों का ठोस उत्तर देने की बजाय पीडीएसएफ फिर से मूल मुद्दों से भागने का भगोड़ापन ही दिखलाते हैं।
अब हम सिद्धान्त राज व पीडीएसएफ के चमत्कृत कर देने वाले सिद्धान्त प्रतिपादन के दूसरे हिस्से पर आते हैं। चूँकि 'पूँजी' मार्क्स की वह रचना है जिसमें वह ''पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की आंतरिक गति का समग्र अध्ययन कर रहे हैं''; चूँकि वह इस रचना में ''वे सबसे गहन और 'खोज' यानी 'छानबीन' से शुरू करते हैं और फिर गहन विश्लेषण करते हुए अत्यंत सावधानी से निष्कर्षों तक पहुँचते हैं''; चूँकि ''पूँजी भाग-1 में मार्क्स मुख्यतः खोज और छानबीन (investigation) में लगे हैं और निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले की तैयारी कर रहे हैं'' इसलिए इस रचना से मार्क्स को उद्धृत करके कुछ साबित नहीं किया जा सकता है। वैसे तो यह तर्क ही ग़लत है। मार्क्स ने 'पूँजी' के विषय में स्वयं ही लिखा था कि ''मेथड ऑफ इंक्वायरी'' और ''मेथड ऑफ एक्सपोज़ीशन'' में अन्तर होता है। 'पूँजी' के मेथड ऑफ इंक्वायरी को समझने के लिए रोमन रोस्दोल्स्की से लेकर आज के दौर में क्लाइमेन, अनवर शेख और माइकल रॉबट्र्स जैसे कई मार्क्सवादियों ने शोध किया है और यह दिखलाया है कि इंक्वायरी ठोस से अमूर्त की ओर बढ़ती है और एक्सपोज़ीशन इस पद्धति से प्राप्त सत्य को अभिव्यक्त करता है। इसीलिए 'पूँजी' की शुरुआत मुद्रा या बाज़ार से नहीं बल्कि माल से होती है। इसलिए यह दावा करना कि 'पूँजी' के पहले खण्ड में मार्क्स बस कोई पूर्वपीठिका तैयार कर रहे थे, शुरुआती जांच कर रहे थे और यह कि इस जांच के नतीजे बस आरज़ी यानी प्रोविज़नल है, और यहां से उद्धृत करके कुछ सिद्ध करना मुश्किल है, एकदम बेतुका और मूर्खतापूर्ण तर्क है और यह दिखलाता है कि पीडीएसएफ के साथियों की 'पूँजी' के लिखे जाने की प्रक्रिया, मार्क्स के ''मेथड ऑफ इंक्वायरी व मेथड ऑफ एक्सपोजीशन'' के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में कोई समझदारी नहीं है। ऊपर से तुर्रा ये कि 'पूँजी' के अध्ययन की मेथडॉलजी पर ये लोग दुनिया भर को प्रवचन दे रहे हैं! इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है!
लेकिन फिर भी अगर पीडीएसएफ के साथी 'पूँजी' के उद्धरणों के अर्थों को अपनी नायाब पद्धति से ''विकूटीकृत'' किये बिना समझने से इंकार करते हैं, तो आइये मार्क्स व एंगेल्स के उन विचारों को देखते हैं, जो कि उन्होंने मज़दूर वर्ग के संगठन के मंच पर ठोस कार्रवाइयों के लिए रखे थे, या जो सलाहें उन्होंने अपने लेखों के ज़रिये विभिन्न देशों के मज़दूरों को दी थीं। ये वह लेखन है जिसे आप सीधे-सीधे मार्क्स द्वारा अपने विश्लेषण से निकाला गया 'ऑपरेटिव पार्ट' कह सकते हैं। निम्न उद्धरण पर ग़ौर करेंः
"Trade unions originally sprang up from the spontaneous attempts of workmen at removing or at least checking that competition, in order to conquer such terms of contract as might raise them at least above the condition of mere slaves. The immediate object of trade unions was therefore confined to everyday necessities, to expediencies for the obstruction of the incessant encroachments of capital, in one word, to questions of wages and time of labour. This activity of the trade unions is not only legitimate, it is necessary. It cannot be dispensed with so long as the present system of production lasts. On the contrary, it must be generalized by the formation and the combination of trade unions throughout all countries. On the other hand, unconsciously to themselves, the trade unions were forming centres of organization of the working class, as the medieval municipalities and communes did for the middle class. If the trade unions are required for guerrilla fights between capital and labour, they are still more important as organized agencies for superseding the very system of wage labour and capital rule." (Marx, Political Writings, Vol-3, Penguin 1974, p. 91).
इसमें मार्क्स बताते हैं कि ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के वे जनसंगठन होते हैं तो कि कार्यदिवस व मज़दूरी जैसे मसलों पर लड़ने के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य होते हैं, और पूँजीवाद के रहते उनके बिना मज़दूर वर्ग दासत्व की स्थिति को प्राप्त हो जायेगा; साथ ही, मार्क्स यह भी बताते हैं कि ये ट्रेड यूनियन संघर्ष ही मज़दूर वर्ग को पूँजी के शासन के अन्त की लड़ाई के लिए भी तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं। यहां जब मार्क्स मज़दूरी व कार्यदिवस के मसले पर संघर्ष की बात करते हैं तो उसके लिए कानून की मांग की बात को शामिल करके बात करते हैं।
दूसरा उद्धरण एंगेल्स का है। ग़ौर करेंः
"The Ten Hours' Bill not only gave the workers the satisfaction of an indispensable physical need, by protecting their health to some extent from the manufacturers' frenzy for exploitation, it also liberated the workers from their alliance with the sentimental dreamers, from their solidarity with all the reactionary classes of England. The patriarchal drivel of an Oastler, or the moving assurances of sympathy from a Lord Ashley could find no more listeners once the Ten Hours' Bill ceased to provide point to these tirades. Only now did the labour movement concentrate wholly on achieving the political rule of the proletariat as the prime means of transforming the whole of existing society. And here it was faced by the aristocracy and the reactionary factions of the bourgeoisie, only shortly before still the allies of the workers, as so many raging enemies, as so many allies of the industrial bourgeoisie." (Engels, The English Ten Hour Bill, 1850, Neue Rheinische Zeitung)
यहां एंगेल्स साफ तौर पर बताते हैं कि कार्यदिवस संबंधी कानून बनने पर मज़दूरों की चेतना भोथरी नहीं होती, बल्कि वह राजनीतिक तौर पर और स्वतन्त्र बनती है और अन्य प्रतिक्रियवादी वर्गों से राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करता है। इसके बूते मज़दूर वर्ग अपनी लड़ाई को राजनीतिक सत्ता और पूरे समाज के क्रांतिकारी रूपान्तरण की लड़ाई तक ले जा सकता है। इसी लेख में ऐसे कानून और उसके कार्यान्वयन की सीमा बताते हुए एंगेल्स कहते हैंः
"And nevertheless the Ten Hours' Bill is indispensable for the workers. It is a physical necessity for them. Without the Ten Hours' Bill this whole generation of English workers will be physically ruined. But there is a vast difference between the Ten Hours' Bill demanded by the workers today and the Ten Hours' Bill which was propagated by Sadler, Oastler and Ashley and passed by the reactionary coalition in 1847. The workers have learnt the value of an alliance with reaction from the brief existence of the Bill, from its easy annihilation — a simple court decision, not even an Act of Parliament, was all that was needed to annul it — and from the subsequent behaviour of their reactionary former allies. They have learnt the use of passing separate partial measures against the industrial bourgeoisie…. The Ten Hours' Bill demanded by the workers today is thus quite different from the one which has just been overruled by the Court of Exchequer. It is no longer an isolated attempt to cripple industrial development, it is a link in a long chain of measures which will revolutionise the whole of the present form of society and gradually destroy the class antagonisms which have hitherto existed; it is not a reactionary measure, but a revolutionary one." (Engels, The English Ten Hour Bill, 1850, Neue Rheinische Zeitung)
जैसा कि आप देख सकते हैं कि एंगेल्स यहां स्पष्ट करते हैं कि मज़दूरों द्वारा उन्हीं मुद्दों पर मांगा जाने वाला कानून बुर्जुआजी द्वारा उन्हीं मुद्दों पर बनाये जाने वाले कानूनों से भिन्न होता है और ऐसे कानूनों के लिए लड़ना मज़दूर वर्ग के लिए सांस लेने के समान अनिवार्य होता है। आखिरी लाइन पर गौर करें, जिसमें एंगेल्स बताते हैं कि ऐसे पीसमील सुधारों के लिए संघर्ष मज़दूर वर्ग के राजनीतिक रूप से उन्नत बनने के लिए अनिवार्य होते हैं। लेकिन पीडीएसएफ की अवस्थिति इससे स्पष्ट तौर भिन्न है। न तो वे बुर्जुआजी द्वारा ''दे दिये जाने वाले'' यानी purely regulative कानूनों और मज़दूर वर्ग द्वारा लड़कर जीते जाने वाले कानूनों में फर्क नहीं समझते, जो कि मज़दूर वर्ग को न सिर्फ फौरी राहत और बुनियादी अधिकार देते हैं, बल्कि उनकी राजनीतिक चेतना को भी उन्नत करते हैं। लेकिन आप ''वामपंथी'' phrase-mongers से ऐसी सच्चाई को पकड़ पाने की उम्मीद नहीं कर सकते।
निम्न उद्धरण तो मानो एंगेल्स ने पीडीएसएफ के सिद्धान्त प्रतिपादन सरीखी ''वामपंथी'' लफ्फाजी का जवाब देने के लिए लिखा थाः
"In Belgium there are no factory laws whatever to limit the hours of labor of women or children; and the first cry of the factory voters of Ghent and neighborhood was for protection for their wives and children, who were made to slave fifteen and more hours a day in the Cotton Mills. The opposition of the Proudhonist doctrinaires who considered such trifles as far beneath the attention of men occupied with transcendent revolutionism, was of no avail, and was gradually overcome." (Engels, To the Working Men of Europe in 1877)
यहां एंगेल्स बताते हैं कि प्रूधोंवादी सिद्धान्तवादी (!!) कानूनों के लिए संघर्ष की मांग को बेकार समझते हैं, मज़दूर वर्ग की राजनीति के लिए उन्हें हेय या निम्न मानते हैं, और एक प्रकार के transcendental revolutionism का अनुसरण करते हैं; ठीक उसी प्रकार जैसे पीडीएसएफ के लोग कानूनों हेतु संघर्ष को, और खासकर उन मुद्दों पर जो कि पूँजीवाद में संकट पैदा कर सकते हैं (!!), गलत मानते हैं और मानते हैं कि ऐसा करने से जनता में विभ्रम फैलता है और कानून की लड़ाई के चक्कर में ''क्रांति की घड़ी'' बीत जाती है! उनके मुताबिक ऐसे प्रश्नों पर सीधे ''क्रांति की ओर कूच'' किया जा सकता है! यह हास्यास्पद कुतर्क है और इसका जवाब प्रस्तुत उद्धरण में एंगेल्स ने आज से 140 साल पहले ही दे दिया था, जैसा कि आप उपरोक्त उद्धरण में देख सकते हैं।
आइये अब पहले इण्टरनेशनल के दस्तावेज़ों पर एक नज़र डालते हैं, जिन्हें मार्क्स ने लिखा था।
"A resolution having been passed unanimously by the Congress of Geneva 1866 to this effect: "That the legal limitation of the working day is a preliminary condition indispensable for the ulterior social improvements," the Council is of opinion that the time is now arrived when practical effect should be given to that resolution and that it has become the duty of all the branches to agitate that question practically in the different countries where International Working Men's Association is established."
(Marx, Draft Resolution on the Reduction of the Working Day Proposed by the General Council to the Brussels Congress)
उपरोक्त उद्धरण के बारे में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। पाठक स्वयं ही देख सकते हैं कि मार्क्स की इस कानून की मांग को लेकर क्या राय थी।
"In their attempts at reducing the working day to its former rational dimensions, or, where they cannot enforce a legal fixation of a normal working day, at checking overwork by a rise of wages, a rise not only in proportion to the surplus time exacted, but in a greater proportion, working men fulfill only a duty to themselves and their race. They only set limits to the tyrannical usurpations of capital. Time is the room of human development. A man who has no free time to dispose of, whose whole lifetime, apart from the mere physical interruptions by sleep, meals, and so forth, is absorbed by his labour for the capitalist, is less than a beast of burden. He is a mere machine for producing Foreign Wealth, broken in body and brutalized in mind. Yet the whole history of modern industry shows that capital, if not checked, will recklessly and ruthlessly work to cast down the whole working class to this utmost state of degradation." (Value, Price and Profit, Documents of First International, Marx)
उपरोक्त उद्धरण में मार्क्स दिखलाते हैं कि इस कानून की मांग महज़ कोई आर्थिक मांग नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक मांग है और यह एक ऐसी मांग है जिसे मज़दूर वर्ग को लगातार और बार-बार उठाना ही पड़ेगा।
"As to the limitation of the working day in England, as in all other countries, it has never been settled except by legislative interference. Without the working men's continuous pressure from without that interference would never have taken place. But at all events, the result was not to be attained by private settlement between the working men and the capitalists. This very necessity of general political action affords the proof that in its merely economical action capital is the stronger side." (Value, Price and Profit, Documents of First International, Marx)
यहां मार्क्स बताते हैं कि बिना कानून के कार्यदिवस कभी छोटा नहीं होता। मज़दूर वर्ग को इस प्रश्न पर दबाव डालकर कानून बनवाना ही होता है। साथ ही, यह मज़दूर वर्ग की एक राजनीतिक कार्रवाई होती है।
निम्न उद्धरण भी पहले इण्टरनेशनल के एक प्रस्ताव से है।
"Limitation of the working day
A preliminary condition, without which all further attempts at improvement and emancipation must prove abortive, is the limitation of the working day.
It is needed to restore the health and physical energies of the working class, that is, the great body of every nation, as well as to secure them the possibility of intellectual development, sociable intercourse, social and political action.
We propose 8 hours work as the legal limit of the working day. This limitation being generally claimed by the workmen of the United States of America,'40 the vote of the Congress will raise it to the common platform of the working classes all over the world.
For the information of continental members, whose experience of factory law is comparatively short-dated, we add that all legal restrictions will fail and be broken through by Capital if the period of the day during which the 8 working hours must be taken, be not fixed. The length of that period ought to be determined by the 8 working hours and the additional pauses for meals. For instance, if the different interruptions for meals amount to one hour, the legal period of the day ought to embrace 9 hours, say from 7 a.m. to 4 p.m., or from 8 a.m. to 5 p.m., etc. Nightwork to be but exceptionally permitted, in trades or branches of trades specified by law. The tendency must be to suppress all nightwork.
The case of the working class stands quite different. The working man is no free agent. In too many cases, he is even too ignorant to understand the true interest of his child, or the normal conditions of human development. However, the more enlightened part of the working class fully understands that the future of its class, and, therefore, of mankind, altogether depends upon the formation of the rising working generation. They know that, before everything else, the children and juvenile workers must be saved from the crushing effects of the present system. This can only be effected by converting social reason into social force, and, under given circumstances, there exists no other method of doing so, than through general laws, enforced by the power of the state. In enforcing such laws, the working class do not fortify governmental power. On the contrary, they transform that power, now used against them, into their own agency. They effect by a general act what they would vainly attempt by a multitude of isolated individual efforts." (Marx, The International Workingmen's Association, 1866, Instructions for the Delegates of the Provisional General Council, The Different Questions)
इस उद्धरण में मार्क्स विस्तार में जाकर बताते हैं कि मज़दूर वर्ग को कैसे कानून की मांग करनी चाहिए। मार्क्स ने एक अन्य स्थान पर यह भी लिखा है कि कानून बन जाने के बाद भी कार्यदिवस कभी स्थायी रूप से फिक्स्ड नहीं हो सकता है क्योंकि वह पूँजी की गति से बार-बार प्रभावित और निर्धारित होगा और मज़दूर वर्ग को बार-बार इसके लिए लड़ना पड़ेगा। इसके बावजूद, यह संघर्ष राजनीतिक है और पूँजीवाद के कोर पर चोट करता है और उसकी सीमाओं को उजागर करता है। मार्क्स यह भी बताते हैं कि इस प्रश्न पर संघर्ष कानून बनवाने की मांग के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता है। निम्न दो उद्धरण भी इसी दस्तावेज़ हैं और मार्क्स की अन्य मुद्दों पर कानूनों की मांग, जैसे कि बाल श्रम व रात्रि कार्य, के बारे में दृष्टि को भी साफ कर देते हैं।
"It is self-understood that the employment of all persons from 9 and to 17 years (inclusively) in nightwork and all health-injuring trades must be strictly prohibited by law." (Marx, The International Workingmen's Association, 1866, Instructions for the Delegates of the Provisional General Council, The Different Questions)
यहां भी देखेंः
"However, for the present, we have only to deal with the children and young persons of both sexes divided into three classes, to be treated differently [a]; the first class to range from 9 to 12; the second, from 13 to 15 years; and the third, to comprise the ages of 16 and 17 years. We propose that the employment of the first class in any workshop or housework be legally restricted to two; that of the second, to four; and that of the third, to six hours. For the third class, there must be a break of at least one hour for meals or relaxation." (Marx, The International Workingmen's Association, 1866, Instructions for the Delegates of the Provisional General Council, The Different Questions)
आगे। निम्न उद्धरण में मार्क्स आठ घण्टे के कानून को जीतने को मज़दूर वर्ग की राजनीतिक शक्ति का पर्याय माना है और माना है कि इस प्रश्न पर मज़दूर वर्ग की एकता व्यापक स्तरों पर स्थापित की जा सकती है।
"The latent power of the working classes of the United States has recently manifested itself in the legal establishment of a working day of eight hours in all the workshops of the Federal Government, and in the passing [of] laws to the same effect by many State Legislatures. However, at this very moment the working men of New York, for example, are engaged in a fierce struggle for enforcing the eight hours' law, against the resistance of rebellious capital. This fact proves that even under the most favourable political conditions all serious success of the proletariat depends upon an organisation that unites and concentrates its forces; and even its national organisation is still exposed to split on the disorganisation of the working classes in other countries, which one and all compete in the market of the world, acting and reacting the one upon the other. Nothing but an international bond of the working classes can ever ensure their definitive triumph." (Marx, The Fourth Annual Report of the General Council, 1868)
हमने ये उद्धरण इसलिए पेश किये कि 'पूँजी' के ''आरंभिक अध्ययन व छानबीन'' से उद्धरण पेश करने को लेकर उनकी दयनीय शिकायत व रुदन बन्द हो जाये! अब आप ये शिकायत नहीं कर सकते कि हमने किसी बैकग्राउंड स्टडी से उठाकर या किसी अमूर्त विश्लेषण से उठाकर मार्क्स को उद्धृत कर दिया है। ये वे लेखन हैं, जो कि सीधे-सीधे ऑपरेटिव पार्ट से जुड़े हैं और दिखलाते हैं कि संकटपरक मुद़दों से लेकर गैर-संकटपरक मुद्दों तक पर कानून की मांग की जाती है और की जानी चाहिए; कि इन मांगों से मज़दूर वर्ग की चेतना का स्तरोन्नयन होता है, न कि वह भोथरी होकर सुधारवाद के विभ्रमों में फंसती है; कि इन कानूनों की मांगों के संघर्ष के बिना किसी transcendental revolutionism के चक्कर में फंसना मंसूबावाद और शेखचिल्लीवाद है, जिसका कि पीडीएसएफ बुरी तरह से शिकार है। दूसरी बात, हमने यह भी दिखलाया कि 'पूँजी' के उद्धरणों से भी यही बात सिद्ध होती है, और उन उद्धरणों को सिद्धान्त राज के सिद्धान्त प्रतिपादन से विकूटीकृत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
पीडीएसएफ के नवीनतम पत्र से स्पष्ट हो गया है कि यदि क्रांतिकारी ईमानदारी का परिचय देते हुए अपनी ग़लतियों को दुरुस्त करने का साहस न हो तो आप एक कुतर्क का बचाव करने के लिए दर्जनों कुतर्क देते हैं और फिर अपने ही कुतर्कों के बेतुके जंजाल में फंस जाते हैं। लेनिन के शब्दों में आप कभी एक स्टूल पर बैठते हैं, तो कभी उछल कर दूसरे स्टूल पर बैठते हैं और इस हास्यास्पद कवायद में कई बार दो स्टूलों के बीच गिर पड़ते हैं। अपने चार पत्रों में पीडीएसएफ यही करता नज़र आ रहा हैः पैंतरापलट, ग़लतबयानी, झूठ और कुतर्क पर कुतर्क! और एक और प्रवृत्ति है जिसको हमने पिछले चार पत्रों में चिन्हित किया है। जब ये सारे पैंतरेपलट और ग़लतबयानियों के बाद भी पीडीएसएफ ठोस सवालों का ठोस जवाब देने में असमर्थ होता है, तो वह सारे भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की समस्याओं के बारे में दार्शनिक मुद्रा में चला जाता है, बल्कि शिक्षक की मुद्रा में चला जाता है और फालतू की प्रवचनबाज़ी शुरू कर देता है। बेहतर है कि पीडीएसएफ ठोस सवालों पर ठोस बात करे, ठोस उद्धरणों पर ठोस बात करे, और दस स्टूलों पर एक साथ बैठने के चक्कर में उनके बीच में धड़ाधड़ गिरते रहने की दर्दनाक विभीषिका से अपने आपको बचा ले। लेकिन जैसा कि हमने कहा, इसके लिए क्रांतिकारी ईमानदारी बरतते हुए अपनी ग़लतियों को दुरुस्त करने का साहस होना चाहिए और इसका पीडीएसएफ के सारे पत्रों और रीजॉइंडरों में नितान्त अभाव नज़र आता है।
पलायनवाद और लीपापोती का नया तरीका।
साथी खुशबू ने रोज़गार गारंटी की मांग बनाम रोज़गार गारंटी कानून पर जारी बहस के अपने जवाब के दूसरे हिस्से में पलायनवादी और लीपापोती का तरीका अपनाया है, मानो गंगा में अभी तक पानी बहा ही नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि पीडीएसएफ के साथियों ने नए सिरे से समूचे कम्युनिस्ट आंदोलन की सुधारवाद और सुधार पर शिक्षण-प्रशिक्षण का बीड़ा उठा लिया है। परंतु अफसोस कि यह तरीका बहुत कारगर नहीं है क्योंकि गंगा में पानी बह चुका है यानी इस बहस में पहले ही बहुत सारे मुद्दे रेखांकित और चिन्हित हो चुके हैं। पीडीएसएफ के रेजॉइंडर के पहले हिस्से के जवाब में हमने प्रमाण समेत यह दिखाया था कि वे कानून के लिए होने वाले संघर्ष को गलत मानते हैं। पीडीएसएफ के साथियों की पोस्ट में से कोट कर हमने स्पष्ट रूप से दिखलाया की वे कहाँ-कहाँ पर कानून के लिए लड़े जाने वाले संघर्ष को गलत मानते हैं। साथ ही हमने पीडीएसएफ के साथियों के कथनों को मार्क्स व लेनिन के कोट से juxtapose कर यह दिखाया कि उनकी अवस्थिति मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं है। इस सबके बाद हमें बिंदुवार और नुख्तेवार जवाब देने के बजाय वे भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के शिक्षण-प्रशिक्षण के task को स्वयंभू अपने हाथ में उठाते हुए सुधार और सुधारवाद पर एक पत्र जारी कर देते हैं जिसमें उद्धरण भी हैं जिन्हें हमने अपने जवाब में उद्धरित किया था! किंतु बहस के मूल मुद्दों से भागने, पलायनवाद और लीपापोती का यह तरीका कारगर सिद्ध नहीं हो रहा है। इसलिए हम यही आग्रह करेंगे कि आपको हमने जो तीन पत्र बिंदुवार जारी किए हैं उन तीन पत्रों /पोस्टों का बिंदुवार जवाब दें अगर आप यह कर सकते हैं तो, जहां तक लेनिन के सुधार और सुधारवाद के सिद्धान्तनिरूपण का सवाल है तो हम यह खुद पढ़ लेंगे। आप general political pamphleteering करने की जगह ठोस मुद्दों का ठोस मुद्देवार जवाब दें।
हमारे तीन पत्रों के लिंक :
पीडीएसएफ के कॉमरेड गोलपोस्ट शिफ्ट करते-करते फुटबॉल के ग्राउंड से क्रिकेट के ग्राउंड में जा पहुंचे
पीडीएसएफ के साथियों ने फिर एक जवाब दिया है। चुंकि ये अपनी सारी पोस्ट में पुरानी पोस्ट का लिंक नहीं देते (पकड़े जाने का डर!) इसलिए इस बार इस पोस्ट में हम सारी पुरानी पोस्ट के लिंक भी नीचे देंगे ताकि पाठक पूरी बात समझ सकें।
जो ठोस सवाल बहस में उठे थे, इस पोस्ट में उनमें से किसी का जवाब नहीं दिया गया है, किनाराकस्सी करने की एक बार फिर कोशिश की गई है। कुछ लोगों की आदत होती है कि जब सामान्य की चर्चा हो तो वह ठोस की चर्चा करते हैं और जब ठोस की बात होती है तो सामान्य की बात करते हैं। यह वह लोग होते हैं जिनके पास ना तो ठोस सवालों के कोई ठोस जवाब होते हैं और ना सामान्य सवालों की सामान्य समझदारी। जब हमने पीडीएसएफ के तमाम पोस्टों और पोस्टों में उनके द्वारा अपनाई गई अवस्थितियों पर उंगली रखकर ठोस ठोस प्रश्न उठाए तो उन प्रश्नों पर ठोस ठोस जवाब देने की बजाय ये सामान्य उद्धरणबाजी कर रहे हैं जो किस पर लागू होती है, किस पर लागू नहीं होती, कोई नहीं जानता। जिन रचनाओं से हमने उद्धरण दिए उन्हीं से उद्धरण उद्धरित करके आप सुधार और सुधारवाद का फर्क बता रहे हैं और बता रहे हैं कि सुधार के लिए लड़ते हुए सुधारवाद के खिलाफ संघर्ष करना होता है। इस बहस में शुरू से ही इस विषय पर कोई अलग मत रहा ही नहीं है। लेकिन यह सामान्य बातें की इसलिए जा रही हैं कि जो ठोस सवाल उठाए गए हैं और जो पोस्ट के बिंदुओं पर पलायनवाद व अपनी बातों से मुकर जाने का काम किया गया है उस पर कोई जवाब ना दिया जाए और और सामान्य सिद्धांत प्रतिपादन करके कट लिया जाए।
जो ठोस सवाल उठाए गए थे और जिसमें आपकी शुरू से ही अवस्थिति यह थी कि रोजगार गारंटी कानून के लिए लड़ने का नारा उठाना गलत है और रोजगार के हक के लिए नारा उठाना सही है और इन दोनों को आपने बनाम (versus) के रूप में पेश किया था। आपके पिछले जवाब की हैडिंग भी यही थी और उस जवाब पर जब बहस ठोस मसलों पर particularise की गई तो हमने जिन रचनाओं से उद्धरण पेश किए हैं उन्हीं रचनाओं से उद्धरण पेश करके बता रहे हैं कि सुधार के लिए कार्य करते वक्त सुधारवाद के विरुद्ध लड़ना जरूरी है। आप इस पर क्यों नहीं बात करते कि आपने रोजगार गारंटी कानून के लिए लड़ने को सुधारवाद कहा था, गलत मुहिम माना था और आपने यह भी कहा था कि कानून के लिए लड़ना मार्क्स के समय में सही था और लेकिन आज के टाइम में सही नहीं है। यानि जो ठोस प्रश्न उठाए गए हैं उन पर आप भाग रहे हैं।
इसलिए सामान्य सिद्धांत प्रतिपादन मत करिए। मार्क्सिस्ट डॉट ओआरजी पर जाकर कोई भी देख लेगा बेहतर होगा जो आपकी ओरिजिनल पोजीशन में गड़बड़ियां थी और जिन की ओर इंगित किया गया, चयनित किया गया और उन पर उंगली रख कर बताया गया कि यह गड़बड़ियां हैं उनका ठोस जवाब दें। पलायनवाद के नए-नए तौर-तरीके ना निकालें।
साथ ही अभी भी बिंदुवार उत्तर का जो वायदा आप द्वारा किया गया था वह पूरा नहीं किया गया और उसका हमें इंतजार है। बिंदुवार उत्तर से भागने का प्रयास ना करें। आपके रिजॉइंडर के पहले हिस्से का जवाब भी हमने बिंदुवार दिया है। उसका भी हमें बिंदुवार जवाब दें। सामान्य सिद्धांत प्रतिपादन की आपकी आदत जा नहीं रही है। सारे भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को शिक्षित प्रशिक्षित करने का बीड़ा आप ना उठायें। आप ठोस प्रश्नों का ठोस जवाब दें।
वैसे आपने उद्धरण बाजी करके इशारों में एक आरोप लगा दिया है कि हम सुधार की बात करते हुए सुधारवाद कर रहे हैं। लेकिन जिन रचनाओं से हमने उद्धरण दिये थे उन्हीं से उद्धरण देकर कुछ साबित नहीं होता। मजदूर बिगुल का एक लेख जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है और बेरोजगारी के ढांचागत कारणों की मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्याख्या करता है और जिसे साथी एमके आजाद ने पॉलिटिकल इकनॉमी ग्रुप में शेयर भी किया है, उसमें हमने इस मुद्दे पर विस्तार से लिखा है। अपने प्रचार का काम हमें आप से सीखने की जरूरत नहीं है। हम अपना प्रचार कर रहे हैं लेकिन बात यहां आकर फंसती है कि आपके अनुसार कानून की मांग करना गलत है और कि जिससे आप मुकर गए और जब हमने यह चिन्हित किया तो आप भाग रहे हैं और लेनिन की रचनाओं के उदाहरण देकर इशारों में यह कह रहे हैं कि हम सुधारवाद कर रहे हैं। लेकिन हमारे किस पोस्ट, किस पर्चे, किस लेख, किस भाषण से यह जाहिर होता है कि हम सुधारवाद कर रहे हैं। यहां भी ठोस जवाब दें।
इसके लिए चलताऊ भाषा में एक शब्द होता है – हवाबाजी। इसलिए हवाबाजी ना करें ठोस उदाहरण सहित बताएं तब बात होगी। जहां पर हमने ठोस बात रखी है वहां आप पतली गली से निकलने की कोशिश कर रहे हैं इसलिए हम अपनी मांग फिर दोहराएंगे कि हमारे तीन बिंदुवार पत्र का बिंदुवार जवाब दिया जाए। इससे पलायन करने का कोई रास्ता है नहीं।
इस बहस से जुड़े सारे लिंक एक बार फिर यहां दे रहे हैं
1 – साथी खुशबू की पोस्ट जहां बहस की शुरूआत हुई - https://www.facebook.com/comkhushboo/posts/1529441983820331
2 – साथी खुशबू की पोस्ट को मेरे द्वारा जवाब - https://www.facebook.com/satya.narayan.522/posts/10215323493541823
3 – सुधार के विषय में लेनिन के विचार – मेरी पोस्ट - https://www.facebook.com/satya.narayan.522/posts/10215332288841700
4 – साथी खुशबू का जवाब - https://www.facebook.com/comkhushboo/posts/1532167630214433
5 – खुशबू के रिजॉइंडर पर हमारा जवाब - https://www.facebook.com/satya.narayan.522/posts/10215333463031054
6 – साथी खुशबू का एक ओर जवाब - https://www.facebook.com/comkhushboo/posts/1533178246780038
7 - इसी जवाब के बाद ये पोस्ट लिखी गयी है।
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